Sunday 28 November 2010

राजा रानी और बकरा

बात बहुत पुरानी है। एक राजा था जिसे एक मुनि ने प्रसन्न होकर जानवरों, कीट पतंगों और पक्षियों की बोली समझने का वरदान दिया था, लेकिन एक शर्त भी थी कि यदि राजा ने किसी को भी इस बारे में बताया तो राजा की उसी क्षण म्रत्यु हो जायेगी। 

एक रात की बात है राजा अपनी रानी के साथ रात्री का भोजन कर रहा था, अचानक राजा ने देखा कि दो बडे चींटे (जो काले रंग के होते हैं और अंग्रेजी के ‘g’ शब्द से दिखते हैं।) राजा और रानी की थाली के बीच में घूम रहे थे। राजा को उत्सुकता हुयी कि जरा सुने की ये चींटियां क्या बात कर रही हैं। चींटा, चींटी से कह रहा था कि,

       ‘’ चींटी तूने रानी की थाली से चावल का दाना उठा कर राजा जी थाली में क्यों डाल     दिया? रानी को पाप चढेगा, राजा को अपना जूठा खिलाने का।‘’

        ‘’हठ पगले! पति-पत्नी में जूठा खिलाने से पाप थोडी चढता है’’, प्यार बडता है, चींटी बोली।

यह सुन कर राजा को बडे जोर की हंसी आयी, और राजा अट्ठ्हास कर उठा। राजा को यह सोच कर आश्चर्य हुआ कि इतनी छोटी चींटी में भी समझ है। राजा को हंसते देख, रानी सोच में पड गयी कि क्या बात राजा को बडी हंसी रही है।
           
अरे बडा खिल खिला कर हंस रहे हैं, जरा हमें भी बताइये क्या हुआ?
         
नहीं रानी कुछ नहीं, बस ऐसे ही।
           
तो ऐसे ही हमें भी बता दीजिये हम भी थोडा हंस लेंगे, वैसे भी आपकी मां ने हमारा जीना
वैसे ही दूभर कर रखा है।   

नहीं-नहीं बस ऐसे ही हंसी आ गयी थी, कुछ खास बात नहीं है।

अरे! ऐसे ही आनी है तो हमें क्यों नहीं आ रही है। सत्य कहिये आप हमें देख कर हंसे थे ना।

नहीं बिलकुल नहीं, आपको देख को मैं कैसे हंस सकता हुं।

हमें देखकर आप कभी खुश हुए भी हैं। तो जिसे देख के इतना प्रसन्न हो रहे थे, उसी का नाम बता दीजिये।

अरे कुछ भी नहीं रानी साहिबा, आप तो बस पीछे ही पड गयी हैं, कोई बात नहीं है आप
भोजन कीजिये।
 
            अब तो ऐसे ही कहंगे। हुंह!!!

रानी नाराज हो कर खाना अधूरा छोड कर ही चली गयी। राजा का मन भी खाना खाने का नहीं करा। लेकिन राजा तो शर्त से बंधा था कि वह उसके भाषा ज्ञान के बारे में किसी को बता नहीं सकता है। आज की बात होती तो कुछ भी झूठ बोलकर बच जाता लेकिन उस समय में लोग झूठ नहीं बोलते थे, खासकर राजा या पढे लिखे व्यक्ति।

राजा अपने वस्त्र बदल जब रानी के कमरे में पहुंचे तो देखा रानी मुंह फ़ुलाये अपना मुंह दूसरी ओर कर लेटी हुयी थी। राज ने जब रानी से बात करने का प्रयास किया तो रानी भडक गयी,
    
सबके सामने मेरी इन्सल्ट कर दी और अब बडा प्यार जता रहे हो।

     अरे रानी हमें क्षमा कर दो, पर बात ही ऐसी थी कि हम आपको नहीं बता सकते थे।

     अच्छा अब ऐसी बातें भी होने लगी जो आप हमें नहीं बता सकते।

     क्यों व्यर्थ हठ कर रही हैं, छोडिये बात को।

अच्छा हठ भी अब मैं ही कर रही हुं, इतनी ही बात है तो बता क्यों नहीं देते की बात क्या थी?

आप नहीं समझ पायेंगी रानी, छोडिये ना, इतनी सुंदर रात है।

हठो, छूना मत मुझे। कोई आवश्यकता नहीं है, उसी के पास जाईये जिसकी याद में इतना प्रसन्न हो रहे थे, मैं तो जिद करती हुं ना।

आप बात को गलत समझ रही हैं, ऐसी कोई बात नहीं है जैसा आप सोच रही हैं, वो तो बस छोटी सी बात थी।

अरे छोडिये जी, आपकी सारी छोटी-छोटी बातों का हमें ज्ञान है।

अरे अब तुम पुरानी बातें लेकर मत बैठ जाओ।

     मुझसे बात मत करो, जब तक मुझे सच-सच नहीं बताते कि आखिर माजरा क्या है।

राजा के समझ में नही आया कि क्या करे, तो उसने सोचा कि चलो थोडी नाराजगी ही तो है, कल सुबह तक ठीक हो जायेगी। लेकिन अगली सुबह भी रानी के मुंह की सूजन कम नहीं हुई, राजा ने बातचीत का कितना प्रयास किया और कितने प्रलोभन दिये पर रानी नहीं मानी। रानी के दिमाग में शक घर कर गया था। राजा जितना समझाने का प्रयास करता बात उतनी ही बिगड जाती। रानी का हठ बडता ही गया, अपनी बात मनवाने को रानी ने खाना-पीना भी छोड दिया। एक सप्ताह हो चुका था, रानी का स्वास्थ्य भी कमजोर हो गया था। राजा के समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे, एक तरफ़ कुंआ और दुसरी तरफ़ खाई वाली स्थिति हो गयी थी। या तो रानी को सारी बात बता दे और अपनी म्रत्यु को आमंत्रण दे या फ़िर अपने प्राणप्रिया रानी को ऐसे ही तडपने दे। राजा ने रानी को मनाने लाख प्रयास कर दिये पर रानी तो हंसी का कारण जानना चाहती थी। आखिर थक हार के राजा ने रानी से अंतिम बार पूछा कि

रानी मैं आपको वह बात बताने को तैयार हुं, परन्तु एक बात आप जान लें इसका परिणाम बडा भयंकर होगा।     
    
     मैं मर रही हुं, इससे बुरा क्या हो सकता है। मत बताओ।

     रानी, इस बात को बताने से मेरे जीवन पर संकट आ सकता है।

रानी को लगा कि राजा ब्लेकमेल करना चाह रहा है, रानी व्यंग करते हुये बोली,

राजा के प्राण को संकट? वो भी एक छोटी सी बात बताने पर?  फ़िर तो मेरा ही प्राण त्यागना उचित है। अपनी बात अपने पास ही रखिये, मेरे लिये थोडा सा विष मंगा दीजिये, अब तो जीने का मन ही नहीं है।

राजा के समझ में नही आ रहा था कि एक छोटी से बात के लिये रानी कैसे अपने प्राण दे सकती है। उलट राजा ही इमोसनली ब्लेकमेल हो गया और राजा ने निश्चय किया कि वह रानी को सब बता देगा। साथ ही उसने सोचा कि जब मरना ही है तो किसी तीर्थ स्थान में जाकर प्राण त्यागने में ही भलाई है, कम से कम कुछ सद्गति हो होगी।

अंतत: राजा ने हार मान ही ली, उसने रानी को बताया कि वह वह बात बताने को तैयार है जिसके कारण उसे हंसी आयी थी। रानी मन ही मन खुश तो बहुत हुई कि आखिर वह जीत गयी पर पहले रानी ने थोडा एटिट्युड दिखाया। राजा ने शर्त ये रखी कि वह बात हरिद्वार चल कर बतायेगा। रानी और खुश कि चलो यात्रा भी हो जायेगी, कब से कहीं जाने का अवसर भी नहीं मिला।

अंतत: राजा ने अपने सारे हिसाब किताब मंत्रियों को समझाकर, रानी को साथ लेकर यात्रा प्रारंभ की। पुराने समय में यात्राओं में लंबा समय लग जाता था अत: बीच-बीच में पडाव डाल के यात्रा पूरी की जाती थी। ऐसे ही राजा और रानी के दल ने यात्रा के दौरान पडाव डाला हुआ था। एक बडे खेत के किनारे राजा खुले में शांत बैठे प्रकति का आनंद ले रहे थ। रानी भी कुछ दूर में ही बैठी थी, तभी राजा को थोडी दूर पर एक बकरा और बकरी दिखायी दिये। उन्हे देखकर राजा को फ़िर उत्सुकता हुयी कि देखें ये दोनो क्या बात कर रहे हैं। बकरा और बकरी दोनो रोमांटिक किस्म की बातें कर रही थे, राजा को सुनने में आनंद आ रहा था। वार्तालाप कुछ ऐसे था,

मेरी बकरी, तेरी आंखों में तो मुझे अपनी ही शक्ल दिखायी देती है। ऐसा लगता है कि तुझे जमीं पर बुलाया गया है मेरे लिये।

मर जांवा मेरे बकरु, मुझे तो तु्झे देखते ही पहली नजर में प्यार हो गया था। अच्छा एक बात बता तु मेरे लिये क्या कर सकता है?

तेरे लिये तो मैं कुछ भी कर सकता हुं, मेरी जान, तू कह तो सही, तू कहे तो तेरे लिये आसमान से तारे तोड लाउं।

अरे नहीं, आज मेरा मन हरी-हरी घास खाने का मन कर रहा है, मेरे लिये ला ना।

ले अभी ले, कौन सी वाली, नदी के किनारे वाली या फ़िर उस घनी गुफ़ा के पीछे से, तू बता तुझे कौन सी पसंद है।

अरे नहीं मेरे लिये तु वो घास  ला जो कुएं के अंदर उग रही है, वो घास आज तक किसी बकरी ने नहीं खायी है। मेरी उस मोटी बकरी से शर्त से लगी है कि तु  मेरे लिये वह घास ला सकता है। देख आज मेरी इज्जत का सवाल है बकरु, यदि तूने मना कर दिया तो आज में उस मुटिया से हार जाउंगी।

राजा यह वार्तालाप सुन कर मन ही मन हंस रहा था कि देखो जरा कैसे अपनी शर्त मनवा रही है। तभी बकरा बोला,

अरे जानु, कुछ और मांग ले, कुएं के अंदर तो मैं जा सकता हुं पर बाहर कैसे आउंगा। मैं कोई मनुष्य तो नहीं हुं।

अच्छा प्यार करते समय तो डायलाग बडे आदमियों वाले मारते हों, बडा कह रहे थे कि आसमान से तारे तोड लाउंगा। अब लाओ।      

     अरे प्यारी बकरी बात तो समझ, ऐसा कैसे संभव हैं, मैं घायल हो जाउंगा।

मैं कुछ नहीं जानती बकरे, अगर तु ला सकता है तो ला, वरना हमारा ब्रेकअप निश्चित है, मेरी अपनी भी कुछ ईज्जत है।

ऐसा सुन कर बकरे को मन ही मन तो बहुत क्रोध आया, पर फ़िर भी बोला,
चल दिखा कहां पर है, मैं लाता हुं।

कुंआ नजदीक ही था, बकरी बकरे तो लेकर कुंऐ की मुंडेर पर पहुंची और दिखाने लगी कि वो वाली। बकरे ने बकरी को एक जोर का धक्का दिया और बकरी कुएं के अंदर गिर गयी, तब बकरा बोला,
         
साली तू समझती क्या है अपनी आप को, तेरे लिये मैं कुएं में घुसकर घास लाऊं। तूने मुझे क्या ये राजा समझा हुआ है जो अपनी पत्नी की जिद के आगे जान देने पर तुला है। खा अब जी भर के घास।

राजा ने जब ये सुना पहले तो मुस्कुराया और फ़िर शर्म से पानी-पानी हो गया। उसी क्षण उठा और रानी से बोला की तुझे घर चलना है कि नहीं। रानी बोली,
     
पहले तुम्हारे हंसने का कारण तो बताओ?
    
राजा ने गुस्से से कहा, ‘हफ़्फ़!!!  (जैसे लालू करता है कभी कभी)  चलना है तो चल नहीं तो यहीं रह'

रानी भी समझ गयी कि अब दाल गलने वाली नही है, तो बोली,
     अरे आप तो नाराज हो गये, मैं तो मजाक कर रही थी। चलिये घर चलते हैं।


नोट: पाठकों से विनम्र निवेदन है कि इस कहानी को केवल मनोरंजन के लिये पढें, इस का किसी वास्तविक घटना से कोई संबन्ध नहीं है और ना ही ये लेखक के अपने विचार हैं।  
    


Wednesday 24 November 2010

रावण या फ़िर रावन, सही क्या है?

कालिदास को संस्क्रत का महान कवि माना जाता है। कहते हैं कि पहले कालिदास एक जड मूर्ख थे और वहीं उनकी पत्नी बडी प्रकांड विद्वान। पत्नी के उलाहना देने पर कालिदास ने घर छोड के देवी सरस्वती की अराधना करनी आरंभ की, उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर माता काली ने उन्हें वरदान दिया कि वह सदैव उनकी जिह्वा में निवास करेगीं, और तब से मूर्ख कालिदास, महाकवि कालिदास हो गये। 

कालिदास की विद्वता और पांडित्य से प्रभावित होकर, राजा भोज ने इन्हें अपने दरबार में राजकवि की पदवी प्रदान की। यह वही राजा भोज हैं जिनके बारे में ये कहावत प्रसिद्ध  है कि कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली। जिस प्रकार अकबर और बीरबल की आपसी चुहलबाजी की कई कहानियां प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार राजा भोज और कालीदास के भी कुछ किस्से हैं, उनमें से एक मैं आगे लिख रहा हुं।

राजा भोजके दरबार के अन्य मंत्री, कालीदास से मन ही मन बहुत जलते, और हमेशा कालिदास को नीचा दिखाने के बहाने ढूंढते रहते थे, परन्तु कालिदास अपने चतुर दिमाग से हर बार बच जाते। इस बार दरबारियों ने एक नयी साजिश सोची, जिस के अनुसार किसी एक ढोंगी बाबा को खोजा गया जो नगर से दूर किसी गांव में रहकर जनता को ठगता था। दो दरबारियों ने उसके पास जाकर उसे अपने षडयंत्र में सम्मिलित होने के लिये ज्यादा आमदनी का लालच दिया, पहले तो ढोंगी बाबा ने मना किया क्योंकि वह उस छोटे से गांव में ही प्रसन्न था क्योंकि वहां कि जनता भी भोली भाली थी और पकडे जाने का डर भी कम था। जब बाबा नहीं माना तो दरबारियों ने उसे अपने रुतबे का डर दिखाया और कारागार (जेल) में डाल देने की बात कही। अंतत: ढोंगी बाबा तैयार हो गया।

योजनानुसार ढोंगी बाबा को, राजा भोज के महल के पीछे लगने वाले सब्जी बाजार में अपना तंबू लगाना था और वहां कि कि जनता को ठगना था। इसके लिये बाबा को कई सौ स्वर्ण मुद्राएं भी दी गयी। इसके लिये इश्तिहार (पोस्टर) भी छपवाये गये,

‘’कालिदास के गुरु, बाबा घुग्घु आपके नगर में, किसी भी समस्या के लिये मिलिये बाबा घुग्घु से आज ही।

नोट: बाबा अपाइन्ट्मेंट से ही मिलते हैं।’’

कालिदास की विद्वता से जनता तो पहले ही प्रभावित थी। जब लोगों को पता चला कि कालिदास के गुरु जी नगर में आये हैं और उनसे कोई भी मिल सकता है तो जनता टूट पडी। घुग्घु बाबा की तो मौज आ गयी, धन भी आया और साथ में घमंड भी। धन के साथ घमंड भी अनिवार्य रूप से आता है, यह एक सत्य है।  बंदर के हाथ में उस्तरा देने से और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है। अब घुग्घु बाबा खुले आम अपने को कालिदास का गुरु बताते और उसके ज्ञान को भी चुनौती देते। भोली जनता बहकावे में आ जाती, और बाबा का नाम नगर में आग की तरह फ़ैलने लगा। जल में रहकर मगर से बैर रखना कब तक सुरक्षित रह सकता है, वही बात हुई जिसका डर था। यह बात फ़ैलते फ़ैलते राजा भोज के दरबार में भी पहुंची की कालिदास के गुरु जी आजकल नगर में आये हुये हैं। राज भोज ने कालिदास को डांट पिलायी की तुम्हारे गुरु जी नगर में आये हैं और एक तंबू में रह रहे हैं और तुम्हे पता ही नहीं चला। इतने बडे ज्ञानी हमारे नगर में आये और हम उनकी विद्वता का सम्मान भी ना कर पायें। राजा भोज ने कहा कि हम स्वय़ं जाकर उनके दर्शन करेंगे। जब कालिदास ने यह सुना तो वह समझ गये कि यह जरूर किसी की चाल है क्योंकि गुरु तो उनका कोई था ही नहीं। अब जब पूरे दरबार के साथ राजा भोज उनसे मिलने जायेंगे और वहां कोई ढोंगी निकला तो मेरी इज्जत तो सरे आम निलाम हो जायेगी और लोग मुझ पर भी थू-थू करेंगे कि यह भी ढोंगी का चेला है। तब कालीदास ने राजा से प्रार्थना की कि वह सबसे पहले अपने गुरु से मिलना चाहेंगे क्योंकि इतने वर्षों के बाद उनसे मेरी मुलाकात हो रही है तो मैं चाहता हुं कि वह कुछः दिन मुझे सेवा का अवसर दें। राजा जे कहा कि चलो जैसी तुम्हारी मर्जी वैसे भी ये गुर चेले के बीच का मामला है, लेकिन आने वाले सोमवार को उन्हे राजकीय सम्मान के साथ हमारे राज दरबार में आमंत्रित करो। हम ऐसे विद्वान से मिलना और उनका सम्मान करना चाहते हैं।

राजा भोजा स्वयं तो बडे विद्वान थे और उनकी सभा में एक से बडकर एक उदभट विद्वान थे। अब तो कालिदास फ़ंस गये, बात ना निगलते बनती और ना थूकते, अब तो आगामी सोमवार को भरे दरबार के सामने अपमान होना सुनिश्चित ही था, वो भी किसी ढोंगी के कारण जो अपने को गुरु बताता है।

उस रात कालिदास अपने विश्वासपात्र मंत्रियों को लेकर बाबा घुग्घु से मिलने गये। पहले थोडी इधर-उधर की बातें हुई फ़िर कालीदास नें उनसे पूछा,

‘’गुरु घुग्घु! आप तो कालिदास के भी गुरु हैं, कुछ कालिदास के बारे में भी      
बताइये।‘’

‘’का बताये बेटा, इत्ता सा था जब उसकी मां हमारे पास छोड गयी थी उसें। पढने लिखने में तो उसका मन ही नहीं था। कित्तां समझाय रहे कि कलुवा थोडा पड ले बेटा, बेटा, घुग्घु का नाम काहे खराब कराय रहे हो। कल को लोग कहेंगे कि देखो गुरु घुग्घु का चेला कैसा मूर्ख है।‘’

कालीदास समझ गये कि यह तो कोई मूर्ख ढोंगी है, ऐसी कई सारी बातें पूछने के बाद कालिदास ने कहा,
     
     ‘’ बाबा घुग्घु, कालिदास को पहिचान तो लोगे ना, यदि कहीं मिल जाये?’’

‘’ काहे नहीं पहिचानेगें, कलुवा को, पिछ्ले महीने तो मिले थे उससे, राजा भोज के वहां लगा दिये हैं उसे हम। वो तो राजा भोज भी हमको गुरु माने है बेटा, चरनों पर लोटते है हमार, इतना मानते हैं हमको, तभी तो कलुवा को कुछ नहीं कहते हैं चाहे कितनी भी गलतियां करे।'’

अब कालिदास को लगा कि पानी सिर से उपर जा रहा है, तब उन्होने बाबा घुग्घु को अपन परिचय दिया, बाबा घुग्घु की तो आगे से गीली और पीछे से पीली होय गयी। कालिदास के सहायकों का तो हंस-हंस (मतलब हंसना, अब भी हिन्दी टाईपिंग में कुछ शब्द नहीं बन पाते हैं) के बुरा हाल था। अगले ही क्षण बाबा घुग्घु, चेले कालिदास के चरणों में लोटते हुये दिखायी दिये। उसी क्षण कालिदास ने बाबा घुग्घु का बोरिया बिस्तर बांधा और उन्हे अपने घर ले गये। अगले दिन पूरे नगर में खबर थी कि अब घुग्घु बाबा कालिदास के अतिथि हैं।

अब कालिदास के सामने समस्या थी कि आने वाले सोमवार को उन्हे घुग्घु को राजदरबार में अपना गुरु बना के ले जाना था, और वहां घुग्घु ने सबके सामने बेइज्जती करानी थी। कालिदास ने सोचा कि घुग्घु को कोई ऐसी चीज पढा देता हुं जो सबसे नयी और अलग हो, जिस पर घुग्घु प्रवचन देगा और वो किसी के समझ में नहीं आयेगा और कोई सवाल भी नहीं पूछेगा, और घुग्घु के पकडे जाने का डर भी कम हो जायेगा। अगले पांच दिन और रात भर, कालिदास, राज दरबार से अवकाश लेकर दिन-रात घुग्घु के पढाते रहे, लेकिन सारी मेहनत व्यर्थ, क्योंकि घुग्घु तो एक साधरण सा व्यक्ति था उसें भला कालिदास की कठिन बातें कहां समझ में आती। सोमवार आने में बस एक दिन शेष था और घुग्घु उतना ही मूर्ख था जितना एक सप्ताह पूर्व था। कालिदास के समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, यदि वो कुछ बहाना बना के गुरु घुग्घु के राज दरबार नहीं ले जाता तो यह उन षडयन्त्रकारियों की ही जीत होती। अत: कालिदास ने निश्चय तो कर ही लिया था कि अब तो गुरु घुग्घु ही कालिदास के गुरु बन के राज दरबार में जायेंगे और ईंट का जवाब पत्थर से देंगे। परन्तु समस्या थी इस घुग्घु का सच में घुग्घु होना।

अंतत: कालिदास को एक उपाय सुझा, उसने घुग्घु को धमकाते हुए कहा कि यदि तु जीवित रहना चाहता है तो तुझे अब  मेरा घुरु बन के ही राजदरबार में चलना होगा। लेकिन घुग्घु तो डर के मारे घुग्घु बना बैठा था, उसे स्थिति की भयावहता और अपनी औकात दोनो का ज्ञान हो चुका था। लेकिन एक शर्त होगी कि घुग्घु को मौन व्रत धारण करना होगा। कालिदास ने पहली रात भर घुग्घु को समझाया कि वहां तुझसे कोई कुछ भी पूछे तो तू मौन रहकर मेरी और ईशारा कर देना, बांकी बात मैं संभाल लुंगा, लेकिन जहां तूने अपना मुंह खोला तो तू गया। घुग्घु बात को पूरी तरह समझ गया था और प्रसन्न भी हो गया थी कि वाह क्या उपाय कालिदास ने सोचा है।
अगले दिन जाने से पहले भी कालिदास ने सौ बार घुग्घु को समझाया कि वहां भूलकर भी मुंह खोलने की हिमाकत मत करना वरना मैं जिम्मेदार  नहीं हुंगा। नियत समय पर एक बडा सा रथ कालिदास के द्वार पर उपस्थित हो गया जिसमें उन दोनो को राजदरबार जाना था। मार्ग में दोनो तरफ़ बडे-बडे स्वागत द्वार लगे थे, गुरु घुग्घु का धारा नगरी (राजा भोज के नगर को इसी नाम से जाना जाता था) में स्वागत है, कहीं कहीं पर फ़ूलों की वर्षा भी हो रही थी। इसी जय जयकार के बीच रथ महल में पहुंचा, राजा भोज स्वयं अगवानी के लिये अपस्थित थे। यह देखकर घुग्घु तो हर्ष विभोर हो गया था, ऐसा स्वागत तो उसने कभी स्वप्न में भी नहीं देखा थ। अब तो मन ही मन उसे भी कालिदास का गुरु होने की फ़ीलिंग आ रही थी। उधर कालिदास तनाव में थे कि ना जाने किस क्षण समस्या आन पडे।

बडे सम्मान के साथ घुग्घु को राज भोज के निकट बैठाया गया। जलने वाले दरबारी बस इस फ़िराक में थे कि कब मौका मिले और सच सबके सामने आये लेकिन कालिदास ने भी ऐसी युक्ति खोजी थी कि किसी को मौका ही नहीं मिला क्योंकि घुग्घु मौन बैठा था। इसके बाद शंका समाधान का दौर चला जिसमें राजा भोज ने सबको मौका दिया कि किसी को विद्वान गुरु से कोई प्रश्न पूछना है तो पूछ ले क्योंकि ऐसे ज्ञानी व्यक्ति से मिलने का मौका जीवन में बार-बार नहीं मिलता है। सभी एक-एक कर सवाल पूछ्ते और घुग्घु कालिदास की और ईशारा कर देता और कालिदास जटिल से जटिल प्रश्नों का बडी कुशलता से उत्तर दे देते। सभी कुछ योजनानुसार चल रहा था कि अचानक राजा भोज ने भी एक प्रश्न पूछ्ने की इच्छा व्यक्त की। राजा भोज जे सवाल किया,

‘’ आदरणीय घुग्घु गुरु मेरे मन में एक शंका बडे लंबे समय से है। मैने कई कवियों और लेखकों द्वारा रचित रामायण पढी हैं। कुछ लोग लंकापति का नाम रावण’ लिखते हैं और कुछ लोगरावन' लिखते हैं, मैं यह बात आज तक नहीं समझ पाया की, यह रावण है या रावन। क्रपय आप बताइये सही क्या है?’’

रामायण रावण का नाम आते ही घुग्घु अति उत्साहित हो गया, क्योंकि यह ही एक सवाल था जिसको वह कुछ समझ सका था, बांकी सवाल तो बस उसके सिर के उपर से निकल गये थे। घुग्घु छुटते ही बोला,

          ‘’ राभण, राभण कहत रहे हम तो उसको’’

यह सुनते ही पू्री सभा हंसते हंसते लोट-पोट हो गयी, रावण और रावन तो सबने सुने थे पर ये आज नया तीसरा ही शब्द सुनने को मिला, राभण। दरबारी मन ही मन प्रसन्न हुये कि मेमने की मां कब तक खैर मनाती, अब यह पकडा गया।

उधर सभा में हंसी होते देख घुग्घु समझ गया की उसने बंटाधार कर दिया है, अब जाकर उसे कालिदास की और ईशारा करनी की याद आयी। अब जब सब हंसते-हंसते लोट-पोट हो रहे थे तो वह कालिदास की और ईशारा कर रहा था। लेकिन अब ईशारा करने से क्या होता, सब जान चुके थे कि यह तो कोई महामूर्ख बैठा है। राजा भोज को भी कोध आ गया उन्हें लगा कि घुग्घु उनकी मजाक बना रहा है, अपने क्रोध को दबाकर वह कालिदास से बोले,

‘’ यह सब क्या है कालिदास, हम रावण और रावन की बात कर रहे हैं और गुरु घुग्घु राभण कहते हैं और तुम्हारी तरफ़ ईशारा कर रहे हैं। बात क्या है?’’ 

अब कालिदास फ़ंस गये कि गधे ने नया ही शब्द बता दिया, यदि बोलना ही था तो कम से कम  रावण या रावन में से ही एक बोल देता, अब राभण बोल के मेरी तरफ़ ईशारा कर रहा है। अपना तो मरेगा ही और मुझे भी मरवाएगा। कालिदास बात को संभालते हुए बोले,

          ‘’ महाराज, गुरु घुग्घु सही कह रहे हैं, सभी लोग रावण या रावन बोलते हैं पर           
वह राभण होता है।’’

पूरी सभा में शांति छा गयी, लोगों को लगा कि अब कालिदास की बुद्धी भी भ्रष्ट हो गयी है।

‘’ गुरु जी का कहना सत्य है, और इन्होने मेरी और ईशारा इस बात के लिये किया कि इस बात को मेरा शिष्य समझायेगा।‘’

अपनी बात को कालिदास ने संस्क्रत में उसी समय एक श्लोक रचकर बताया,

‘’भकारं कुम्भकर्णस्य, भकारं च विभीषण,
कुल: श्रेष्ठ्म, कुल ज्येष्ठम, भकारं किम ना विद्यते।

अर्थात कुम्भकर्ण के नाम के मध्य में भी ‘भ' है और विभीषण के नाम के भी, तब कुल के श्रेष्ठ और ज्येठ रावण के नाम में क्यों ‘भ' नहीं होगा अर्थात होगा, इसीलिये ‘राभण’ ही सत्य है। ‘’

पूरी सभा कालिदास और उनकी गुरु की जयकार से गूंज उठी, ऐसी विद्वता थी कालिदास की। उसके बाद फ़िर कभी कालिदास के गुरु से किसी की मुलाकात नहीं हुई।