Thursday, 9 September 2010

रावण की सीख (Tips)


श्रीराम को जैसे ही विभीषण ने बताया कि रावण कि नाभि में अम्रत है और उसी के कारण रावण अपराजेय है। तो प्रभु राम ने एक बाण छोडकर रावण की नाभि का अम्रत सुखा दिया और अगले ही बाण में रावण धराशायी होकर रणभूमि में गिर पडा। यह देखते ही सम्पूर्ण वानर दल में खुशी की लहर दौड पडी रावण के गिरने के साथ ही युद्ध समाप्त हो गया था स्वर्ग से देवता भी पुष्प वर्षा  करने लगे और पूरा वातावरण हर्ष से भर गया था। इसी प्रसन्नता के वातावरण के बीच भगवान राम ने लक्ष्मण से बोले,

भ्राता लक्ष्मण! सम्पूर्ण विश्व का शासक, परम शक्तिशाली, रावण आज रणभूमि में पडा अपनी म्रत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। रावण एक प्रराक्रमी योद्धा ही नहीं अपितु एक परम विद्वान भी था। ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर उसने वेदों, नीति-शास्त्र और राजनीति का गहन अध्ययन किया है। इस बहुमुखी प्रतिभा और वीरता से ही तो उसने अपना राज्य प्रथ्वी से इन्द्रलोक तक विस्तार कर लिया था। वास्तव में रावण का जीवन अनुभवों का भंडार है। अतमैं चाहता हुं कि तुम उसके देहावसान (म्रत्यु) होने से पहले ही शीघ्र ही उसके पास जाओ और उससे कुछ सीख/ज्ञान(टिप्स) लेकर आओ, जो भविष्य में तुम्हारे बहुत काम आयेगी। कहीं ऐसा ना हो कि उसके अनुभवों का भंडार भी उसी के साथ हमेशा के लिये विलुप्त हो जाय।

प्रसन्नता के इस अवसर पर राम के मुंह से यह बातें सुनकर लक्ष्मण को आश्चर्य हुआ कि भैया राम ये क्या कह रहे हैं। यह राक्षसों का राजा रावण, माता सीता के अपहरण जैसा निन्दनीय कर्म करने वाला यह रावण, और अब हारकर रणभूमि में पडा यह रावण भी क्या शिक्षा दे सकता है। जिसने जीवने में कभी कोई अच्छा कर्म नहीं किया हो, वो रावण क्या ज्ञान देगा। लेकिन भैया राम कह रहे हैं, तो फ़िर तो जाना ही पडेगा। देखें क्या बताता है। लक्ष्मण अनबने मन से युद्ध भूमि में घायल पडे रावण के पास गये और उसके सिर के निकट जा कर खडे हो गये और बोले,

हे रावण! भैया राम ने कहा है कि मुझे तुमसे कुछ शिक्षा लेनी चाहिये। जल्दी बताओ, कि तुम मुझे क्या शिक्षा देने चाहते हो।

रावण ने अधबुझी आंखें खोल कर लक्ष्मण की ओर देखा, और एक व्यंग भरी मुस्कान देकर अपना मुंह दूसरी ओर मोड लिया। लक्ष्मण पुनबोले,

अरे रावण जल्दी बोलो, क्या तुम कुछ कहना चाहते हो?

रावण कुछ नहीं बोला और नेत्र बंद करके पडा रहा। लक्ष्मण को गुस्सा आ गया और वो अपने पांव पटकते हुए लौट आये और श्री राम से बोले,

भैया वो अभिमानी रावण तो कुछ भी नहीं बोल रहा, वरन मुझे देखकर उसने अपना मुंह दूसरी ओर मोड लिया।

श्रीराम बोले,

लक्ष्मण! जब हम किसी से कुछ वस्तु मांगते हैं तो हम विनम्रता पूर्वक विनती करते हैं। ठीक उसी प्रकार जब हम गुरु के पास ज्ञान लेने जाते हैं तो हमें विनीत होना अत्यंत आवश्यक है। यदि मैने तुम्हें रावण से कुछ सीखने को भेजा तो इसका मतलब था कि रावण को हमने गुरु माना। अतचाहे वो रणभूमि में हारा हुआ, हमारा परम शत्रु क्यों ना रहा हों, परन्तु ज्ञान की भिक्षा लेते समय हमें उसके सामने झुकना ही पडेगा। चलो तुम मेरे साथ चलो।

ऐसा कहकर श्रीराम, लक्ष्मण को लेकर उस दिशा कि ओर चल पडे, जहां घायल रावण अपनी म्रत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। रावण की आंखे बंद थी और वह दर्द से कराह रहा था, उसके चारों ओर बचे हुये राक्षस विलाप कर रहे थे। भगवान राम उसके पांवों के निकट जाकर खडे हो गये और बोले,
हे राक्षस शिरोमणि रावण!, मैं रघुवंशी राम, तुम्हें और तुम्हारी वीरता को प्रणाम करता हुं।
यह सुनकर आश्चर्य से रावण ने अपने नेत्र खोले और अपने चरणों के निकट विनम्र मुद्रा में करबद्ध, खडे श्रीराम को देखकर बोला,

मेरा प्रणाम भी स्वीकार करें रघुकुल नंदन! किस उद्देश्य से आप ने रावण के पास आने का कष्ट किया, क्रपया कहें।

हे राक्षस-राज! हमारी शत्रुता तो रणभूमि तक ही थी। आपको आपके कर्मों का दंड भी मिल चुका है 
और हमारी शत्रुता भी अब समाप्त हो चुकी है। हे रावण! मैं आयु और अनुभव दोनो में आपसे बहुत छोटा हुं, और वहीं आपके पास असीम ज्ञान और अनुभव का भंडार है। इसलिये मेरी आपसे विनम्र विनती है कि आप अपने अनुभव रूपी ज्ञान के खजाने के सबसे मूल्यवान रत्न मुझे और मेरे भ्राता लक्ष्मण को प्रदान करें जो हमारे जीवन भर काम आये।

हे रामवीरता और विनम्रता दोनों में ही आप अजेय हो। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुयी कि आप  अब मुझे अपना शत्रु नहीं समझते हो, वास्तव में आपका ज्ञान तो मु्झसे कहीं अधिक है लेकिन आपने विनती कि है तो सुनिये। मैने अपने संपूर्ण जीवन में बस दो ही बातें सीखी हैं और ये दो बातें ही मेरे जीवन का सार हैं। पहली बात यह है कि यदि आप कभी कोई अच्छा कार्य करना चाहते हैं तो उसे उसी समय कर डालो। थोडा सा भी विलंब या उसे कल पर मत टालो क्योंकि कल-कल करते हुए समय व्यतीत हो जाता है और अच्छा कार्य हमेशा के लिये अधूरा ही रहा जाता है।

हे रावण! क्रपा करके उदाहरण भी दीजिये।

यह बात तब की है जब मेरा राज्य अपनी सर्वश्रेष्ठ स्थिति में था। मैने प्रथ्वी, पाताल और इंद्रलोक (स्वर्ग को भी जीत लिया था। मैने और मेरी राक्षस प्रजा ने अपने जीवन में कभी अच्छे कर्म तो किये नहीं थे तो ये मरने के बाद नरक लोक ही हमारी नियति था। तो मैने सोचा कि एक ऐसी सीढी बनाउंगा जो लंका से सीधे स्वर्ग तक जायेगी और उस सीढी से चढकर मेरी प्रजा स-शरीर स्वर्ग जा सकेगी। ये एक अच्छा कार्य था परन्तु मैं इसे कल पर टालता रहा और आज तक यह अधूरा रह गया।  इसके अतिरिक्त मैने सोचा था कि लंका के चारों तरफ़ ये खारे पानी का जो समुद्र है उसे में दूध के सागर में बदल दुंगा। इससे लंका देखने में भी सुंदर लगेगी और मेरी प्रजा इस खारे पानी से भी मुक्ति पायेगी। परन्तु हे रामये दोनो ही अच्छे कार्य मैं कल पर टालते रहा कि अभी जल्दी क्या है, कल करुंगा पर वो कल कभी नहीं आया, और मैं आज म्रत्यु के द्वार पर खडा हुं लेकिन ये काम अधूरे रह गये। इसलिये हे राम! कभी कोई अच्छा कार्य करने का मन हो तो उसी समय कर डालना उसे कल पर मत छोडना। ये मेरे जीवन की पहली सीख है।

धन्यवाद राक्षस राज, आपकी यह सीख वास्तव में अनमोल है। क्रपा करके अब दूसरी शिक्षा भी प्रदान करें।

हे सू्र्यवंशी रामदूसरी बात जो मैने अपने जीवन से सीखी वह यह है कि यदि मन मैं कोई अनुचित (गलतकाम करने का विचार आये तो उसे सदैव कल पर टाल दो। क्योंकि कल कभी आयेगा नहीं और इस तरह आप उस अनुचित कार्य करने से बच जाओगे। उदाहरण के रूप में, जब सूर्पनखा मेरे पास अपनी कटी नाख ले कर आयी तो उसने मुझसे कहा कि भैया मैं तो तुम्हारे लिये एक सुंदरी लाने  गयी थी, लेकिन उस सुंदरी के साथ दो युवक भी थे जिन्होने मेरी यह दशा की। तुम जाओ और उस सुंदरी का अपहरण कर के ले आओ क्योंकि वह तो तुम्हारी रानी बनने के योग्य है। हे राम! मैने उस समय सीता का अपहरण करने में जरा भी विलंब नहीं किया। उसी क्षण गया और सीता का अपहरण कर के ले आया। यदि मैने उस समय यह कार्य कल पर टाल दिया होता तो यह भी स्वर्ग की सीढी और दूध के सागर जी तरह कभी पूरा नहीं होता, और ना ही ये अपहरण होता और ना लंका का विनाश होता और ना ही मैं अपने कुल के साथ मारा जाता। तो राम यहीं दो बातें मैने जीवन से सीखी की अच्छे कार्य को करने में कभी विलंब मत करो और बुरे कार्य करने का मन हो तो सदैव आलसी बन जाओ।

तो यह थी वह शिक्षा जो रावण ने मरने से पहले दी। परन्तु अपने जीवन में हम साधारणतइन बातों का विपरीत ही करते हैं। अपने पडोसी से लडना हो, या किसी मित्र को बातें सु्नानी हों, या अन्य अनुचित कार्य क्यों ना हों, हम इन कार्यों को करने में थोडा सा भी विलंब नहीं कर पाते हैं। उसी क्षण जा कर करते हैं, और उसके विपरीत अच्छे काम करने में हमेशा यही सोचते हैं कि कल करेंगेचाहे किसी की प्रशंसा करनी हो, किसी की सहायता करनी होया फ़िर रास्ते में बैठे दीन दुखियों को कुछ दान देना हो तो सदैव मन में यही विचार आता है कि अगली बार अवश्य करेंगे। परन्तु अच्छा काम करने का कल बहुत कम ही आ पाता है।   

इस कहानी को पढने के बाद अवश्य सोचिये कि आपने कौन से अच्छे कार्य करने में विलंब किया और कौन से काम थे जो कल पर टाले जा सकते थे। 

नोट: आजकल तो रावण की फ़ोटो भी गूगल में सर्च करिये तो सारे प्रष्ठ अभिषेक और ऐश्वर्या की रावण फ़िल्म के ही चित्रों  से ही भरे पडे हैं। फ़िर 'रामलीला का रावण' लिख के सर्च किया तो जा कर रावण का चित्र मिल पाया। कलियुग में तो रावण की भी अपनी कोई 'आईडेनटिटी' नहीं रहा गयी है। ;) शीघ्र ही ढाका के आगे के भाग प्रस्तुत करुंगा। धन्यवाद।



2 comments:

Komal said...

Hi Sudhir, I had heard this story but not in that detail. Thanx for putting it in ur blog......good one.....

Unknown said...

nice one.... keep it up