Monday 30 August 2010

दिसंबर की रात

इस हफ़्ते समय का अभाव रहा, इसलिये ढाका का नया भाग नहीं लिख सका, तो एक पुरानी घटना का वर्णन कर रहा हुं। जल्दी ही ढाका के आगे के भाग प्रस्तुत करूंगा। 
सुधीर



दिसंबर की रात 

दिसंबर का महीना और कंप-कंपाती रात में हम लोग अपने मित्र के बडे भाई के विवाह समारोह के सामूहिक भोज (रिस्सेपसन पार्टी से) वापस लौट रहे थे। मोटर साईकल मैं चला रहा था और मेरा छोटा भाई, निर्मल, पीछे बैठा हुआ था। यद्यपि मैं कई बार मोटर साईकल को गिरा चुका था पर निर्मल कभी भी मेरे चलाने पर विरोध नहीं करता, बडे भाई होने के कुछ फ़ायदों में से यह एक था।
जब तक आप विवाह समारोह में होते हैं और चारों तरफ़ चहल पहल, हल्ले–गुल्ले और  भीड-भाड के बीच समय का पता नहीं चलता है। एक बार जैसे ही बारात दूल्हन के घर पहुंची और खाना शुरु हुआ कि नहीं भीड छंटनी शुरु हो जाती है। बात भी सही है, एक तो बारात हमेशा देर से ही पहुंचती है उपर से हम, हम क्या ज्यादातर लोग,  तो घर से बिना कुछ खाये ही निकलते हैं कि भाई विवाह में भी तो कुछ खाना है, जब पैसे दे रहे हैं तो खाना भी जम के खाना चाहिये।

तो साब!  बारात पहुंची नहीं कि बच्चे, बुढ्ढे और जवान सभी खाने पर ऐसे टूटते हैं कि जैसे खाना है थोडा सा और क्षण भर की देर भी आपको भूखा मार सकती है। तो हम दोनो ने जल्दी से खाना खाया और निकलने की तैयारी करने लगे क्योंकि रात के साढे बारह बज चुके थे और हम थोडा लेट थे। इस बात को लगभग आठ साल हो गये हैं अत: उन दिनो मोबाइल फ़ोन प्रचलन में नहीं थे। तो मैं और निर्मल सारे मित्रों से मिलकर निकलने लगे तो पास बैठे बुजुर्गों ने कहा कि दूर का रास्ता है और रात बहुत हो चुकी है इसलिये रात यहीं रुक जाओ और शादी देखो या फ़िर कहीं थोडी जगह देख कर सो जाओ और कर कल निकल जाना।

ये विवाह नैनीताल में हो रहा था। नैनीताल से हल्द्वानी की दूरी लगभग चालीस किलोमीटर होगी, चु्किं यह पूरा रास्ता पहाडी और घुमावदार है अत: कार या मोटर साईकिल से जाने में सामन्यत: एक घन्टा लग जाता है। हमें लगा रात का समय है, रास्ता खाली होगा तो और जल्दी पहुंच जायेंगे और फ़िर मुझे अगली सुबह दिल्ली के लिये ट्रेन भी पकडनी थी। यद्यपि घर में कह कर आये थे कि रात को वहीं सो जायेंगे और सुबह तडके पांच बजे निकल कर छ: बजे तक हल्द्वानी पहुंच जायेंगे और मेरा सा्मान तैयार था इसलिये नौ बजे ट्रेन पकडने में कोई समस्या नहीं होगी। मैने निर्मल से पूछा कि क्या करें, चले या रुकें? तो निर्मल ने भी सहमति दी की चलते हैं, रात में मोटर साइकिल से पहाडों में जाने का मजा भी आयेगा। यह बात ने मुझे भी आकर्षित किया कि यदि पहाडों में दिन में यात्रा करना इतना मजेदार होता है तो सूनसान, सुहावनी रात में तो और भी आनंद आयेगा। जब रात में ही निकलने का विचार पक्का हो ही गया तो हम दोनो गर्म गर्म काफ़ी पी कर यात्रा पर निकल गये।
ठंड जबर्दस्त पड रही थी, नैनीताल बाजार से गुजरते समय कंबल लपेटे हुये दो चार लोग रास्ते में दिख गये थे। शहर की बाहरी सीमा पर बनी पुलिस चौकी के नजदीक पहुंचते हुये इस बात का डर लग रहा था कि यदि किसी पुलिस वाले ने देख लिय तो नि: संदेह रोक लेगा और फ़िर वही घिसे फिटे सवाल,
कहां से आ रहे हो?  कहां जा रहे हो इतनी रात गये? अभी नहीं जा सकते, वगैरह वगैरह।

लेकिन शायद भाग्य अच्छा था, नाके के पास बिजली का बल्ब तो जल रहा था पर चौकी के आसपास कोई दिखायी नहीं दिया। इतनी ठंड में कौन आ रहा है यह सोच कर सिपाही भी सो गये होंगे। ऐसा लगा जैसे कि आधा युद्ध तो यहीं जीत लिया, सो चौकी के बगल से गुजरते हुए मैने उत्साह में मोटर साइकिल की गति कुछ ज्यादा ही बडा दी थी। इसीलिये  पीछे निर्मल बोला भाई संभल कर, कोई जल्दी नहीं है आराम से। नैनीताल का पहाड, समुद्र तट से लगभग साढे चार हजार मीटर की उंचाइ पर  स्थित है और यह पर्वत श्रंखला हिमालय पर्वत की शिवालिक श्रेणी पर आती है। अंधेरी रात में सरपट मोटर साईकिल चलाने का अनुभव बडा रोमांचाकारी प्रतीत हो रहा था। आसमान में चमकते तारे ऐसे दिखते जैसे हमारे सामने ही हों। ये रात शायद चत्तुर्दशी थी क्योंकि चन्द्रमा अपनी पूरे रूप में तो नहीं था परन्तु पूर्णता के बहुत नजदीक था। इस पहाडी नेशनल हाईवे पर बिजली के बल्ब नहीं लगे हैं फ़िर रास्ता साफ़ दिख रहा था। चन्द्रमा के प्रकाश में आस पास के पहाडों पर दूर-दूर छितरे हुए छोटे छोटे घर और जंगल भी दिखाई पड रहे थे। धुंधली रात में रास्ते के पेड और उनकी हिलती हुई टहनियां कभी किसी जंगली जानवर का तो कभी हमारी और बडते किसी विशालकाय आदमी का आभास देती और झिंगुरों की गुंजती आवाज इस द्रश्य को जीवंत और डरावना बना देती। निर्मल का तो पता नहीं पर मुझे समझ में आ रहा था कि क्यों बडे बूढे रात में यात्रा करने से मना करते हैं। ठंडी हवाओं के बीच तो ऐसा लग रहा था कि कैसे घर पहुंच जाये, कभी-कभी मन में विचार आ रहा था कि शायद गलती की रात को वहीं रुक जाना चाहिये था। कहते हैं कि मन आने वाले संकट को पहले ही भांप जाता है।   

हम लोग लगभग पंद्रह किलोमीटर की यात्रा कर चुके थे। मोटर साइकिल की गति बडाने पर ठंडी हवा और भी कडक प्रतीत हो रहे थी तो मुझे लगा कि यदि मोटर साइकल के इंजन को बंद कर ढलान के साथ धीरे धीरे चला जाये तो तेल भी बचेगा और ठंड भी कम लगेगी लेकिन इस स्थिति में हेड लाइट बंद हो जाती है। लेकिन खाली रास्ते में चन्द्रमा की रोशनी  चलने के लिये पर्याप्त थी। निर्मल ने भी मोटर साईकिल को न्युट्रल करने में कोई  आपत्ति नहीं जताई सो मैने इंजन को आफ़ कर दिया। अब मोटर साइकिल का इंजन बंद होते ही वातावरण शांत हो गया। मोटर साईकिल की  गरजती आवाज जो पहले इस सूनी रात में हमारी उपस्थिति का संकेत दे रही थी अब शांत हो चुकी थी। अब हम भी इस घने जंगल और सूनसान रात  का एक हिस्सा बन गये थे। जैसे रात में नदी का पानी बहता रहता है उसी प्रकार हम दोनो इस संकरी पहाडी सडक पर चुपचाप फ़िसलते हुए से आगे बडते जा रहे थे। अब हम ज्योलिकोट का छोटा सा बाजार पार कर रहे थे। यहां छोटी छोटी दुकाने, जिनमें मुर्गे का अचार और बुरांश और लीची का शर्बत मिलता है और एक घर के उपर बनी स्टेट बैंक की छोटी सी शाखा। ज्युलिकोट से हम लगभग पांच किलोमीटर आगे निकल आये थे। ये घने जंगल वाला क्षेत्र था  जिसे भुजिया घाट कहते हैं। यहां पहाडों की घाटी पर एक दो छोटे छोटे गांव हैं। मुख्य सडक से जब आप पगडंडियों से नीचे घाटी में उतरतें हैं तो लगभग पच्चीस मिनट चलने के बाद एक छोटी नदी आती है, इस नदी पर बने पुल के पार पहाड के दूसरी ओर तीन किलोमीटर बाद छोटा सा गांव है।

दिन के समय गांव के लोग सडक के किनारे बैठकर खीरा, भुनी हुई मक्का और सब्जियां बेचते हैं। खेती ही इन पहाडी लोगों का मुख्य व्यवसाय होता है। टिन के बने हुये ये छोटे छोटे शेड अभी रात में ऐसे वीरान पडे थे कि जैसे वर्षों से यहां कोई नहीं आया हो। हम दोनो विवाह समारोह की बातें करते हुये घनी रात में आगे बढते जा रहे थे, तभी मैने देखा कि एक काला कंबल ओढे क्रशकाय, लंबा सा आदमी अचानक मोटर साइकिल से सामने आ गया और हाथ से रुकने का इशारा करने लग। यह घटना इस तीव्र मोड पर इतनी जल्दी से घटी कि मोटर साईकिल गिरते गिरते बची। आधी रात गये किसी व्यक्ति का इस घने जंगल में होना मेरे लिये आश्चर्य करने वाला था।  इसीलिये इस पूरी घटना के दौरान मैं कुछ हडबडा सा गया था। निर्मल भी चौंक गया था और मुझसे बोला कि क्या हुआ, उसको लगा कि मुझे नींद आ रही है, इसीलिये मेरा संतुलन बिगडा। मैं निर्मल कहा, देख कैसा पागल सा आदमी था, साला! अपने आप तो मरेगा और दूसरे को भी मरवायेगा। निर्मल बोला,

कौन आदमी?         

अरे ये अभी जो अचानक सामने आ गया था,

नहीं, मुझे तो कोई आदमी नहीं दिखाई दिया। लगता है तुझे नींद आ रही, ला मोटर साईकिल में चलाउं। हां, लेकिन एक काला कंबल ओढे, पतला सा आदमी मैने ज्योलोकोट के पास देखा था। लेकिन वो इतनी जल्दी यहां हमसे पहले कैसे पहुंच सकता है?

ये दूसरा होगा। मैने कहा पर मैं महसूस कर सकता था कि मेरी ह्रदय गति कुछ ज्यादा ही तीव्र हो गयी थी, शायद अब हम सबसे ज्यादा घने रास्ते से गुजर रहे थे और वो बूढा मेरे मस्तिष्क में अभी भी घूम रहा था। हमारे शरीर में छोटे छोटे बाल होते हैं जिन्हें रोम कहते हैं, ये कंपकपी के दौरान खडे हो जाते हैं, और मैं महसूस कर सकता था कि मेरे रोम भी खडे हो गये थे।  अभी मेरी हालत यह थी कि मैं सडक के अलावा इधर उधर देख ही नहीं रहा था। संभवत: मुझे इस बात का डर लग रहा था कि कहीं वो बूढा फ़िर से ना दिख जाये। रात में सडक के साथ बहती नदीं, जो कि सडक से लगभग आधा किलोमीटर नीचे जाकर थी, कि ध्वनि रात के अंधेरे को और गहरा कर दे रही थी। इस स्थान के आस पास दस किलोमीटर के घेरे में तो कोई गांव भी नहीं है, यह बात मेरे दिमाग में अचानक आयी। तो यह बू्ढा रात के सवा एक बजे जा कहां रहा था?

तभी निर्मल बोला कि दद्दा एक मिनट के लिये रुक जा, बहुत जोर से लघु शंका आ रही है। ठंड तो थी ही और मुझे भी लगा की मूत्र विसर्जित कर लिया जाय क्योंकि अभी हल्द्वानी पहुंचने में आधा घंटा था। एक जगह थोडी चौडी सडक देख कर मैने मोटर साइकिल रोक ली और हम दोनो उतर के अपनी शंका समाधान करने लगे। हम दोनों ने एक दूसरे की तरफ़ अपनी पीठ कर रखी थी और बस दो कदम की दूरी पर खडे थे।  मेरा चेहरा पहाड से नीचे घाटी की तरफ़ था। चन्द्रमा के प्रकाश में दूर दूर तक छोटे बडे पहाड और नीचे बहती नदी दिख रही थी। बडा शांत और सुंदर द्रस्य था, तभी मुझे नीचे पहाड की तलहटी पर कुछ हलचल सी  होती दिखाई दी। ध्यान से देखा तो एक काला साया सा 
चलता नजर आया, मुझे लगा कोई जंगली जानवर है, तो उत्कुंठा हुई कि अखिर क्या है?
मुझे लगा कि निर्मल को भी दिखाउं, उसको बताने के लिये मैं जैसे ही पीछे मुडा, तो क्या देखा कि 

निर्मल मुझसे लगभग बीस पच्चीस कदम की दूरी पर है। मुझे कुछ समझ नहीं पाया कि आखिर हम दोनो एक दूसरे से इतनी दूर कैसे चले गये, हम तो बस दो कदम की दूरी पर खडे थे। निर्मल का चेहरा दूसरी तरफ़ था।  
‘’क्या हुआ? कहां जा रहा हैं’’, मैने पूछा ?

मैं दौडकर उसके पीछे गया और देखा कि उसकी आंखे नीचे की और देख रही थी. मैने पूछ कि कहां जा रहा है? उसके चेहरे पर हवाईयां उडी हुई थी,वह कांपती आवाज में बोला,

दद्दा! मेंने ज्युलिकोट वाला बुड्ढा अभी मेरे सामने देखा, वह वही था। वह अभी अभी इस जगह से नीचे को गया है। वह हाथ के इशारे से मुझे अपनी और बुला रहा था। उसकी आंखों में आग सी जल रही था और वह हवा के साथ उड सा रहा था।

ऐसा लग रहा था कि जैसे उसके पांव जमीन पर नहीं थे। यह सुन कर मुझे ऐसा लगा कि मेरे पैर वहीं पर जम गये हैं और पेट में कुछ अजीब सा होने लगा। मैने एक बार अपने जगह पर खडे खडे ही उचक कर नीचे की ओर देखने की कोशिश की, वहां तो कुछ नहीं था। लेकिन कुछ हलचल सी हो रही थी। झिंगुरों की आवाज अब और तेज होने लगी थी। मैने निर्मल को हाथ से हल्का सा धक्का देते हुऐ कहा चल दौड लगा और हम दोनो मोटर साईकिल की और दौड पडे।

जैसे ही मोटरसाईकिल में बैठे कर उसे स्टार्ट करने की कोशिश कि, मोटर साईकिल स्टार्ट ही नहीं हुई। तभी क्या देखते हैं कि सामने पहाड से एक लाल रंग का साया सा नीचे हमारी तरफ़ आ रहा है। घास और झाडियों के कारण उसका केवल उपरी भाग ही दिख रहा था और ये परछाइ ऐसे चलती हुई सी दिख रही थी कि जैसे कटी हुई पतंग हवा के साथ साथ नीचे आती है। मेरा ह्रदय ऐसे धडक रहा था कि जैसे अभी फ़ट पडेगा। हम दोनो के चेहरे तो ऐसे हो गये थे कि काटो तो खून नहीं। मुझे याद नहीं इस बीच में मैने मोटर साईकिल को स्टार्ट  करने के लिये ताबडतोड कितनी किक मार चुका था। थोडी देर में यह साया ना जाने कहां गायब हो गया। तभी निर्मल ने धक्का मार के इस आस में मोटर साईकल को आगे को बडाया की शायद ये शुरु हो जाये पर सारे प्रयास असफ़ल रहे।  इस प्रयास में हम लोग सडक में थोडा आगे तक बड गये थे, जहां से घाटी का द्रश्य साफ़ दिखाई दे रह था। चन्द्रमा का प्रकाश इतना भी नहीं था कि सब कुछ साफ़ साफ़ दिखाई पडे, पर इतना हमें दिख रहा था कि नीचे घाटी में कु्छ हलचल सी हो रही थी। हम दोनो ने एक दूसरे को देखा, बोलने को तो कुछ था ही नहीं, और आंखों ही आखों में एक सहमति बनी कि डरने की कोई बात नहीं है, देखते हैं क्या होता है आगे। ध्यान से देखा तो वो लाल रंग की आक्रति नीचे घाटी में रेंगती सी दिखाई दिया और अब वह एक लंबे बालों वाली औरत सा दिखाई दे रहा था। हम दोनों की आंखें विस्मय से घाटी में गडी थी। तभी ऐसा लगा कि हमारे पीछे रोड में भी कुछ चल रहा है। मैं एक झटके से पीछे की और मुडा तभी क्या देखा कि वही बुड्ढा रोड में चला जा रहा था। उसका चूसे हुए आम सा पोपला चेहरा और मुंह में केवल एक लम्बा सा दांत और गंजा सिर। वह अपने ही आप में कुछ बडबडाता सा हुआ हमारी आंखों के सामने से हल्के हल्के निकल गया और हम दोनों मूर्ति से बने चुपचाप खडे रह गये। ठंड इतनी ज्यादा नहीं थी जितना मैं कांप रहा था। लेकिन हमें क्या पता था कि ये तो बस शुरुआत ही थी।              
तभी अचानक नीचे घाटी से आती किसी सियार या फ़िर भेडिये की हुंकार ध्वनि ने पूरे वातवरण की शांति को चीरकर रख दिया। आस पास की झाडियों से आती झिंगुरों की आवाज भी एक क्षण के लिये ठहर सी गयी और उस घने पेड से उडे किसी पक्षी के पंखो की फ़ड-फ़डाहत से रात की गंभीरता का पता चला। और फ़िर इसके बाद दो, तीन चार और ना जाने कितने भेडिये एक साथ हुंकार भरने लगे और धीरे धीरे हुंकार गुर्राहट में बदल रही थी। उनकी आवाजों से ऐसा लगा कि भेडियों का झुंड किसी शिकार की टोह में घूम रहा था और अब शिकार मिलने पर उस पर टूट पडा है। भेडियों की आवाजों से साफ़ पता चल रहा था की वे किसी शिकार को घेरकर उस को नोंच रहे हैं। 

एक बार मन करा कि इस बंद मोटरसाईकिल को छोड के दौड लगा दें, जीवन रहा तो कई खरीदी जा सकती हैं। लेकिन भागे तो आखिर किस तरफ़, एक तरफ़ पहाड और दूसरी तरफ़ खाई, और ये घनी अंधेरी, सूनसान, कातिल रात। अब मुझे समझ में आया कि नीचे घाटी में जो हलचल हो रही थी वो ये भेडियों का झुंड चुपचाप शिकार की तलाश में था। अभी तक ऐसा किताबों में पढा था, टीवी पर देखा था, या फ़्रिर बडे बुजुर्गों की किस्सों कहानिय़ों में सुना था। आज पहली बार ऐसी स्थिति से साक्षात्कार हुआ था।

उसी क्षण, अचानक सियारों की गर्विली हुंकार अब रोने की आवाजों में बदल गयी और धीरे धीरे ये आवाज गहराने लगी ऐसा लगा की भेडियों का झुंड किसी आपत्ति में फ़ंसा हुआ है या किसी से डर रहा है। फ़िर वही हुआ जिसका बात डर मुझे लग रहा था। फ़ुर्तीले, निडर, खूनी भेडिये भी किसी ऐसी चीज की उपस्थिति से हार मान चुके थे, जो संभवत: उनसे भी डरावनी और खूंखार थी। भेडियों की हुंकारती आवाजें भी धीरे धीरे रात की अंधेरें में कहीं खो गयी। फ़िर वही शांत रात, डरावनी घाटी और बूढा पहाड। तभी इस बार किसी के चलने की आवाज हमारे पीछे से आयी, मेरा तात्पर्य नीचे घाटी की और से आयी। ऐसा लगा की नीचे घाटी से कोई उपर की ओर आ रहा है।  अचानक अंधेरा और घना हो गया था, मैने उपर आसमान की और देखा तो दिखा कि उडते बादलों का एक समूह चंद्रमा को अपने आगोश में ले चुका था। नीचे झाडियों में से एक मानव आक्रति ऊपर की ओर आती हुई प्रतीत हुई और अब ये हमारी और बडने लगी थी। मेरी ह्रदय गति अत्यधिक तीव्र होने लगी थी और दिमाग ने तो काम ही करना बंद कर दिया था। नि: संदेह निर्मल की अवस्था भी कुछ अलग नहीं थी लेकिन आने वाले संकट को भांपते हुए निर्मल और मैं एक दूसरे के नजदीक आ गये। डर तो लग रहा था परन्तु सामना करने के सिवा दूसरा रास्ता भी नहीं था। वह मानव आक्रति हमारे और निकट आते जा रही थी तभी मस्तिष्क में एक विचार आया और मैने फ़ुर्ती से निर्मल का हाथ खींचकर हम दोनों को मोटरसाईकिल के पीछे ले लिया। अब हमारे सामने एक अवरोधक था जो उस मानव आक्रति को एक क्षण के लिये रोक सकता था।

वह आक्रति हमसे लगभग पंद्रह कदम दूर रुक गयी, और एक गरजती गंभीर आवाज कानों में पडी,

डरो मत! जितना डरोगे, ये शक्तियां उतना ही शक्तिशाली होती जायेंगी।

हमारी बोलती बंद हो चुकी थी, गला सूख चू्का था और शरीर में कंपकंपी सी हो रही थी। सामने लाल चादर ओढे, काली लंगोट पहने एक हट्टी-कट्टी आक्रति खडी थी। हाथ में कमंडल और गले में हड्डियों की माला देखकर अंदाजा लगाना असान था कि ये कोई तान्त्रिक था। चन्द्रमा को ढकने वाले बादल दूर जा चुके थे और उस भाव शून्य चेहरे के चारों ओर एक आभामंडल सा तैर रहा था। वैसे मुझे तान्त्रिकों के प्रति ना ही कोई आकर्षण है या ना ही द्वेष, फ़िर भी उस बाबा का विरोध करने का साहस नहीं हुआ। बाबा बोले, 

पीछे मुड के मत देखना, देख नहीं पाओगे।

मुझे ऐसा आभास हो रहा था कि जैसे हमारे पीछे कुछ भारी भरकम वस्तु चल रही है और हमारे निकट से गुजर रही है। बाबा की आंखें हमारे पीछे के द्रश्य पर गडी थी और आंखों में आश्चर्य और क्रोध का भाव था परन्तु मुख पर वही द्रढता थी। थोडी देर में फ़िर वही शांन्ति हो गयी, परन्तु अब डर कम लग रहा था, शायद उस तान्त्रिक की उपस्थिति से। सूनसान ठंड से कडकडाती रात और इस घने जंगल में फ़ंसे हम दोनो भाई, और अब ना जाने ये  तांत्रिक बाबा ना जाने कहां से आ गया।
क्रमश: 
              

Thursday 26 August 2010

ढाका भाग 3







पिछले भाग पढ़ें 



पतंगबाजी में हुयी हार ढाका के लिये एक नयी चुनौती क्योंकि ढाका में जिद्दीपन था, जीवट था, कभी हार ना मानने का। जिस बात को एक बार ढाका सोच लेता उसे तो हर कीमत पर उसें पूरा करना होता था। एक बार जो उसने हमारे क्षेत्र के सर्वश्रेष्ठ पतंगबाज लालू हराने की ठान ली तो ठान ली। अब तो चाहे कुछ भी करना पडे, साम, दाम, दंड, या फ़िर भेद, बस लालू को हराना था। विजय के मार्ग में ढाका का नौसीखिया पतंगबाज होना उतनी बडी समस्या नहीं थी, जितना कि लालू का सबसे ज्यादा अनुभवी पतंगबाज होना थी। लेकिन कहते हैं ना कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। ढाका ने भी एक नयी तरकीब खोज निकाली थी। अगली शाम को जब हम मिले तो ढाका का चेहरे मुस्कान और आत्मविश्वास से भरा हुआ लगा। मैने पूछा,


पेंच करेगा क्या आज?


बेटे, आज तो लालू की कन्नी कटेगी। देखियो आज ढाका डान क्या करता हैगा। 


(कन्नी विशेष प्रकार से बांधी गयी वह गांठ होती है जो मांझे और पतंग को आपस में जोडती है। पतंग की कन्नी, पतंगबाजी में एक कमजोर स्थान होता है, क्योंकि कन्नी सामान्यत: सद्दी [साधारण डोर] से बांधी जाती है। जबकि पेंच लडाने के किये मांझे [धार वाली डोर] को कन्नी और सद्दी बीच में बांधा जाता है। अत: पतंग की कन्नी जो ठीक पतंग के पास होती है उस पर आक्रमण करके विपक्षी पतंगबाज पतंग को बडी आसानी से काट सकता है।)
  
यह कहते हुए ढाका ने फ़िर वही चिर-परिचित मुस्कान बिखेरी और साथ में एक आंख बंद की तो मैं समझ गया कि आज तो पक्का कुछ ना कुछ होने वाला है। ढाका की योजना थी कि हम मांझे और पतंग की कन्नी के मध्य में तांबे का पतला तार बांधकर उडायेंगे। इससे यह होना था कि जब लालू और ढाका की पतंगें आसमान में एक दूसरे से उलझती तो लालू की पतंग का मांझा, ढाका की पतंग में बंधे तार के सम्पर्क में आयेगा। मांझा चाहे कितना भी तेज क्यों ना हो, या फ़िर पतंगबाज कितना भी दक्ष क्यों ना हो, मांझे से तांबे के तार को काटना तो असंभव था। इसलिये इस बार तो हमारी जीत लगभ सुनिश्चित ही थी। हां थोडी सम्भावना हमारे हारने की भी थी। वह तब, कि जब लालू को हमारी नयी योजना के बारे में पता चल जाय, और वह या तो हमारी पतंग की कन्नी में आक्रमण करे या फ़िर उस स्थान पर हमला करे जहां से हमारा तार खत्म हो जाय और मांझा शुरु हो। इसलिये लालू ने मुझे सख्त हिदायत दी थी कि,


इंस्पैक्टर, नजर रखियो, पतंग उडाने बीच कोई हमारे आस पास नहीं खडा होना चाहिये हैगा। यह बात किसी को पता नहीं चलनी चाहिये हैगी कि हम कौन सा मांझा (तार) लगा रहे हैंगे।


ढाका! लेकिन यार वो 'टेंटु' तो अपनी साईड है। वो तो हमारे साथ ही खडा होता है, उसने कहीं किसी को बता दिया दो। 


आने दे टेंटु को, उसका इलाज तो अभी करते हैंगे। 


'टेंटु', उर्फ़ अभिजीत, भी हमारी कालोनी में रहता था। नाम तो उसका अभिजीत सक्सेना था पर ढाका ने उसका नाम टेंटु रख दिया था। वैसे ढाका ने 'टेंटु' नाम बिलकुल सही रखा था। छोटी सी बात हुई नहीं कि अभिजीत टेंटुआ फ़ाड के रोना शुरु कर देता था। यहां अभिजीत ने टेंटुआ फ़ाडा, और उधर से उसकी मां का हम सब पर चिल्लाना शुरु, कि मेरे बेटे को मार रहे हो, परेशान कर रहे हो। तब मन करता कि साले का टेंटुआ ही दबा दो। 



वैसे टेंटु के रोने का भी वैसे एक स्टाइल था। जैसे कभी उसे किसी ने परेशान किया तो पहले तो वो रोनी सी सूरत बनाता और सुन्न हो जाता, फ़िर यदि हमने उसे चिढाना जारी रखा तो फ़िर उसका मुंह टेडा होता फ़िर आंसु निकलने शुरु होते  और फ़िर आंसुओं की धारा बह निकलती। फ़िर लगभग दस सेकेंड के बाद उसके गले से रोने की वो आवाज निकलती कि लगे कहीं फ़ायर अलार्म बज उठा हो। मुझे तो टेंटु का रोना और बादलों में बिजली चमकना एक सी घटना लगता था। आपने देखा होगा कि जब बारिश के दौरान बादल कडकते हैं, तो बिजली गिरनी की आवाज, बिजली के आसमान में चमकने के थोडी देर बाद होती है। ठीक ऐसा ही टेंटु के रोने के दौरान होता था, उसकी शक्ल और आंसुओं को देख के पता चल जाता था कि अब टेंटु का सायरन शुरु होने वाला है। इस समय अंतराल का प्रयोग हम तितर-बितर होने के लिये करते थे। जैसे ही टेंटु का सायरन सुन उसकी मां अपनी छत में आकर हम पर चिल्लाना शुरु करती तब तक  हम टेंटु से दूर इधर-उधर दूर ऐसे जा खडे होते कि जैसे हमने तो कुछ किया ही ना हो। लेकिन टेंटु तो वहीं होता था ना, वह शिकायत करना शुरु कर देता कि ये परेशान कर रहा है, वो परेशान कर रहा है। फ़िर टेंटु की मां हम पर अपना टेंटुआ फ़ाडना शुरु कर देती। ये टेंटु की प्रतिदिन की कहानी होती थी। 



एक दिन ढाका को एक नया तरीका सूझा, अब जैसे ही टेंटु के आंसु दिखायी देते, ढाका अपने हाथों से टेंटु का मुंह कस के बंद कर देता। टेंटु रोता तो था पर आवाज उसकी मां तक नहीं जा पाती थी। ढाका को भी यह करने में आनंद आता और हमारी समस्या भी समाप्त हो गयी थी। शुरु-शुरु में तो यह तरकीब बडी सफ़ल रही लेकिन थोडे दिनों में टेंटु ने इसका तोड खोज निकाला। वह यह था कि जैसे ही ढाका टेंटु का मुंह दबाता, टेंटु अपने दांत ढाका की हथेली में चुभा देता, अत: हारकर ढाका को हाथ हठाना ही पडता। मुंह से हाथ हठते ही टेंटु अपनी रोने की चीख को और ऊंचा(amplify) कर देता। लेकिन ढाका भी कब हार मानने वाला थाअबकी बार उसने बडा कारगर उपाय सोचा था। उपाय यह था कि जैसे ही टेंटु रोने वाला होता तो सारे बच्चे हल्ला-मचाना शुरु कर देते, जिससे टेंटु की रोने की आवाज दब के रह जाती। टेंटु और जोर से चिल्लाता तो सारे बच्चे भी शोर बडा देते, अब टेंटु की मां तक टेंटु की आवाज नहीं पहुंच पाती थी और थक हार कर टेंटु थोडी देर में चुप हो जाता। यद्यपि टेंटु ने टेंटुआ फ़ाडना तो कम कर दिया था पर नाम उसका टेंटु ही पड गया था।           



तो जब मैने ढाका से अपनी शंका व्यक्त की कि कहीं टेंटू हमारा तार वाला राज ना खोल दे, तो ढाका ने निश्चितता दिखाते हुए कहा की उसका उपाय तो वह कर देगा। फ़िर हम दोनो, ढाका के द्वारा लाये गये तांबे के तार को अपने चर्खी पर लपेटने लगे। मुझे तो इस बात का आश्चर्य हो रहा था कि ढाका इतना सारा तार लाया कहां से। इस तार में कुछ-कुछ दूरी पर गांठे लगी हुयी थी। इससे समझा जा सकता था कि तार के लंबे लंबे टुकडों को आपस में जोडा गया था। अब हम पेंच लडाने के लिये पूरी तरह तैयार थे। तभी टेंटु अपने घर से निकल कर हमारी तरफ़ आता हुआ दिखायी दिया। हमारे पास आकर वह बोला,


त्यों बे ढाता, पेंत करेगा लालू थे आज।  

(मैं यह बात बताना भूल गया था कि टेंटु बोलने में तुतलाता था।)      


चुप बे टेंटु, पहले ये बता तु हमारी साईड हैगा या लालू की साईड। 


तेली साईड हुं, पल तेली पतंग तो लोज कत जाती है।


अबे चुप र साले, पहले ही टोक मार रिया हैगा। देखते जा आ पतंग किसकी कटती हैगी।  


ढाका का टोक मारने से मतलब था कि शुरुआत में ही अशुभ शब्द कहना। फ़िर ढाका आगे बोला, 


सुन बेटा टेंटु, तु हमारी साईड जभी होगा जब तु विद्या-रानी की कसम खायेगा कि तु किसी को नहीं बतायेगा कि हम कैसे पतंग काटते हैंगे। तभी हम तुझे अपनी साईड में रखेंगे। 


त्यों बे, मुझे फ़ेल तलायेगा क्या? मैं विद्या-लानी ती तसम नहीं ताउंगा। 


हमारी साईड रहना हैगा तो कसम भी खानी पडती हैगी।


तल ठीत है, विद्या-लानी ती तसम तिसी को नहीं बताउंगा। 


सोच ले बे टेंटु नहीं तो फ़ेल हो जायेगा, मैने कहा। 


अबे थाली तो थाली, अब बताओ। लालू ती पतंग तैसे तातोगे।  


फ़िर हमने सारी कहानी टेंटु को भी बतायी। पूरी योजना सुन के टेंटु बोला, 

अले याल, आइदिया तो बहुत बलिया है, आत तो लालू ती पतंग कत ही दायेगी।


यह सुनकर ढाका और मेरा आत्मविश्व्वास एक कदम और बढ गया था, क्योंक टेंटु ने भी हमारी योजना को सफ़ल घोषित कर दिया था। बस अब तो पेंच होने का इंतजार था। उस शाम को फ़िर ढाका ने सबके सामने लालू को अंतिम मुकाबले की चुनौती दी और यह भी कहा कि यदि वह हार गया तो फ़िर कभी पतंग नहीं उडायेगा। हालांकि मुझे ढाका की योजना पर भरोसा था फ़िर भी मुझे डर सा लग रहा था कि कहीं आज भी हार का सामन ना करना पडे। लेकिन फ़िर पतंगो के पेंच शुरु हुए। पहले तो बडी देर तक आसमान में पतंगे एक दूसरे से बचते रही। फ़िर एक बार जैसे ही पतंगें आपस में फ़ंसी, चारों ओर सन्नाटा सा चा गया। मेरी भी ह्रदय गति बढ गयी थी। लेकिन तभी आश्चर्यजनक रूप से पतंगें अलग भी हो गयी, ऐसा कभी-कभी ही होता है कि पतंगें आपस में फ़ंसने के बाद बिना कटे अलग-अलग हो जायें। जैसे ही पतंगें अलग हुयी वातावरण में एक हर्षध्वनि सुनायी दी। बडी रोमांचक स्थिति हो गयी थी। सारे दर्शक भी दो भागों में बंट गये थे, लेकिन बहुमत लालू की तरफ़ था। लालू अपनी पतंग को बडी सावधानी से ढाका की पतंग के इर्द-गिर्द घुमा रहा था। इस बडे मुकाबले में कोई भी जोखिम लेने को तैयार नहीं था, अत: पेंच करने में देरी हो रही थी। तभी टेंटु लालू को ललकारता हुआ सा बोला,



दरपोक तुत्ते, पतंग आगे बला।   



वैसे ऐसे मामलों में ढाका भी चुप नहीं रहता था, परन्तु आज वो अपना ध्यान बस पतंग में रखना चाहता था, इसलिये वो कुछ नहीं बोला। हमें ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पडा, दोनों पतंगें फ़िर से फ़ंस गयी। फ़िर एक खींचा-तानी सी आसमान में दिखायी देने लगी। कभी दोनों पतंगे हमारी तरफ़ की ओर आ जाती, तो हमारी तरफ़ वाले बच्चे चिल्लाने लगते, और कभी उस ओर जाने लगती तो वो उनकी तरफ़ शोर बढ जाता। वो तो ढाका ने तार लगाया हुआ था वरना अब तक तो हमारी पतंग कब की शहीद हो चुकी होती। अभी एक मिनट भी नहीं हुआ होगा, और पतंगें अभी फ़ंसी ही थी तो क्या देखा कि लालू की और शन्नाटा छा गया था। हम लोगों ने उसकी ओर मुड के देखा तो लालू का हाथ पतंग नहीं उडा रहा था बल्कि वो तो अपनी चर्खी लपेटने लग गया था। इसका मतलब उसकी पतंग कट चुकी थी।  हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, हम सब पूरे जोर से चिल्ला उठे। लेकिन तभी क्या देखते हैं कि लालू की पतंग अभी भी आसमान में उड रही है, वह एक कटी पतंग की तरह नीचे नहीं आ रही थी। पतंग लूटने वाले बच्चों का दल निराशा से भर उठा था क्योंकि पतंग कटने की बाद भी आसमान में उड रही थी जो की पतंग लूटेरों के लिये शुभ-संकेत नहीं था। 



हुआ ये था की लालू की पतंग की डोर हमारी पतंग में लगे तार की गांठ में फ़ंस के रह गयी थी। अब दोनों पतंगों को एक ही डोर से ढाका उडा रहा था। यह देखकर सब देखने वालों ने दांतो तले उंगली दबा ली, क्योकि पतंग काटना तो एक बात होती है पर विपक्षी पतंग को काटकर अपनी पतंग में उलझा कर ले आना बडे-बडे पतंगबाजों की भी नहीं आता है। ऐसी घटना को पतंगबाजी में ‘पतंग लुप्झाना’ कहते हैं। हमारी खुशी तो दोगुनी हो चुकी थी। ढाका ने भी विपक्षी खेमें की ओर मुडकर, एक अश्लील इशारा करते हुए, टार्जन की सी आवाज निकाल कर बडे जोर से विजयनाद किया। हम जीत चुके थे वह भी समग्र रूप से, लालू की तो जमानत भी जब्त हो चुकी थी।  



अब ढाका दोनों पतंगो को सावधानी से नीचे उतारने लगा और मैंने चर्खी पर डोर को लपेटना शुरु किया। अब लालू की पतंग रूपी जीत की निशानी को सुरक्षित अपने कब्जे में लेना अंतिम कार्य था। दोनों पतंगें अब जमीन से थोडी ही दूर थी कि अचानक मुझे लगा कि मुझे किसी ने बडी जोर से ढाका की ओर धक्का दिया। और मैं ढाका के उपर जा गिरा हुं। को अद्रश्य सी शक्ति मुझे खींचे जा रही है।ढाका भी जोर जोर से चिल्ला रहा था।  तभी अंतिम झटका लगा और, मैं और ढाका दोनों एक बडे जोर के धक्के से बहुत दूर जा गिरे। मेरा तो दिमाग चकरा रहा था और आंखे भी बंद सी होने लगी थी। मेरे नजदीक पडे हुये ढाका का भी यही हाल था। ऐसा लग रहा था कि शरीर में कुछ भी शक्ति नहीं रही। बेहोश होने से पहले मैने टेंटु को बदहवाश हालत में चिल्लाते हुए सुना कि,


धाका औल इंस्पैत्तर को तरेन्त लग गया।


इसके बाद जब मुझे होश आया तो मुझे इतना याद है कि मैं निढाल हो कर अस्पताल के बिस्तर में पडा हुआ था। ऐसा अनुभव हो रहा था कि जैसे किसी ने पकड के मुझे झकझोर दिया होअपना सिर या हाथ हिलाने की सामर्थ भी मुझमें नहीं थी। मेरा मस्तिष्क तो अभी तक भन्ना रहा था।  मैं बस लेटेलेटेआसपास खडे  लोगों की आवाज सुन पा रहा था, और बीच बीच में कभी फ़िनाईल और दवाइयों की मिश्रित गंध मेरे नाक तक पहुंच रही थी। तभी शायद  डाक्टर साहब कमरे में आये तो नर्स मेरी ओर लपकते हुये उनसे बोली 

डाक्टर साबये दो लडके पतंग उडा रहे थे और पतंग  बिजली के पोल में छु गयी और दोनो को बडे जोर का करंट लगा है। एक लडके को ज्यादा जोर का झटका लगा है,  चेहरा भी काला पड चुका है और बाल भी अभी तक खडे हैं। 

जैसे ही नर्स ये की बात मेरे कानों में गयीमेरी तो रुलाई ही फ़ूट पडी। मुझे  ढाका का चेहरा याद  या और लगा कि अब मैं भी वैसा ही दिखने लगुंगावो भी हमेशा के लिये।  मैं स्वय़ं को रोक नहीं पाया और मेरी आंखों से गंगा जमुना बहने लगी। मेरी आंखे बंद थी पर मैं अनुभव कर सकता था कि आंसू मेरी आंखों से बहकरकान के पीछे से होते हुए मेरे गर्दन तक पहुंच रहे थे। तभी डाक्टर साहब की आवाज सुनाई दी,


अब कैसा महसूस कर रहे हो?


मुझे लगा कि डाक्टर साहब मुझसे पूछ रहे हैं, और मैं कुछ बोलता इससे पहले ही ढाका कि आवाज कानों में पडी,


डाक्टर साबचक्कर से आरे हैंगेबांकी सब ठीक हैपर आप पहले इंस्पेक्टर साब को तो देख लो। 


इंस्पेक्टर, ये इंस्पेक्टर कौन है भाई
(डाक्टर साहब थोडा सा आश्चर्य चकित होकर इधर-उधर देखते हुये बोले)


अरे डाक्टर साब! आप इधर उधर कहां देख रहे हैंगे, ये बगल में तो लेटे पडे हैंगे। इनका नाम हैगा इंस्पेक्टर 


ढाका ने अपने बिस्तर से उठते हुए मेरी ओर इशारा करके डाक्टर को बताया।


लेटे रहोलेटे-लेटे बताओ,  अरे इनकी चिन्ता मत करो, तुम अपने चिन्ता करो। अच्छा अगर ये इंस्पेक्टर हैंगे तो आप कौन साब हैंगे? 
(डाक्टर साहब भी मजाक के अंदाज में बोले।) 


अपुन तो ढाका  हैगाडाटर साब, वैसे सारे लोग मुझे ढाका डान कहते हैंगें। मेरे पिताजी कहते हैंगे की मैं डान फ़िलिम के ‘अमिता बच्चन’ सा दिखता हुंगा,  बचपन में।


अच्छा ये बताओ की तुम दोनो को करंट कैसे लगा?


डाटर साब वो हम दोनों पतंग उडा रिये थे की पतंग बिजली के पोल में फ़ंस गयी और करंट लग गया हैगा। 


अरे भाईपतंग तो मैने भी बचपने में खूब उडायी हैं और मेरी पतंग भी कई बार बिजली के खंभों में फ़ंसी थीपर मुझे तो कभी करंट नहीं लगा। 


अरे डाटर साबआप पतंग सद्दी से उडाते होगे पर हमारे यहां पतंग तांबे के तार से उडाते हैंगे ना। 


तार से पतंग !!! उडा रहे थे? और ये तुम्हारी हाथ की अंगुलियां कैसे जख्मी हुयी?


अरे डाटर साब! वो कल पतंग ब्लेड लगा के उडायी थी ना, जे ही में हाथ कट गया हैगा।


मुझे पूरा विश्वास है कि यह सुन कर डाक्टर साहब को एक बडा झटका जरूर लगा होगा। वो भी समझ गये होंगे कि ये बच्चे तो साक्षात शैतान का रूप हैं। लेकिन मुझे तो अपने  चेहरे और सिर के बालों की चिन्ता हो रही थी कि तभी ढाका कि आवाज फ़िर से सुनायी पडी,


डाक्टर साब ये नर्स मैडम जी कै री हैंगी कि करंट से बाल खडे हो गये हैंगे और रंग भी काला पडा गया हैगा।  पर डाक्टर साब मेरे बाल तो बचपन से ही खडे हैंगेये तेल लगा कर भी नहीं बैठते हैंगे। 


जैसे ही मैंने ये सुना तो जान में जान आयी कि ज्यादा करंट लगने वाला बच्चा मैं नहीं हूँ.  मैं तो बिना बात के ही रोये जा रहा था। वह नर्स तो ढाका के बारे में बता रही थी और मुझे लगा कि शायद करंट लगने की वजह से मेरा चेहरा काला पड गया हो और बाल भी खडे हो गये होंजैसा कार्टून फ़िल्मों में  दिखाते हैं। शायद नर्स ढाका के हमेशा खडे रहने वाले बालों और श्याम रंग को देखकर धोखा खा गयी थी। आधे से ज्यादा स्वस्थ तो मैं यह बात सुनकर ही हो गया था।    



थोडी देर में ही हमें अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी थी। मेरे पिता जी ही हम दोनो को अस्पताल लेकर आये थे। डाक्टर ने निकलते समय हमें सावधान किया था कि आगे से पतंग तार से ना उडायें। मौका लगते ही ढाका ने भी डाक्टर साहब से अपने सिर के खडे बालों को बैठाने का उपाय भी पूछ लिया। डाक्टर साहब ने कहा किखडे बालों को बैठाने के लिये तो बालों का आपरेशन करना पडता हैलेकिन वो पच्चीस वर्ष की आयु के बाद होता है। जब पच्चीस साल के हो जाओ तो  जाना। 


पिताजी ने घर आते समय हम दोनों की आईस क्रीम भी खिलाई, और समझाते हुए कहा था कि आइंदा ऐसे खतरनाक काम ना करेंपतंग उडानी है तो सावधानी से उडायें। ढाका मेरे पिताजी से बोला
           

अंकलआप परेशान मत हो ये तो होनी थी, जब-जब जो-जो होना हैतब-तब सो-सो होता है। 


पिता जी एक बच्चे के मुंह से ऐसी बात सुनकर हैरान हो गये,

वाहबहुत बडिया बेटाक्या तुमने तुलसी की रामायण ढी है


नहीं अंकल कभी मौका नहीं मिला हैगापर पापा से सुना था कि अब कहां तुलसी के चाहने वाले लोग रहे।  


नहीं बेटाऐसी बात नहीं हैतुलसीदास तो रामचरित मानस लिख के अमर हो गये हैं उनके चाहने वाले तो आज भी अनगिनत हैं। 


पिता जी को लगा कि ढाका ने तुलसीदास रचित रामचरित मानस के दोहे, ''होई है सोई सो जो राम रचि राखाको करी तरक बडावहिं शाखा'' की बात की थी। ऐसी दार्शनिकों वाली बात एक बच्चे के मुंह से सुनकर तो मेरे पिताजी ढाका से प्रभावित होए बिना नही रह सकेऔर थोडी से नसीहत मुझे भी मिल गयी कि देख कितना समझदार बच्चा हैकुछ सीख ससे। 


मैं मन ही मन सोच रहा था कि तार से पतंग उडाने का आईडिया भी तो इसी समझदार बच्चे ने ही दिया था। लेकिन ये बात मेरे गले से नीचे नहीं उतर रही थी कि ढाका इतनी बडी-बडी बातें कैसे जानता है। अगले दिन जब ढाका आया तो मैने पूछा,


क्यों बेतू तुलसीदास की रामायण के बारे में क्या जानता है?


अबेतुलसीदास नहीं तुलसी हैगा उसका नाम और मैं क्या हमारे कालोनी का बच्चा-बच्चा जानता हैगा तुलसी के बारे मे। और उसके घर में कोई रामायण नहीं पढता हैगा। उसके घर में तो महाभारत होती हैगी आये दिन।


तु किस तुलसी की बात कर रहा है बे?


हमारे कालोनी में ही तो रहती हैगी। सबसे फ़ेमस आईटम  हैगी अपनी कालोनी कीसारे लडके उसके पीछे ही पडे रहते हैंगे। पर पिछले साल एक ट्रक ड्राईबर के साथ भाग गयी हैगी और अभी कुछ महीने पहले ही लौट  के वापस आयी हैगी। पर अब तुलसी के चाहने 
वाले नहीं रहे हैंगेऐसा मेरे पापा कै रे हैंगे किसी से जभी मैने सुना। 


अच्छा, तो तुने वो कहां से सीखा कि जब-जब जो-जो होना हैतब-तब सो-सो होता है। 


अरे यार वो बिन्दु का डैडी बिन्दु की मम्मी से कै रिया हैगा। 


हे भगवानअब ये बिन्दु कौन है?


अरे यार बिन्दु तो शायरा बानो हैगीदिलीप कुमार की बीबी।


तु शायरा बानो के घर कब गया?


अरे मेरे भाईतु सवाल बहुत पूछ्ता हैगा। 'पडोसन' फ़िलिम देखी है 


नहीं देखी।  


तो सुन पडोसन फ़िलिम में बिंदू (शायरा बानोजब भोला (सुनील दत्तसे शादी करने को मना कर देती हैंगी जभी तभी टकलू मास्टर जी (महमूदआते हैंगे। तो बिन्दु अपने डैडी से कहती हैगी कि मैं तो मास्टर जी से ही शादी करुंगी। तब बिन्दु के डैडी बिन्दु की मम्मी से कैते हैंगे कि जब-जब जो-जो होना हैतब-तब सो-सो होता है। समझे इंस्पेक्टर साब। 


तभी टेंटु दौडता हुआ आया और ढाका से बोला

ओए धाका, तल मेली सम उताल, सब को पता तल दया है कि तुम दोनों ने ताल से पतंग उलायी थी, आज के अतबार में तपा है ति दो बच्चों तो तरंट लगा है।



हरी सुपारी वन में डाली, सीता जी ने कसम उतारी हैगी 


उस साल टेंटु फ़ेल भी नहीं हुआ। लेकिन हम लोगों ने फ़िर कभी पतंग ना उडाने की कसम खायी वह भी विद्या-रानी की।