Sunday 23 January 2011

स्वतन्त्रता और आजादी



तब मैं मिशन स्कूल में शायद कक्षा एक में पढता था। यह छोटा सा  स्कूल छोटे से शहरहल्द्वानीके बीचों बीच में था तो बडा सा मैदान तो कैसे संभव हो  सकता था, बस एक छोटा सा ईटों का बना प्रांगण था जिसमें ही प्रतिदिन प्रात: प्रार्थना होती थी। प्रार्थना तो याद नहीं, याद भी कैसे रहेगी छोटी कक्षा के बच्चों को तो केवल  हाथ बांधने और आंखे बंध करनी होती है।  हां,  पर इतना याद है कि अक्सर ही ईषा मसीह की जन्म की और अन्य  कथायें  सुनायी  जाती थी। इस स्कूल में एक बात तो सबसे अच्छी थी कि जिस दिन परीक्षा परिणाम बताया जाता,  और स्कूल अवकाश के लिये बंद होता था उस दिन सारे बच्चों को मोमफ़ली, रेवडी और गुब्बारे दिये जाते थे।  बाद में कई स्कूल बदले पर ऐसा स्कूल कोई नहीं मिला जहां  ये सब दिया जाता हो।

क्योकिं स्कूल छोटा था इसीलिये परीक्षा के दौरान भी बच्चों को आस पास ही बिठाया जाता था परन्तु एक बेंच मे अलग अलग कक्षाओं के बच्चों को बैठाया जाता था जिससे कि बच्चे एक दुसरे से  नकल ना कर सकें। मैं कक्षा एक की परीक्षा दे रहा था।  मेरी बेंच में मेरे एक तरफ़ कक्षा दो की लडकी को बैठाया गया और दुसरी तरफ़ कक्षा तीन की लडकी को और मुझे उनके बीच में बैठाया गया  जिससे कि यदि कक्षा तीन वाली लडकी अपनी वरिष्ठता दर्शाते हुए कक्षा दो की लडकी की सहायता भी करना चाहे तो नहीं कर पाये। मैं बचपन में बहुत शर्मिला था तो कुछ सवाल का उत्तर पूछ्ना तो दूर की बात मैंने उनके लडकियों के चेहरे की और भी नहीं देखा। तो ये बात थी हिन्दी की परीक्षा की, छोटी कक्षा के बच्चों के परीक्षा पत्र और उत्तर पुस्तिका एक ही होती है, ये एक तरीके का खाली स्थान भरो जैसा होता था। प्रश्न के नीचे ही पेन्सिल से उत्तर लिखा जाता था और परीक्षा समाप्त होने पर एक वैसा ही पेपर घर के लिये दे दिया जाता था। जिससे  की घर जाने पर माता पिता  पता लगा सकें की हमारे सपूत ने क्या सही लिखा और क्या गलत लिखा और फ़िर डांठ पडे।

इसीलिये छोटी कक्षा में परीक्षा के  दो-दो डर हुआ करते हैं, पहला की ना जाने  परीक्षा में क्या पूछा जायेगा और दुसरा ज्यादा बडा डर होता था परीक्षा के बाद घर जा कर  अम्मा जी या पिता जी के सामने फ़िर से पेशी होती थी और फ़िर परीक्षा की सम्पूर्ण मौखिक प्रश्नोंत्तरी एक बार फ़िर से और तो और परिणाम भी  उसी समय मिल जाता था। और ऐसा तो शायद ही हुआ हो की परीक्षा में सारे सवाल सटीक कियें हों।

यह तो कुछ भी नहीं, ज्यादा डर तो उन बच्चों को लगा रहता था जिनके माता-पिता में से कोई एक अध्यापक या अध्यापिका हो। ऐसी स्थिति में, गलत उत्तर लिखने पर घर में डांठ के अतिरिक्त पिटने का प्रतिशत भी बड जाता है  क्योंकि पहली बात तो यह असहनीय है कि एक शिक्षक का बच्चा गलती करे, वह भी एक ही बात को दो-दो बार पढाने के बाद भी, एक बार स्कूल में और एक बार घर में। दुसरी बात यह की ज्यादातर  अध्यापक बच्चे धुनने  में प्राय: कुशल ही होते हैं, विशेषकर गणित और विज्ञान के अध्यापकों के बारे में तो प्रतीत होता  है कि इनको खास तौर पर ऐसी स्थिति के लिये  प्रशिक्षित किया जाता है।  हांलाकि, यह भी अपने बचपन का देखा समझा अनुभव था कि कक्षा में सर्वाधिक अंक भी शिक्षकों की संतानें ही पाती थी। और इस बात का अनुमान आप स्वयं ही लगा सकते हैं कि यदि माता-पिता दोनो ही शिक्षक हों तो बेचारे बच्चे पर क्या गुजरती होगी। 
     
कभी कभी क्या होता था कि यदि  प्रश्न पत्र कम पड  गये तो घर के लिये नहीं दिया जाता था, बस उस दिन तो मजे जाते थे, घर पहुंचते ही सीधा सा उत्तर की आज पेपर घर  के लिये दिया ही नहीं,
छुट्टी !!    

और फ़िर जैसे जैसे कक्षा बडती गयी, दुसरा डर कम होता गया क्योकि जैसे जैसे कक्षा बडी, वैसे वैसे धीरे धीरे माता जी ने प्रश्न पत्र मिलाना कम कर दिया, क्योकिं विषय कठिन होने लगे और यह कहें कि बच्चा मां से ज्यादा ज्ञान वाला  होने लगा। परंतु पिता जी अभी भी गलती पकड ही लेते थे फ़िर भी हाई स्कूल आते आते पिता जी की रुचि  भी केवल हिन्दी, संस्क्रत और समाज शास्त्र की परिक्षाओं तक ही सीमित हो गयी आगे जा कर स्नातक में जब भौतिकी, गणित और रसायन शास्त्र  ही तीन विषय रह गये तो पिता जी ने भी परीक्षा पत्र मिलाना छोड दिया  कि अब बेटा  बडा हो गया है और बी एस सी कर रहा है। वर्तमान स्थिति यह है कि चाहे कोई भी परीक्षा क्यों ना हो, अब कोई परीक्षा पत्र नहीं मिलाता है केवल इतना ही पूछ लेते हैं कि पेपर कैसा हुआ ?
और वही तटस्थ और सर्वमान्य उत्तर,
ठीक हुआ।
        
वैसे प्रश्न पत्र का पोस्ट मार्टम करने का सुअवसर मुझे भी बहुत बार मिला है, बडा भाई होने के कई फ़ायदों में से ये एक है। जब कभी पिता जी घर में नहीं होते थे तो माता जी छोटे भाई से कहती कि पेपर दद्दा को  दिखा ले। बेचारे छोटे भाई की स्थिति को मैं अब समझ सकता हुं, पिता जी या माता जी जी डांटे तो ठीक है लेकिन कुछ गलत प्रश्नों के कारण अपने से केवल  दो वर्ष बडे भाई से डांठ खानी पडे। खासकर वही बडा भाई जो पिताजी के सामने उसके प्रश्न पत्र में की गलतियों के कारण हाजिरी लगाता दिखाई दे। दुसरों की गलतियां निकालने में आनन्द लेना तो प्रक्रति प्रदत्त मानवीय गुण है। तो मैं कौन सा  महात्मा था, पूरी जिम्मेदारी और निर्भीकता से अपना कार्य करता और दूध का दूध और पानी  का पानी कर देता कि छोटे भाई ने परीक्षा में कौन कौन से प्रश्न गलत किये हैं। हां ये बात अलग थी कि कभी खेलने जाने में देर ना हो जाय इसीलिये हम दोनो भाई कभी कभी आपसी सहमति से, प्रश्न पत्र को आधा अधूरा ही देख कर माता जी को रिपोर्ट दे देते की पेपर ठीक हुआ है।
        

बात चल रही थी मेरी कक्षा एक में हिन्दी की परीक्षा की, कक्षा एक के बच्चे छोटे ही होते हैं तो उनसे वही प्रश्न पूछे जाते हैं जिनका अभ्यास कभी कक्षा में कराया गया होता है, मेरा मतलब ‘’आऊट आफ़ सैलेबस’’ कुछ नहीं आता था, क्योंकि एक छोटे बच्चे से आप इससे अधिक की अपेक्षा नहीं कर सकते हैं। लेकिन मेरे प्रश्नपत्र में इस बार कुछ नया आ गया था, और यह कुछ ऐसा था।    

प्रश्न: निम्न शब्दों के विलोम शब्द लिखिये।
मोटा :
दिन :
सफ़ेद :
स्वतन्त्रता :

इन चार शब्दों में से शुरु के तीन शब्दों के तो विलोम शब्द हमें कक्षा में लिखाये गये थे, जो मैने याद कर रखे थे, लेकिन स्वतन्त्रता का विलोम मुझे पता नहीं था, क्योंकि ये तो हमें कक्षा में लिखाया ही नहीं गया था, और यह शब्द भी थोडा कठिन था। लेकिन वह तो मैं पढने में अच्छा था, इसीलिये मैने दिमाग पर थोडा जोर दिया और मुझे इसका विलोम शब्द आ गया वरना किसी ऐसे वैसे बच्चे से तो होने से रहा यह सवाल, तो फ़िर मैने उत्तर कुछ ऐसे लिखा।

उत्तर :    मोटा : पतला
          दिन : रात
          सफ़ेद : काला
          स्वतन्त्रता : आजादी

यह सवाल करने के बाद मेरा आत्मविश्वास भी थोडा बड गया था कि देखो वह सवाल भी हल कर दिया जो कभी पढा ही नहीं था, लडका तो होनहार हुं। फ़िर मैं अगले सवाल करने लगा। लडकियों की तो आदत होती ही है तांक-झांक करने की, सो मेरे बगल में बैठी कक्षा दो वाली लडकी मेरी कापी में पता नहीं क्या देख रही थी, वो मुझसे बोली ये ‘आजादी’ गलत लिखा है, स्वतन्त्रता का विलोम होता है ‘परतन्त्रता’। इसको मिटा के परतन्त्रता लिख। मुझे तो मन ही मन बहुत गुस्सा आया की देखो अपना तो कुछ जानती है नहीं, पता नहीं क्या शब्द बता रही है, ऐसा कोई शब्द भी होता है। गधी कहीं की, 

लेकिन वो लडकी तो जैसे मेरी बु्द्धिमतता से जल रही थी, बोली मिटा इसे, सही कर। अब मैने कहा कि चलो इतना जिद कर रही है तो लिख दो और क्या। मेरा मन तो गवाही नहीं दे रहा था कि ये जो बता रही है वह सही है, लेकिन उसके बार-बार कहने के कारण मैने ‘आजादी’ शब्द मिटा कर ‘परतन्त्रता’ लिख ही दिया, और आगे के सवाल हल करने लगा। प्रश्नपत्र बस एक पन्ने का होता था जिसके दोनो तरफ़ प्रश्नों के नीचे दिये गये खाली स्थान में ही उत्तर लिख के वापस कर देते हैं। अब मैं मौके की तलाश में था, जैसे ही मैने देखा कि वह लडकी अपने उत्तर लिखने में व्यस्त हो गयी है। झट से मैने पन्ना पलटा और ‘परतन्त्रता’ को मिटा के  फ़िर से ‘आजादी’ लिख दिया, क्योंकि मुझे अपने उत्तर पर विश्वास था। और पन्ना पलट के दूसरी तरफ़ के सवाल करने लगा। मन को बडी शांति सी मिली कि चलो सवाल सही कर ही दिया, वरना इस पागल लडकी ने तो इतना कठिन प्रश्न गलत करा दिया था।        

इस बीच मुझे ध्यान नहीं रहा और जैसे ही मैने प्रश्न पूरे किये तो मैं फ़िर पन्ने की वही वाली तरफ़ ऊपर की ओर कर के बैठ गया। इस बार दांयी तरफ़ वैठी कक्षा तीन की लडकी ने देख लिया, अब वह मुझ पर टूट पडी। यह तूने गलत लिखा है, इस ‘आजादी’ को मिटा कर ‘परतन्त्रता’ लिख। मैने मन ही मन कहा हे भगवान, अब ये शुरु हो गयी। उसकी बात सुनकर मेरे बांयी ओर बैठी लडकी के कान फ़िर से खडे हो गये। वह बोली मैने इससे पहले ही कह दिया था कि सही कर ये तूने गलत लिखा है। अब वो दोनो एक साथ मिलकर मेरा उत्तर गलत करवाने लग गयी। फ़िर मरता क्या ना करता आजादी को मिटाकर परतन्त्रता को गले लगाना पडा। जब मैने स्वतन्त्रता का विलोम परतन्त्रता लिखा तब जाकर उन दोनो लडकियों ने मेरा पीछा छोडा। अब परीक्षा समाप्त हो ही गयी थी, और अध्यापिकायें सभी बच्चों की प्रश्न और उत्तर पुस्तिका एकत्र करने लगीं थी। मैं हार कहां मानने वाला था, जैसे ही दोनो लडकियां अपना-अपना लिखने का सामान एकत्र करने में व्यस्त हुई, मैने झट से फ़िर एक बार रबर से 'परतन्त्रता’ को मिटाकर ‘आजादी’ लिख दिया और पन्ने को दूसरी तरफ़ से पलटकर रख दिया, कि लो अब मिटवा लो, और अगले कुछ मिनटों में मेरी उत्तर पुस्तिका जमा हो गयी और मैने चैन की सांस ली कि चलो सही उत्तर  ही लिखा, वरना इन कन्याओं ने तो मेरा उत्तर गलत करवाने में कोई कसर नहीं छोडी थी।

फ़िर उसी प्रश्नपत्र की एक प्रतिलिप घर के लिये दी गयी। आज तो मैं आत्मविश्वास से लबालब था कि घर जाकर शाबासी मिलेगी कि तूने इतने कठिन शब्द का उत्तर दे कैसे दिया। मैं घर पहुंचा, घर में मामा आये हुए थे। माता जी ने उन्हे बताया कि आज इसकी हिन्दी की परीक्षा थी। मामा जी बोले, ला बेटा, प्रश्नपत्र दिखा जरा देखें क्या-क्या सही किया है। मैने सोचा कि देखो आज तो मामा के सामने भी इज्जत बन जायेगी कि कक्षा एक में पढने वाले बच्चे ने इतने कठिन शब्द का उत्तर दे दिया।

लेकिन हुआ ठीक विपरीत, जैसे ही मैने स्वतन्त्रता का विलोम आजादी बताया तो मामा और माता जी दोनो के चेहरे में वो खुशी नहीं आयी, जिसकी में अपेक्षा कर रहा था। इसका मतलब आजादी सही उत्तर नहीं था। मामा बोला की बेटा स्वतन्त्रता का विलोम होता है, परतन्त्रता। तब मुझे समझ में आया कि वो दोनो लडकियां सही थी, लेकिन आज भी जब उस बात को सोचता हुं तो मुझे कोई पश्चाताप नहीं होता है क्योंकि मैने वह लिखा जो मुझे आता था। उस उम्र में मैने दो ही शब्द सुने थे आजादी और स्वतन्त्रता, और परतन्त्रता का मुझे ज्ञान ही नहीं था। अत: मुझे लगा की हो ना हो आजादी और स्वतन्त्रता एक दूसरे के विलोम हैं।

जीवन में ऐसी गलतियां बहुत कम होती हैं जिन्हें मौका मिले तो भी आप सुधारना नहीं चाहते हैं, यह भी एक वही गलती थी जिसे यदि आज भी मौका मिले तो उसे आजादी ही लिखना चाहुंगा।