Saturday 19 February 2011

ढाका भाग ५: साईकिल, अमरुजाला और शिवजी



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कैंपा कोला की बोतल खत्म करने के बाद, ढाका ने खाली बोतल मुझे थमाते हुए दुकानदार को दे आने को कहा। दुकानदार को बोतल देने से पहले मैने एक बार बोतल को इस आशा से फ़िर अपने मुंह पर उडेला कि क्या पता कुछ बची हुयी हो। बोतल को थोडी देर तक अपने मुंह के ऊपर उलटा कर हिलाने के बाद  बची-खुची दो बूंदें मेरे मुंह में आ गिरी। इन अंतिम दों बूंदों का स्वाद तो मुझे कुछ ज्यादा ही अच्छा लगा था, हां वह बात दूसरी थी कि यह भी डर लग रहा था कि कहीं डकार यदि मुंह से आ गयी तो दांत ना कमजोर हो जायें। मैने ढाका से कहा कि यदि अगली बार पीये तो मुझे भी बुलाना यार।     

अंतत:, कैम्पा-कोला पान के बाद हम लोग वापस उद्दा की दुकान पर लौटे और ढाका की साईकिल लेकर हम वापस घर की ओर जाने लगे थे। तब ढाका ने साईकिल में कैंची चला के दिखायी और तब मुझे समझ में आया कि वो किस कैंची की बात कर रहा था।



जैसा कि दिखाये गये चित्र में देख सकते हैं कि पुरुषों की साईकिल में बैठने वाली गद्दी और साईकिल के हैंडल के बीच एक डंडा लगा होता है। इस डंडे के कारण, यदि आपके पांव छोटे हैं या फ़िर साईकिल बहुत उंची (तीस-बत्तीस इंच वाली) है तो आप उसे नहीं चला सकते हैं। और ढीठ या जिद्दी होने के कारण, यदि आपने फ़िर भी बिना गद्दी पर बैठे खडे ही साईकिल चलाने की कोशिश करी तो फ़िर भगवान ही आपका मालिक हो सकता है।  मेरे साथ भी कई बार ऐसा हुआ था कि किसी उंची जगह का सहारा लेकर साईकिल पर चढ तो गया, और साईकिल चलने भी लगी, पर उतरते समय पांव जमीन तक नहीं पहुंच पाते थे। अंतत: या तो जमीन पर गिरना ही पडता था या फ़िर जबरदस्ती पांव जमीन पर पहुंचाने के प्रयास के कारण साईकिल ऐसी रपटती थी और साईकिल के इस डंडे सेऐसी जगह चोट लगती थी कि किसी को बता भी नहीं सकते।  
      
संभवत:, इसी समस्या से निजात पाने के लिये ही किसी छोटे बच्चे ने साईकिल में कैंची चलाने का अविष्कार किया होगा। साईकिल में कैंची चलाना इतना सरल नहीं होता है जितना सुनने में लग रहा है। कैंची चलाने के लिये साईकिल के उपर चढने के बजाय, साईकिल के एक तरफ़ खडे होकर एक पांव को साइकिल के त्रिभुज (ट्राएंगल) के अंदर से होकर दुसरी तरफ़ के पैडिल पर रखा जाता है, बांया (लेफ़्ट) हाथ साइकिल के हैंडल पर और दांये (राईट) हाथ से साईकिल के उस डंडे को पकडा जाता है को साईकिल की गद्दी को साईकिल के हैंडल से जोडता है। कैंची चलाना वास्तव में साधारण तरीके से साईकिल चलाने से कठिन होता है क्योंकि इसमें चलाने वाले का शरीर साईकिल के एक तरफ़ लटका रहता है। जो कि किसी भी वाहन को चलाने की आदर्श स्थिति नहीं है। लेकिन बच्चों को कैंची चलाना ज्यादा सुविधा जनक लगता है क्योंकि इसमें एक तो गिरने का डर कम रहता है और सीखते समय साईकिल पकडने के लिये किसी व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता नहीं रहती है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि चाहे साईकिल कितनी बडी क्यों ना हो या फ़िर आपकी लंबाई कितनी भी कम क्यों ना हो, आप कोई भी साईकिल चला सकते हैं। एक तरह से कैंची चलाने की विधि साईकिल और चालक के बीच की सारी सीमाएं तोड देती है।

मेरी बात आप को आज की परिस्थिति में संदर्भहीन (इर-रेलिवेन्ट) लग सकती है क्योंकि आजकल तो हर उम्र के बच्चे के लिये उसके उंचाई के अनुसार साईकिल बाजार में मिलती है। लेकिन ध्यान रहे मैं उन दिनों की बात कर रहा हुं, जब साईकिल भी हर किसी के पास नहीं होती थी। जब कोई व्यक्ति नयी ‘’एटलस’’  साईकिल खरीदता था, तो पडोसियों में सुगबुगाहट होनी प्रारंभ हो जाती थी कि देखो खूब पैसा है, नयी साईकिल खरीद ली है। दो-तीन दिन तक तो पडोसी ही सीधे मुंह बात नहीं करते थे। थोडा विस्तार करुं तो, यदि उन दिनों साइकिल चलाना जीवन का एक यथार्थ  था तो ‘हमारा बजाज' स्कूटर जीवन का एक सपना होता था, और जिसके पास ‘मारुति ८००’’ हो वह तो कोई राजा ही होता था।

खैर, मुझे तो कैंची चलानी आती नहीं थी, और ना ही टैंटु को आती थी। तो ढाका बोला कि चलो तुम दोनो बैठो और मैं चलाउंगा। हम तीनो मिल कर भी उस साईकिल से छोटे थे फ़िर भी बचपन का उत्साह था। मुझे आगे डन्डे पर बैठाया गया, और ढाका साईकिल कैंची से चलाने को तैयार था। योजना के अनुसार जैसे ही साईकिल गति पकडे, टैंटु को कुछ दूर दौडकर पीछे से साईकिल के कैरियर में उछल कर बैठ जाना था। आप उस द्रश्य की कल्पना कीजिये कि एक भीड-भाड वाली सडक में दो बच्चे एक बडी साइकिल के उपर बैठे हुए हों, और तीसरा बच्चा साईकिल के बीच में घुसकर (कैंची से) साइकिल चला रहा है। यह बस ढाका ही कर सकता था, क्योंकि उसने बचपन में मछली का दूध जो पिया था (अधिक जानने के लिये पढें, ढाका भाग ) । यह कितना असुरक्षित हो सकता था, आज यह सोच कर भी डर लगता है। लेकिन बचपन की खासियत ही तो यह है कि बच्चे बिना परिणाम सोचे ही किसी भी कार्य को करने लगते हैं। गीता में भी भगवान क्रष्ण ने यहीं कहा है कि ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते, मां फ़लेषु कदाचन:’, अर्थात कर्म करो लेकिन बिना फ़ल कि चिन्ता किये। वही ढाका और हम सबने बचपन में किया था। लेकिन ढाका तो आज तक भी यही करता था, उसने कभी भी परिणाम की चिन्ता ही नहीं की, बस करता ही गया जो मन में आया।        

योजना अनुसार, ढाका ने मुझे साइकिल में आगे डन्डे पर बैठाकर खुद कैंची चलाते हुये साईकिल को गति देना आरंभ किया, टैंटु साइकिल के पीछे दौड रहा था। सायंकाल का समय था तो चौराहे पर अच्छी-खासी भीड भी हो चुकी थी। क्योंकि कैंची चलाते हुये ढाका का सारा भार साइकिल के बांयी ओर (लेफ़्ट साईड) अत: संतुलन के लिये ढाका ने साईकिल को थोडी सा दायीं ओर (राईट साईड) को झुका रखा थी। मैं साईकिल के डन्डे पर बैठा था अत: मुझे थोडा सा डरावना लग रहा था क्योंकि मेरा शरीर दायीं ओर को जा रहा था, तो मैं बांयी तरफ़ को झुकने की कोशिश कर रहा था। हांलाकि साइकिल बहुत तीव्र गति (स्पीड) से नहीं चल रही थी। आगे मैं क्या देखता हुं, कि सडक पर चलती हुई चार नव युवतियों का एक दल लगभग पूरी सडक पर ही कब्जा कर के चल रहा था, अत: ढाका ने साईकिल की घन्टी बजायी, लेकिन युवतियां रास्ता देती सा मालूम नहीं हो रही थी। लगातार घन्टी बजाने के बाद वह कन्याएं, थोडा सा सडक से किनारे हुई। उन चार लडकियों में से एक लडकी जो बहुत मोटी थी, वो ही सडक की तरफ़ चल रही थी। मैने ढाका से कहा कि साईकिल रोक ले, कहीं गिर जायेंगे। लेकिन ढाका के आत्मविश्वास दिखया कि ‘सैकिल निकल जैगी’, और उतनी जगह साईकिल निकालने के लिये पर्याप्त भी थी। ढाका ने साईकिल की गति थोडा और कम की और बडी सावधानी से उन लडकियों को ओवर-टेक करने ही जा रहा था कि अचानक पीछे से एक धक्का सा लगा और साईकिल का संतुलन थोडा सा बिगडा, और वही हुआ जिस बात का डर था। साईकिल का अगला पहिया सीधे उस मोटी लडकी के पीछ्वाडे से जा टकराया, और धडाम।  

यह भूचाल पीछे से अचानक टैंटु के उछल कर साईकिल पर बैठने से आया था। हुआ यह कि जैसे ही ढाका ने लडकियों से आगे निकलने के लिये साईकिल की गति कुछ कम की तो टैंटु को लगा कि यह उसके बैठने के लिये किया गया था, और वह उछल कर पूरे वेग से साइकिल पर कूद पडा। ढाका इस स्थिति के लिये तैयार नहीं था, अत: इस झटके से साईकिल का हैंडल थोडा सा मुडा और साईकिल सीधे उस मोटी लडकी से जा भिडी। क्योंकि एक तो वह लडकी खाते-पीते घर की थी और उपर से साईकिल की गति भी बहुत कम थी, तो उस लडकी तो हल्का सा धक्का सा अनुभव हुआ। उसे लगा उसे किसी लडके ने छेडा है, यह सोचकर वह गुस्से से तमतमाया हुआ चेहरा बनाकर पीछे मुडी। लेकिन साईकिल का अगला पहिया टकराने का परिणाम यह हुआ कि साईकिल का संतुलन बिगडा और हम चार, मैं, ढाका, टैंटु और साईकिल, सडक में चारों खाने चित। जैसे उस विशालकाय लडकी ने पीछे मुड के ऐसा हाहाकारी द्रश्य देखा तो उसका सारा गुस्सा हंसी में बदल गया। उसके साथ अब उसकी अन्य सहेलियां भी खिलखिला के हंसने लगी थी। सहेलियां ही क्यों चौराहे पर खडे सारे लोग आनंद ले रहे थे।  तत्पश्चात वह कन्या प्रमुदित मन से अठखेलियां करती हुई अपनी सहेलियों के साथ चलती बनी। अठखेलियां करे भी क्यों नहीं, आज उस लडकी के एक ठुमके पर तीन-तीन जवान जो चित हो चुके थे, ऐसा मुझे लग रहा था। तभी ढाका ने हमें कहा,

यहां पर रोना-धोना नहीं होना चाहिये हैगा, सीधे खडे हो, कपडे झाडो और मर्द की तरह चलो, वरना डान की बेज्जती हो जायेगी हैगी।

मुझे तो रोना आ ही रहा था, क्योंकि मेरी दाहिनी कोहनी बुरी तरह छिल गयी थी। टैंटू क्योंकि पिछवाडे के बल गिरा था, खून तो नहीं निकला पर उसके पिछवाडे में दर्द हो रहा था तो वह मर्द की तरह नहीं चल पा रहा था, उसके चेहरे की भाव-भंगिमा पूरी दहाड मार के रोने वाली थी, टेसू भी बह रहे थे, बस आवाज नहीं निकल रही थी, ढाका की डर के मारे। सबसे ज्यादा चोट ढाका को ही लगी थी, उसका घुटना छिल गया था, खून बह रहा था, और साईकिल के नीचे दब कर उसका पैर भी मुड गया था। लेकिन मुझे याद नहीं उसने एक उफ़ तक भी की हो, हां जब साईकिल गिरी थी और उसका पांव साईकिल के नीचे दब गया था, तब एक क्षण के लिये वह ‘आईले-आईलेकह कर चिल्लाया था। लेकिन जब वह जमीन से उठा उसके बाद तो उसके चेहरे पर शिकन तक भी नहीं आयी, बिलकुल मर्द को दर्द नहीं होता वाला ही द्रश्य था। ढाका के आदेशानुसार हम लोग ऐसा दिखाते हुए कि जैसे कुछ भी नहीं हुआ हो,  धीरे-धीरे लंगडाते हुये चौराहे से कुछ दूर निकल आये। थोडा आराम की सख्त आवश्यकता थी तो तीनों सडक के किनारे बनी एक पुलिया पर आकर बैठ गये। मेरी कुहनी से बहता खून तो सूख ही गया था, और टैंटू का दर्द भी अब ठीक हो गया था, परन्तु ढाका के छिले घुटने से अब भी खून बह रहा था। जब मैनें ढाका का ध्यान उस और दिलाया तो ढाका बोला,

ठुल्ला साब, इसका ईलाज तो अपुन के पास हैगा।

यह कहकर ढाका पुलिया के दूसरी तरफ़ की झाडियों के बीच घुस गया, और थोडी ही देर में कुछ पौंधे उखाड लाया।

ये हैगी दवाई ठुल्ले साब, इसको ‘भुवनिया’ कहते हैंगे, इसका रस किसी भी चोट में लगा दो, कैसी भी चोट हो दो दिन में ठीक हो जाती हैगी। 

मुझे तो ढाका की बातों में अविश्वास होना ही था, लेकिन देखते ही देखते ढाका ने एक बडे पत्थर पर रखकर उस घास को पीस कर लेप अपनी चोट में लगा दिया। उसने मुझसे भी अपनी कुहनी की चोट में घास का लेप लगा लेने को कहा, लेकिन मैने मना कर दिया, क्योंकि मुझे सिखाया गया था कि चोट को पहले ‘डिटाल’ से धोओ और फ़िर उस पर ‘बोरोलीन' लगाओ। मुझको विश्वास दिलाने के लिये ढाका ने हरी घास का लेप लगाने के बाद मुझे दौड कर भी दिखाया कि, ये देख यह कितनी शीघ्र असर करती है। लेकिन मैने भी अपने आप को थोडा सा अलग दिखाने के लिये कहा कि मैं तो डीटाल ही लगता हुं। ढाका बोला,

         बेटे! ये डिटाल-हिटाल कुछ काम का नहीं होता हैगा, जे ही असली दवाईयां होती हैंगी, इन्हीं से तो जे डिटाल-हिटाल बनते हैंगें। मैं तो जे कहता हुंगा, कि जे घास भी ना हो तो थोडी सी  सूखी मिट्टी ही लगा लेते हैंगे, और कैसी भी चोट हो सही हो जाती हैगी। बेटे! जे धरती हमारी मां हैंगी, ये हमारे लिये खाना भी देती हैंगी और दवाईयां भी देती हैंगी।  


(उस समय ढाका की बातें मुझे बेवकूफ़ी से ज्यादा कुछ भी नहीं लग रही थी, लेकिन आज जब सोचता हुं तो लगत है कि ढाका कितना सही था। यह धरती माता हमें क्या कुछ नहीं देती है। जंगल में रहने वाले आदिवासियों की देखभाल कौन करता है, उन जंगली जानवरों का ईलाज कौन करता है जो अपना दर्द भी बोल कर नहीं बता सकते हैं। उस दिन तो मैने भुवनिया घास चोट पर नहीं लगायी, पर उसके बाद कई मौके आये जब मैने डिटाल को छोडकर हमेशा भुवनिया घास को पीस कर लगाया होगा, और आश्चर्यजनक रूप से सदैव मेरी चोट सही हो गयी।)


          सैकिल से तो चोट लगती रहती हैगी। बेटे एक बात याद रखियो, जब तक सैकिल से गिर कर चोट नहीं लगती हैगी, तब तक सैकिल चलानी नहीं आती हैगी। और दूसरी बात और याद रखियो, कि दुनिया में सबसे कठिन काम सैकिल चलाना सीखना होता हैगा। जो किन्ने सैकिल चलानी सीख ली, वो सब कुछ चलाना सीख सकता हैगा।

चलो अब घर को चलें अब अंधेरा होने को है, मैने कहा।

चलते तो हैंगे, पर आज तो बेटा मरवा दिया हैगा टैंटू ने। ये जानता नहीं हैगा इसने आज किसे टक्कर मरवायी हैगी।

ओये धाके, मैने तिसी लकडी को तक्कर नहीं मरवायी, थाले, खुद तो थाईकिल तलानी आती नहीं हैगी।

बेटे, जिस लडकी पर तूने आज सैकिल चढवायी हैगी, जानता हैगा किसकी लडकी हैगी वो?

तौन है वो?

बेटे! वो अमरुजाला की लडकी हैगी।

ये अमरुजाला कौन है?

अबे तू, अमरुजाला नहीं जानता हैगा, जो सुबह-सुबह अखबार वाला बांटता हैगा, दैनिक जागरण और अमरुजाला।

अबे अमरुजाला नहीं, अमर उजाला। वो तो अखबार है, उसकी लडकी कैसे हो सकती है।

बेटे सही कहुं तो ये अमरुजाला की लडकी नहीं हैगी, बल्कि इसकी मां ‘अमरुजाला’ हैगी।   

मैने सोचा क्या पता ये अमर उजाला के मालिक की लडकी हो या फ़िर इसकी मां अमर उजाला में काम करती हो। लेकिन मैं गलत था, उसकी मां ही अमर उजाला थी।   

      इसकी मां का नाम अमरुजाला हैगा, क्योंकि उसका काम मोहल्ले की हर घर की खबर रखना होता हैगा, और यहां की खबर वहां पहुंचाना भी उसका काम हैगा, इसीलिये, उसे सब लोग अमरुजाला कहते हैंगे। वो इस इलाके में रहने वाले सारे लोगों को जानती हैगी, बेटा पोस्ट मैन को भी जब कोई घर का पता नहीं मिल पाता हैगा तो या तो वह अमरुजाला से पूछता हैगा या फ़िर वह उस चिठ्ठी अमरुजाला के घर दे आता हैगा और फ़िर अमरुजाला उस चिठ्ठी को सही जगह पहुंचाती हैगी। इसलिये बेटे अमरुजाला से कोई पंगा नहीं लेता हैगा, और आज तुम लोगों ने उसकी बेटी को टक्कर मारी हैगी, ध्यान रखना शिकायत करने वो कभी भी तुम्हारे घर पहुंच सकती हैगी।


यह सुनकर तो मुझे भी डर लगने लगा था कि कहीं वह अमर उजाला (मेरा मतलब अमरूजाला) मेरे घर पहुंच गयी और यह बता दिया कि मैं चौराहे पर घूम रहा था और फ़िर उस साईकिल में मैं भी सवार था जिसने अमरुजाला पुत्री को टक्कर मारी थी तो मेरा काम हो गया। मैं मन ही मन भगवान को याद करने लगा कि अमरुजाला को मेरा घर ना पता हो।

अब अंधेरा होने लगा था तो हम उस पुलिया से उठ कर घर की ओर चलने लगे। क्योंकि थोडी देर पहले ही हम साईकिल से गिरे थे, अत: फ़िर से साईकिल पर चढने का मतलब ही नहीं था, इसीलिये हम पैदल-पैदल ही चल दिये। पानी की टंकी पार करते ही बरगद के पेड के नीचे एक शिव-मंदिर पडता है। वहां से घंटियों की आवाजें आ रही थी, इसका मतलब था कि वहां सायं-कालीन आरती हो रही थी। तो हम बिना मंदिर गये घर कैसे जा सकते थे, वहां फ़्री का प्रसाद को मिलता था। हम तीनों मंदिर की ओर मुड गये। लेकिन मंदिर की सीढियों में पहुंचते ही ढाका ने हम दोनों से अंदर जाने को कह दिया। जब मैने उससे उसके मंदिर के अंदर नहीं चलने का कारण पूछा तो ढाका दीवार फ़िल्म के अमिताभ बच्चन की तरह ऐंठ गया कि, मैनें आज तक इनसे (शिवजी से) कभी कुछ नहीं मांगा, मैं अंदर नहीं आउंगा। अंतत: टैंटु और मैने ही मंदिर के अंदर जाकर प्रसाद पाया। फ़िर हम तीनों प्रसाद खाते-खाते घर की ओर चलने लगे तो ढाका बोला,

बेटे मुझे तो हंसी आती हैगी, इस मंदिर के पुजारी और भगवान के इन भक्तों पर। कितने मूर्ख हैंगे ये सब लोग, यहां पत्थर में भगवान को ढूंढते हैंगे।

मुझे आश्चर्य हुआ कि इस ढाका में अचानक कोई दार्शनिक कहां से घुस गया। ये कैसी बाते कर रहा है, मैने कहा,

क्यों बे, भगवान की मूर्त्ति में ही तो भगवान रहते हैं, और वो उस मूर्ति के अंदर से हमें देखते रहते हैं, साले तुझे भी।

हा हा, बेटे देखते तो तब हैंगे, जब मूर्ति अंदर होंगे तब ना।

अबे तुत्ते तू तैसी बात करता है, साले पाप चलेगा तुझ पर, अब टैंटू ने भी मेरी बात का समर्थन किया।    

चूंकि ढाका, भगवान के अस्तित्व पर उंगली उठा रहा था तो वाद-विवाद में गर्माहट तो आनी ही थी, और बच्चों वाली गालियां (कुत्ते, कमीने और साले) भी शुरु हो गयी थी।

बेटे अभी तुम दोनो बच्चे हैंगे, तुम दोनो को कुछ पता नहीं हैगा, मैं तुम दोनो को असली बात आज बताता हुंगा, यह बात बडे-बडे लोगों को भी नहीं पता हैगी।

यह सुनकर हम दोनो के कान खडे हो गये कि पता नहीं किस नये चक्कर के बारे में बता रहा है या फ़िर ऐसी ना जाने क्या बात बता रहा है, जो हम दोनो को नहीं पता है, आखिर है तो वह हम दोनो का गुरु है। ढाका बोला,

असली शंकर जी तो अब भारत में रहते ही नहीं हैंगे, बेटे आज से सालों पहले ही वह यहां से जा चुके हैंगे, और वो भी अपनी मर्जी से नहीं। बेटे ये तो बस मूर्तिया हैंगी, इस बात को बहुत कम लोग जानते हैंगे।

अबे पादल हो गया है त्या?

टैंटू और मैने ढाका की बात से अविश्वास जताया, कि ऐसा तो हो ही नहीं सकता है।

यदि असली शिवजी यहीं हैंगे तो उन्हे आज तक किसी ने देखा क्यों नहीं हैगा, बोलो देखा हैगा किसी ने शिवजी को?

यह बात तो सही थी कि आजतक शिवजी को किसी ने नहीं देखा है। पिछले साल मैने शिवरात्री का व्रत किया था क्योंकि मां ने कहा था कि जो बच्चा सच्चे मन से शिवरात्री का व्रत करता है वो अपनी कक्षा में फ़र्स्ट आता है। मैने उस बार सच्चे मन से व्रत किया था लेकिन मैं हमेशा कि तरह सैकण्ड ही आया। यदि शिवजी सच में होते तो मैं फ़र्स्ट पास नहीं होता क्या? मुझे ढाका के बातों में कुछ-कुछ विश्वास होने लगा था। तभी ढाका आगे बोला,

बेटे, शिवजी को तो मुसलमानों ने मक्का में एक शिवलिंग में कैद कर रक्खा हैगा। शिवजी कई सालों से मक्का में ही बंद हैंगे। यदि कोई भी हिन्दु उस शिवलिंग में यदि पानी की एक धार डाल देगा तो शिवजी उसी समय आजाद हो जायेंगे, और उसी दिन इस दुनिया के सारे मुसलमान मर जायेंगे। लेकिन शर्त ये हैगी कि पानी चढाने वाले आदमी ने कभी गाय का मांस नहीं खाया होना चाहिये।

तो कोई वहां जा कर शिवजी को आजाद क्यों नहीं करा देता? नाम बदल के जाओ, और कह दो कि मैं भी मुसलमान हुं और वहां जा कर पानी चढा दो।

बेटे, इतना सरल होता तो शिवजी कब के आजाद हो चुके होते। मक्का जाने वाले हर एक आदमी को उस शिवलिंग के पास जाने से पहले गाय का मांस खाना पडता हैगा। और एक बार गाय का मांस खा लिया हैगा। तो फ़िर कितना भी पानी चढा दो कुछ नहीं हैगा, और पानी चढाते हुए किसी मुसलमान ने देख लिया तो फ़िर जिन्दा बचना मुश्किल हैगा। बेटे सारे मुसलमान जानते हैंगे कि जिस दिन शिवजी आजाद हो गये तो उस दिन इस दुनिया के सारे मुसलमान मर जायेंगे, तो इसी लिये वहां कढा पहरा रखते हैंगे। इसीलिये तो बेटे सारे मुसलमान हर साल मक्का-मदीना जाते हैंगे।

यह सुनकर हमारे तो रौंगटे खडे हो गये कि ऐसा भी हो सकता है। मुझे अपनी शिव भक्त मां पर दया आ रही थी कि देखो वह कितनी भक्ति भाव से शिवजी की पूजा करती हैं, और शिवजी तो हैं ही  नहीं।  मन नहीं मान रहा था कि शिवजी को कैद किया जा सकता  है, लेकिन ढाका की आत्मविश्वास भरी कहानी हमें यह मानने को मजबूर कर रही थी। ट्रक वाले मुल्ला जी भी कुछ दिनों पहले पिता जी से कह रहे थे कि बस मरने से पहले एक बार मक्का-मदीना जाने की इच्छा है। अब सारी बात मेरे समझ मैं आयी, और यह भी समझ में आया कि जब भी किसी काम के लिये में शिवजी से प्रार्थना करता हुं तो वह कभी पूरी नहीं होती है। अब जब शिवजी ही वहां नहीं हैं तो प्रार्थना पूरी कैसे होगी। और जब भी हनुमान जी से कुछ कहता हुं तो वह पूरा हो जाता है।

तो फ़िर हनुमान जी वहां जाकर शिवजी को छुडा क्यों नहीं लाते हैं, मैंने पूछा?

एक बार हनुमान जी वहां गये हैंगे, लेकिन मुसलमानों ने उन्हें देख लिया हैगा और उनके ऊपर गाय का खून डालने की कोशिश की, वो तो हनुमान जी गायब हो गये हैंगे, वरना वो भी आज उनकी कैद में होते। इसलिये तब से हनुमान जी दुबारा नहीं गये। यह बात अमेरीका को भी पता हैगी कि शिवजी कैद में हैंगे। लेकिन बेटा कोई कुछ कर नहीं सकता हैगा।

तब तक मेरा और टैंटु का घर आ गया था, तो हम बुझे मन से अपने-अपने घर में घुस गये, और ढाका हमें टेंशन में छोड कर अपने घर की ओर निकल लिया। उस रात मैं मन ही मन शिवजी को आजाद कराने की तरकीबें ही सोचता रहा लेकिन कोई सही उपाय समझ में नहीं आया, हर बात आकर गौ मांस खाने पर अटक जाती। आगे की बात अगले भाग में।  


नोट: जैसा कि ब्लाग के आरंभ में यह कहा गया है कि इन बातों को सत्यता कि कसौटी पर बिना कसे ही पढें। मेरा सभी पाठकों से विनम्र निवेदन है कि ढाका की बात को गंभीरता से ना लें। कहते भी हैं ना कि, बच्चों और शराबियों की बातों का बुरा नहीं मानना चाहिये।         

Monday 7 February 2011

ढाका भाग ४: ढाका की साईकिल


यदि आपने ढाका के पुराने भाग नहीं पडे हैं, तो पिछले भाग में जाने के लिये यहां क्लिक करें। ढाका भाग ३  


मैं अपना होमवर्क पूरा कर रहा था कि तभी बाहर से आवाज सुनायी दी,

चूssडी ले लो, चूsssडी
चूssडी ले लो, चूsssडी

यह सुनते ही मैने झट से कापी-किताब बंद किये और खिडकी की ओर लपका। मैं समझ गया कि बाहर ढाका गया है, ये उसका मुझे और टैंटु को खेलने बुलाने का नया कोडवर्ड था। उन दिनो तो फ़ोन भी किसी-किसी के घर में होते थे। आज की तरह मोबाईल फ़ोन या फ़िर ईमेल की बात तो सोच से भी परे थी, लेकिन फ़िर भी बच्चे आपस में सम्पर्क में रहते थे। आजकल के बच्चों का, बचपन तो कम्प्युटर, इंटरनेट, मोबाईल फ़ोन, प्ले स्टेशन, एस.एम.एस. में, और जवानी एम.एम.एस. में बीत रही है।    

जब से ढाका ने अनिल कपूर की एक फ़िल्मचमेली की शादीमें देखा था कि कैसे नायक का मित्र चूडी वाले का भेष बनाकर नायिका को उसके पत्र दिया करता था तब से ढाका का संकेत भी यही हो गया। इससे पहले ढाका के आने का कोडवर्ड था,

ssईसक्रीम, आम वाली, मलाई वाली, डब्बे वाली, ssईसक्रीम.

लेकिन जैसे ही गर्मियों का मौसम समाप्त हुआ, हमें यह कोडवर्ड को भी बदलना पडा, क्योंकि जाडे के मौसम में आईसक्रीम बेचने में पकडे जाने का डर था। तो इसके बाद जल्दीबाजी में जो नया कोडवर्ड जो ढाका ने सुझाया वह था,

कूssडा कबाड रद्दी बेच डालो, लोssहा प्लासassटिक अखबार बेच डालो।      

वैसे तो ये कोडवर्ड पूरी तरह सुरक्षित था क्योंकि कबाडियों का कोई मौसम और समय नहीं होता था लेकिन इसमे समस्या यह हुई कि ढाका तो दिन में एक बार या कभी-कभी दो बार भी जाता लेकिन टैंटु और मैं दिन में दस बार यह आवाज सुनकर घर से बाहर निकलते रहते कि कहीं ढाका ना गया हो, क्योंकि कबाडी तो दिन भर आते जाते रहते थे। तब हमने ढाका से इस कोडवर्ड को भी बदलने को कहा था। तब जाकर ढाका ने इस चूडी वाले कोडवर्ड का आविष्कार किया। तभी फ़िर से आवाज सुनाई दी,
चूssडी ले लो, चूsssडी
चूssडी ले लो, चूsssडी
ढाका के पास घडी तो थी ही नहीं, तो हम समय का अंदाजा इस तरह से लगाते थे। पहली पुकार सुनते ही हम मन ही मन एक से सौ तक की गिनती गिनना शुरु कर देते थे, यदि ढाका की दूसरी पुकार हमारे पचास गिनने से पहले ही गयी तो, यह समझा जाये कि बाहर कुछ खतरा है, ऐसे में घर से निकलते समय अत्यधिक सावधानी की आवश्यकता होती थी। यदि ढाका की दूसरी पुकार सौ गिनने से पहले जाय तो इसका तात्पर्य होता था कि जल्दी घर से बाहर निकलो, ईमर्जैन्सी है। और यदि ढाका की पुकार सौ तक गिनने के बाद आये तो सब कुछ सामन्य है, परन्तु जैसे ही और जितनी शीघ्रता से मौका मिले, खेलने जाओ। सौ तक की गिनती में लगने वाले समय अंतराल के भीतर ये ढाका की दूसरी पुकार थी, इसका मतलब मामला कुछ संगीन (अति-आवश्यक) था।

मैने जल्दी से घर का मुआयना किया नजरें घर के अंदर दौडायी, मां रसोई में व्यस्त थी। समय से पहले खेलने जाने में सावधानी बरतना अति आवश्यक था, अन्यथा पकडे जाने पर, उस शाम जल्दी खेलने जाने के बजाय अतिरिक्त पढना पड सकता था और मां धमकी अलग देती कि, आने दे पापा को फ़िर बताती हुं उनको। अत: पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद में पहले सामान्य रूप से घर के बाहर आंगन में गया, मानो कि आंगन में ही घूम रहा हुं, फ़िर जैसे ही गेट के नजदीक पहुंचा, तो मेंढक की तरह एक कूद में बाहर।

बेताल के घर पीछे ढाका और टैंटु बेशब्री से खडे मेरा इंतजार कर रहे थे। 
त्यों बे, इतनी देल त्यों लगाई? तैंची चलानी है कि नहीं? टैंटु बोला 
ठुल्ले! तू बडी देर करता हैगा बाहर आने में, ये बता तेरे पास पम्पू हैगा कि नहीं?
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पिछ्ले सप्ताह ढाका ने मेरा प्रमोशन कर दिया था, अब वह मुझे इंस्पेक्टर नहीं बल्कि ठुल्ला कहकर बुलाता था। वैसे इंस्पेक्टर तो मैने फ़िल्मों में बहुत देखे थे, परन्तु ठुल्ला कभी नहीं देखा था, अत: मैं अपनी नयी भुमिका के बारे में ज्यादा नहीं जानता था। जब मैंने ढाका से अपनी शंका व्यक्त की तो पहले तो वह नाराज हो गया, और बोला,
बेटे! तू इंस्पेक्टर का इंस्पेकटर ही रहियो, तुझमें ठुल्ला बनने की औकात नहीं हैगी। तुने देखा है कभी पिपरिया ठुल्ले को? बेट्टे अच्छे अच्छों की आगे से गीली और पीछे से पीली हो जाती हैगी पिपरिया ठुल्ले को देख के।

नहीं यार ढाका मैं ठुल्ला बन जाउंगा, पर ये तो बता कि ठुल्ला करता क्या है, और ये पिपरिया ठुल्ला कौन है?

बेट्टे ठुल्ला क्या-क्या कर सकता हैगा, तुझे नहीं पता हैगा। सिम्पिल वे मैं बताउं तो बेटे! ठुल्ला वो सब कर सकता हैगा जो इंस्पेक्टर नहीं कर सकता है, समझा। बेटा तेरा प्रमोशन हुआ हैगा, प्रमोशन।
 
ढाका का कहना था कि उसने ठुल्ला देखा था, और जानता था कि ठुल्ला इंस्पैक्टर से ज्यादा शक्तिशाली होता है। उस उम्र में, मैं तो निरा बुद्धिहीन था सो जैसा ढाका गुरु ने कहा वैसा ही मानना पडा।   


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अबे ये तैंची और पम्पू क्या होता है, मैने पूछा।
अबे तुझे कैंची चलानी आती हैगी कि नहीं?
मैने कहा हां, कैंची चलानी कौन सी बात है।
चल ठीक हैगा, पम्पू तो ला, बेटे पम्पू होता हैगा जिससे सैकिल में हवा भरते हैंगे।

मैं एक बार पुन: दुविधा मैं पड गया था, की पिताजी सही हैं कि ढाका? वास्तव मैं साईकिल में हवा भरने वाले यन्त्र को पम्प कहते हैं कि पम्पू? पता नहीं लेकिन मुझे ऐसा क्यों लगता था कि नयी चीजों के बारे में ढाका पिताजी से ज्यादा जानता है। अच्छा ये सब छोडिये, मेरे समझ मैं यह नहीं आया कि ये कैंची और पम्प से क्या करना चाहते हैं। मैरे पिताजी के पास एक एटलस साईकिल थी, जिससे वो अपने स्कूल जाते थे। कभी कभार ऐन वक्त पर देखा तो टायर पंचर है या फ़िर हवा निकल गयी, इसलिये पिताजी ने एक पंप लेकर रख हुआ था जिससे जब भी आवश्यकता हो तो घर में ही साईकिल में हवा भर लेते थे। लेकिन पिता जी ने हिदायत थी कि पम्प को आस पडोस में किसी को देने की जरूरत नहीं है, कोई पूछे तो कह देना कि पिता जी ने पता नहीं कहां रखा है।

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विशेषकर हवा भरने का पम्प, फ़ोटो खीचने वाला कैमरा और स्त्री, जब आपने पडोसियों को दी तो सही सलामत वापस लौटने की गुंजाइश कम ही रहती है। मैं समझ सकता हुं, कुछ पाठक इस बात पर मेरी ओर व्रक द्रष्टिपात कर सकते हैं, लेकिन स्त्री से मेरा तात्पर्य कपडे स्त्री करने वाली बिजली की प्रैस से है। लेकिन वो दिन फ़िर भी अच्छे थे कम से कम लोग एक दूसरे के वहां कुछ लेने देने के बहाने ही चले जाया करते थे।
गर्मियों में आपके घर कोई अतिथि जाय और उसके लिये ठंडे पानी की आवश्यकता हो या पीठ में घमौरियों पर बर्फ़ मलनी हो, कभी भी पडोसियों से मांगने में शंका नहीं होती थी।   
जाडों में पडोसी के घर में जलाये गये अलाव में हाथ सेंकने हो,
या जमूरा (प्लास), पेचकस मांगना हो या फ़िर बडा हथौडा 
या फ़िर फ़ोन सुनने के लिये देर रात पडोसी के वहां जाना क्यों ना हो,
शर्म नाम की चीज कभी भी पास नहीं फ़टकती थी। फ़ोन से याद आया कि फ़ोन सुनने में कोई परेशान नहीं होता था लेकिन यदि आपने किसी के घर जाकर वहां से किसी को फ़ोन मिलाया तो फ़ोन मालिक जरूर मन ही मन कुढता था। इसीलिये, उन दिनो फ़ोन के कुंजी पटल (डायल पैड) के उपर चिपकाने वाला एक ताला मिलता था। मुझे ये भी याद है, कि कई सज्जन तो ऐसे होते थे कि आये तो कम से कम पांच-: फ़ोन करके ही जाते थे। ऐसे सज्जनों से निपटने के लिये भीतर के कमरे में फ़ोन की वायर को खुला रखा जाता था। जैसे ही अंकल दिखे तो मेरा कर्त्तव्य, भीतर के कमरे से फ़ोन के तार ढीला करना होता था। फ़िर जैसे ही अंकल ने कहा कि अरे एक फ़ोन करना था, तो माताजी या पिताजी के लिये कहना सरल होता था, कि अरे फ़ोन तो कल से डेड पडा है, ये लाईन मैन तो हर हफ़्ते जान बूझ कर हमारा फ़ोन खराब कर देता है। फ़िर भी पडोसियों में उन दिनों इतना प्रेम होता था कि अगले हफ़्ते अंकल फ़ोन करने फ़िर आते थे, और कई बार अपने उद्देश्य में सफ़ल भी हो जाते थे।

यदि आज पीछे मुड के देखुं तो मुझे लगता है कि पिछ्ले दस पन्द्रह वर्षों में भारतीय मध्यम वर्गीय परिवार बडे उदार हुये हैं। यह बात सही है, कि आज भी दहेज दिया और लिया जाता है, गर्भस्थ शिशु का लिंग निर्धारण, गर्भ हत्या या फ़िर नवजात बेटियों को आज भी मारा जाता है। बहुओ के जलने की खबरें भी सुनायी ही पड जाती हैं, (मैं आनर किलिंग की बात नहीं कर रहा हुं) लेकिन फ़ोन करने देने के मामले में अब भारतीय परिवार बडे उदार हो चुके हैं. लाक लगाने या तार ढीले करने की बातें तो अब विलुप्त हो चुकीं हैं।
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मैने ढाका से कहा,
यार ढाका, पम्प तो है पर पापा ने मना किया है घर से बाहर ले जाने को। लेकिन तुझे पम्प से करना क्या  है, हां कैंची तो में जेब में छिपा के ले आउंगा।

अबे थाले, हमें वो तैंची नहीं चाहिये, टैंटु बोला।

देख मेरे पापा ने अपनी सैकिल दी हैगी मुझे और कहा हैगा कि चौराहे से हवा भरा ला, मैने सोचा हैगा कि चौराहे जाने से अच्छा तेरे वहां से ही हवा भर लेंगे और फ़िर जो समय बचेगा उसमें थोडा सैकिल में घूम लेंगे।  

देखा तोबेतालके मकान के सहारे एक सैकिल खडी थी, पुरानी सी लेकिन बहुत बडी साईकिल थी और दोनो टायरों में हवा भी नहीं थी। तभी टैंटु बोला,
तलो बेता, अब तौलाहे पल ही तलते हैं, वहीं हवा भी भल लेंगे।
वैसे मुझे घर से चौराहे पर बिना बताये जाने कि अनुमति नहीं थी, लेकिन मैने सोचा कि किसको पता चलेगा, जल्दी जायेंगे। फ़िर हम तीनों चौराहे की और चल दिये जहां साईकिल वाले की छोटी सी दुकान थी। हम तीनों ने एक-एक कर, क्रम से साईकिल चलाने को मिली, ढाका बोला कि,
पैले तुम दोनो एक एक कर साईकिल चला लो (पैदल), चौराहे पे मुझे दे दियो समझे हैंगे कि नहीं।

उस साईकिल को पकड कर साथ चलने में भी एक गर्व की अनुभूति हो रही थी। और फ़िर जैसे ही चौराहा आया तो ढाका ने बडी बेरुखी से अपनी साईकिल हम से लेकर खुद उसको पकड कर चलने लगा। अब आगे-आगे साईकिल के साथ ढाका और पीछे-पीछे में और टेंटु। ये थोडा भीड-भाडा वाला चौराहा था। यहां पर छोटी-छोटी दुकानें और एक बडा बरगद का पेडा भी था, और उसी के नीचे उद्दा की दुकान थी। उद्दा साईकिल ठीक करने का काम करता था। उद्दा का वास्तविक नाम उदय कुमार था, पहले कभी लोग उसेंउदय दा’ (दा का मतलब बडा भाई) कहते थे, पर धीरे धीरे समय के साथ उदय दा, उद्दा हो गया था। 

ढाका वहां चौराहे के लगभग सभी लोगो को जानता था। एक तो वह आज साईकिल ले के निकला था सो जान बूझ कर वहां के लोगो को इस बात का अहसास कराने के लिये ढाका उनके नाम ले लेकर उनके हाल चाल पूछता, और फ़िर हमारी तरफ़ मुड के इस तरह देखता कि मानो यह कह रहा हो कि  देखो मेरी कितनी जान पहचान है। और मजेदार बात यह थी कि सारे लोग उसे ढाका के ही नाम से जानते थे उसका असली नाम कोई नहीं जानता था। संक्षेप में कहें तो  ढाका एक साईकिल से दो शिकार कर रहा था।

कुछ देर में हम लोग मुख्य चौराहे पर पहुंच गये थे, जहां दिन भर अच्छी खासी भीड-भाड रहती है। साइकिल को ढाका बडे शान से लेकर चल रहा था। मैं और टेंटु उसके अगल बगल चल रहे थे। मेरा  ध्यान इधर-उधर यह देखने में लगा था कि कोई पहचान का व्यक्ति मुझे देख ना रहा हो। तभी अचानक भडाम की आवाज हुई, और जैसे ही मैने मुड के देखा तो क्या देखता हुं कि साईकिल जमीन पर एक ओर गिरी पडी थी, और ढाका अपने हम उम्र एक लडके की कमीज का कालर पकड के उसे झकझोर रहा था।
अबे! निकाल मेरे पैसे, ये दस का नोट मेरा हैगा, देता हैगा कि नहीं साले।

थोडी देर बाद हमने उस लडके को बडे अनमने ढंग़ से एक दस का नोट ढाका को देते हुए देखा। 
त्यों बे ढाका ये त्या कर रहा है, टेंटु बोला?
बेट्टे! डान जो करता हैगा, सही करता हैगा, अभी बताता हुं पहले उद्दा से सैकिल में हवा तो भरवा लें।                
उद्दा साईकिल में हवा भरने के पचास पैंसे लेता था, जो उसें कोई देता नहीं था। यदि आप उद्दा की दुकान पर उसके पम्प से अपने आप हवा भरते हैं तो कोई पैसे नहीं देने पडते थे, हां शर्त ये की पम्प खाली होना चाहिये। यदि आपका टायर पंचर है तो पंचर ठीक करवाने पर उद्दा हवा फ़्री में भरता था। तो बडे लोग तो अपने आप पम्प से हवा भर लेते थे परन्तु बच्चों के भरने से हवा नहीं भर पाती थी बस खाली फ़ुस-फ़ुस होती रहती थी।

उद्दा साईकिल में हवा भर दो।

पचास पैंसे लुंगा।

ले लियो उद्दा, जे देखो दस का नोट हैगा। जल्दी भर दो टाइम नी हैगा आज अपुन के पास।

ढाका ने नोट को हमारी ओर भी दिखाया और एक आंख मारी, और बोला,
जे नोट किसी की जेब से गिरा हैगा, और मैने उस लडके को इसे उठाते हुए देख लिया हैगा। जभी तो मैने कहा कि मेरा हैगा। दे नी रिया था, थोडा धमकाना पडा हैगा। सैकिल जभी गिरी जब मैं नोट छिनने के लिये उसकी ओर लपका हुंगा, तुम क्या समझे थे कि मैं सैकिल युं ही गिरा दुंगा। चलो आज पार्टी हैगी, उद्दा सैकिल में हवा भरके रखो अभी आते हैंगे।

यह कहकर ढाका हमें थोडी दूर एक कोने में स्थित चाय पानी की दुकान में ले गया। जाते ही दुकान वाले से ढाका ने कहा, दियो भाई एक बोतल। बोतल सुनते ही हमारे कान खडे हो गये।

ठंडी वाली दियो,

जै लो भैय्या।

तभी हम क्य देखते हैं, कि दुकान वाले ने एक प्लास्टिक के बडे डिब्बे के अंदर हाथ डाला, उस डिब्बे के अंदर बर्फ़ के टुकडों के बीच कई, संतरी और काले रंग के पेय पदार्थों से भरी कांच की बोतलें थी। यह वही बोतलें थी जिनके विज्ञापन टेलीविजन में दिखाये जाते थे। टैंटु और मैने हर्ष विभूषित होते हुये एक दूसरे की आंखों में देखा, मानो यह बात हुई की आज तो ढाका रूप धारी मोहिनी हमें अम्रत पिलवाने जा रही हो। मैने तो आज तक बस फ़्रूटी का ही स्वाद चखा था, इन संतरी-काली बोतलों को तो बस हम बडी-बडी दुकानों में दूर से ही प्रणाम कर लेते थे कि कभी हम भी बडे होंगे और इनका पान करेंगे। संतरी रंग के द्रव की बोतलों में माजा और गोल्ड्स्पाट आते थे, और संतरी वर्ण का पेय ही मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करता था, हां वह बात अलग थी कि कभी इन बोतलों को मुंह में लगाने का सुअवसर अब तक नहीं मिला था। और काले रंग की बोतलों में आने वाले अम्रत का नाम था, कैम्पा-कोला, पता नहीं इस काले द्रव ने मुझे कभी आकर्षित नहीं किया। संभवत: यह जीभ जलाने वाले काले चूरन खाने का परिणाम था। इसको कुछ इस तरह से भी कह सकते हैं कि, काले चूरन का जीभ जला, कैम्पा-कोला भी फ़ूक-फ़ूक के पीता है।

मैं मन ही मन पार्थना कर रहा था कि काश ढाका, संतरी वाली बोतल ले, तो माजा जाये, परन्तु भगवान कब सुनने वाला था। दुकान वाले ने कैम्पा-कोला की बोतल उठाई और ढाका ने सिर हिला के कहा, जे ही वाली।

मुझे मन मसोस के रहना पडा, लेकिन दान की बछिया के भी कहीं दांत देखे जाते हैं क्या, मैने मन ही मन कहा की चलो यह ही पी लेंगे। आगे क्या देखते हैं कि दुकान वाले ने नाखून-कटर में लगे रहने वाले विभिन्न तरह के चाकुओं में से एक का प्रयोग कर उस बोतल के उपर लगे धातु के ढक्कन को खोलने चाहा तो, तो ढाक तपाक से बोल पडा,
हेssssss रहने दो, रहने दो, हम खोल लैंगे।

वह तो ढाका ने हमें बाद में किनारे आकर समझाया कि,
बेटा! जे दुकान वाला बडे चालू हैगा, बोतल के ढक्कन को खुद ही रख लेते हैंगा। जे ढक्कन ही तो सबसे बडे काम की चीज हैगी, यदि जे ढक्कन नहीं हैगा तो आप ओरों को कैसे बताओगे कि आपने आज कैम्पा-कोला या फ़िर गोल्ड्स्पाट की बोतल पी हैगी। दुसरी इस ढक्कन में हमेशा इस कैम्पा-कोला की खुशबू आती हैगी, कभी भी सूंघ लो। और तीसरा फ़ैदा यह हैगा  कि हमेशा इस ढक्कन के नीचे देखो, इसमें ईनाम निकलते हैंगे। और बेटे, अगर पेप्सी के ढक्कन के नीचे यदि ईनाम निकला तो, बेटा सचिन से मिल सकते हैंगे।

अब ना तो मैने कभी पेप्सी का नाम सुना था और यह सचिन कौन नया दुकानदार था, मुझे तो कुछ समझ में नहीं आया था। और कौन सा समझने की आवश्यकता थी, मैं और टैंटु तो बस इस इंतजार में थे कि कब ढक्कन खुले और दो बूंद जिंदगी की मिलें, वरना तो हम एक कान से सुनकर बस दूसरे से वायुमंडल में छोड रहे थे। 

और इस ढक्कन का अंतिम फ़ैदा जे हैगा बेटा कि हम इससे चकरघिन्नी बना सकते हैंगे। चलो अब बोतल खोलते हैंगे।        

मेरे मन में एक बडी शंका थी कि हमारे पास तो ढक्कन खोलने वाला यन्त्र था ही नहीं, तो हम इस बोतल को खोलेंगे कैसे? परन्तु मेरी शंका को सदैव की भांति आज भी ढाका ने निर्मूल सिद्ध कर दिया, जब उसने उस ढक्कन को पलक झपकते ही अपने दांतों से खोल कर रख दिया। मुझे तो ऐसा लग रहा था कि, द्रोणाचार्य रचित चक्रव्युह को पलक झपकते ही तोडने वाला, साक्षात अभिमन्यु ही मेरे सामने खडा हो। मैने देखा कि जैसे ही बोतल का ढक्कन खुला, उसमें से कुछ धुआं सा निकलने लगा, और फ़िर पल भर में वह काला द्रव झाग के साथ ऊपर उठने लगा था। मेरा तो सारा उत्साह ही समाप्त हो गया कि यह तो कुछ गडबड चीज है, इसको पीकर यदि मैं घर गया तो मेरा काम हो गया। शायद वही हाल टैंटु का भी था। जहां हम दोनो कुछ सहमे से थे, वही ढाका ने बडी शीघ्रता से उस बोतल को अपने मुंह में लगा लियाऔर वह उबलता हुआ काला द्रव ढाके के पेट में समाने  लगा। अभी तक अभिमन्यु लगने वाले ढाका में मुझे अब साक्षात भगवान शंकर दिखायी दे रहे थे, जिन्होने जीवन की रक्षा के लिये उस कालकूट विष को भी पी दिया था। यह द्रश्य तो वास्तव में देखने लायक था कि कैसे घूंट में घूंट लेकर ढाका उस खतरनाक द्रव को पीता जा रहा था। हलाहल पीने के बाद तो भगवान शंकर का भी गला नीला पड गया था, परन्तु इस राक्षस पर तो इसका भी कुछः असर नहीं पड रहा था। मन ही मन मुझे टेलीविजन में दिखाया जाने वाला कायम चूर्ण का वह विज्ञापन याद रहा था जिसमें, एक शिकारी तीन राक्षसों (कब्ज, ऐसेडिटी और गैस) को बंदूक से गोली मार रहा होता है, और उन राक्षसों पर गोलियों का भी असर नहीं होता है।  मैं मन ही मन सोच रहा था कि काश ढाका इसे पूरा ही पी जाय, जिससे मुझे ना पीना पडे यह काला हलाहल। लेकिन ढाका ने आधी से ज्यादा बोतल खत्म कर मेरी और बडा दी,
ले ठुल्ले पीले तू भी,
पहले टैंटू को देदे,
मैने सोचा कि पहले टैंटू को भी पी लेने दो, फ़िर थोडा और कम बच जायेगा, और क्या पता टैंटू ही सारा पी जाय। परन्तु टैंटू ने तो साफ़ मना कर दिया कि वह नहीं पीयेगा। अब तो मुझे ही पीना था यह जहर का प्याला। उधर से ढाका चिल्ला रहा था कि जल्दी पी वरना सारी गैस निकल जायेगी। तभी मुझे बहाना याद गया कि मैं जूठा नहीं पीता, और मैने कह दिया कि मैं भी नहीं पीउंगा। लेकिन ढाका कहां मानने वाला था, उसने बोतल मेरे हाथ से ली और अपनी कमीज के निचले हिस्से से बोतल का मुंह पोछ के बोला,
ले बेटा अब पीले,

मरता क्या ना करता, अब मुझे बोतल मुंह में लगानी ही पडी, जैसे ही एक घूंट मेरे मुंह के अंदर गयी, ऐसा लगा कि जैसे मेरा मुंह जल गया हो, या फ़िर कुछ अजीब टाईप की मिर्च हो, उस तीखे  स्वाद का वर्णन करा तो असंभव है क्योंकि ऐसा कुछ मैने आज तक पीया ही नहीं था। लेकिन जो भी था बडा खतरनाक था। मैने बस एक घूंट और लगाया और बोतल ढाका के हाथ में पकडा दी, मुझे ऐसा लग रहा था कि मानो, तेजाब पी दिया हो। ढाका मेरी स्थिति समझ चुका था, वह हंसते हुये बोला,
बेटे! जे बच्चों के पीने की चीज नहीं हैगी। देखा, हम क्या पीते हैंगे।
यह कहकर ढाका ने बची-खुची कैम्पा-कोला भी अपने उदरस्थ कर ली। फ़िर बोतल वापस करने के बाद उसने एक जरूरी जानकारी दी कि,
बेटा! इसको पीने के बाद डकार आती हैंगी, लेकिन डकार लेने का एक सपेशल तरीका हैगा। जब भी इसको पीने के बाद डकार आये तो मुंह बंद कर दो और नाक के रास्ते निकलने दो। यदि इसकी डकार को मुंह से निकाला तो दांत कमजोर हो जाते हैंगे।
पीछे से टैंटू भी बोला,
जे छही कै रहा है, मेले दादा जी भी थूब बोतल पीते थे अपनी दवानी में, तबी तो उनके ताले दांत तूत गये थे। बेते बोतल पीना दन्दी बात है।

अबे चुप कर तेरे दादा जी वाली बोतल नी हैगी ये, कैम्पा-कोला पीने से तो ताकत आते हैगी, समझा।
अब मेरी तो जान ही निकले का रही थी कि ये आज क्या पी दिया, क्योंकी बार-बार डकार रही थी, और मुझे अपने हाथों से अपना मुंह कसकर बंद करना पड रहा था कि कहीं मुंह से ना निकल जाये। और मुंह से निकल गयी तो फ़िर ये दांत गये, और कोला की डकार को नाख के रास्ते निकलाना भी बडा दुष्कर काम था। यदि आपने कभी किया हो तो बताइयेगा।

फ़िर जो ढाका ने उस दिन जो बात आगे बतायी, उसे सुनकर मेरा तो भगवान से ही विश्वास उठ गया था। लेकिन अगला भाग आपकी टिपप्प्णीयों (मांग) के अनुसार आयेगा, जितनी ज्यादा पाठक और टिप्पणीयां उतने ही जल्दी ढाका का अगला भाग।