Monday 30 August 2010

दिसंबर की रात

इस हफ़्ते समय का अभाव रहा, इसलिये ढाका का नया भाग नहीं लिख सका, तो एक पुरानी घटना का वर्णन कर रहा हुं। जल्दी ही ढाका के आगे के भाग प्रस्तुत करूंगा। 
सुधीर



दिसंबर की रात 

दिसंबर का महीना और कंप-कंपाती रात में हम लोग अपने मित्र के बडे भाई के विवाह समारोह के सामूहिक भोज (रिस्सेपसन पार्टी से) वापस लौट रहे थे। मोटर साईकल मैं चला रहा था और मेरा छोटा भाई, निर्मल, पीछे बैठा हुआ था। यद्यपि मैं कई बार मोटर साईकल को गिरा चुका था पर निर्मल कभी भी मेरे चलाने पर विरोध नहीं करता, बडे भाई होने के कुछ फ़ायदों में से यह एक था।
जब तक आप विवाह समारोह में होते हैं और चारों तरफ़ चहल पहल, हल्ले–गुल्ले और  भीड-भाड के बीच समय का पता नहीं चलता है। एक बार जैसे ही बारात दूल्हन के घर पहुंची और खाना शुरु हुआ कि नहीं भीड छंटनी शुरु हो जाती है। बात भी सही है, एक तो बारात हमेशा देर से ही पहुंचती है उपर से हम, हम क्या ज्यादातर लोग,  तो घर से बिना कुछ खाये ही निकलते हैं कि भाई विवाह में भी तो कुछ खाना है, जब पैसे दे रहे हैं तो खाना भी जम के खाना चाहिये।

तो साब!  बारात पहुंची नहीं कि बच्चे, बुढ्ढे और जवान सभी खाने पर ऐसे टूटते हैं कि जैसे खाना है थोडा सा और क्षण भर की देर भी आपको भूखा मार सकती है। तो हम दोनो ने जल्दी से खाना खाया और निकलने की तैयारी करने लगे क्योंकि रात के साढे बारह बज चुके थे और हम थोडा लेट थे। इस बात को लगभग आठ साल हो गये हैं अत: उन दिनो मोबाइल फ़ोन प्रचलन में नहीं थे। तो मैं और निर्मल सारे मित्रों से मिलकर निकलने लगे तो पास बैठे बुजुर्गों ने कहा कि दूर का रास्ता है और रात बहुत हो चुकी है इसलिये रात यहीं रुक जाओ और शादी देखो या फ़िर कहीं थोडी जगह देख कर सो जाओ और कर कल निकल जाना।

ये विवाह नैनीताल में हो रहा था। नैनीताल से हल्द्वानी की दूरी लगभग चालीस किलोमीटर होगी, चु्किं यह पूरा रास्ता पहाडी और घुमावदार है अत: कार या मोटर साईकिल से जाने में सामन्यत: एक घन्टा लग जाता है। हमें लगा रात का समय है, रास्ता खाली होगा तो और जल्दी पहुंच जायेंगे और फ़िर मुझे अगली सुबह दिल्ली के लिये ट्रेन भी पकडनी थी। यद्यपि घर में कह कर आये थे कि रात को वहीं सो जायेंगे और सुबह तडके पांच बजे निकल कर छ: बजे तक हल्द्वानी पहुंच जायेंगे और मेरा सा्मान तैयार था इसलिये नौ बजे ट्रेन पकडने में कोई समस्या नहीं होगी। मैने निर्मल से पूछा कि क्या करें, चले या रुकें? तो निर्मल ने भी सहमति दी की चलते हैं, रात में मोटर साइकिल से पहाडों में जाने का मजा भी आयेगा। यह बात ने मुझे भी आकर्षित किया कि यदि पहाडों में दिन में यात्रा करना इतना मजेदार होता है तो सूनसान, सुहावनी रात में तो और भी आनंद आयेगा। जब रात में ही निकलने का विचार पक्का हो ही गया तो हम दोनो गर्म गर्म काफ़ी पी कर यात्रा पर निकल गये।
ठंड जबर्दस्त पड रही थी, नैनीताल बाजार से गुजरते समय कंबल लपेटे हुये दो चार लोग रास्ते में दिख गये थे। शहर की बाहरी सीमा पर बनी पुलिस चौकी के नजदीक पहुंचते हुये इस बात का डर लग रहा था कि यदि किसी पुलिस वाले ने देख लिय तो नि: संदेह रोक लेगा और फ़िर वही घिसे फिटे सवाल,
कहां से आ रहे हो?  कहां जा रहे हो इतनी रात गये? अभी नहीं जा सकते, वगैरह वगैरह।

लेकिन शायद भाग्य अच्छा था, नाके के पास बिजली का बल्ब तो जल रहा था पर चौकी के आसपास कोई दिखायी नहीं दिया। इतनी ठंड में कौन आ रहा है यह सोच कर सिपाही भी सो गये होंगे। ऐसा लगा जैसे कि आधा युद्ध तो यहीं जीत लिया, सो चौकी के बगल से गुजरते हुए मैने उत्साह में मोटर साइकिल की गति कुछ ज्यादा ही बडा दी थी। इसीलिये  पीछे निर्मल बोला भाई संभल कर, कोई जल्दी नहीं है आराम से। नैनीताल का पहाड, समुद्र तट से लगभग साढे चार हजार मीटर की उंचाइ पर  स्थित है और यह पर्वत श्रंखला हिमालय पर्वत की शिवालिक श्रेणी पर आती है। अंधेरी रात में सरपट मोटर साईकिल चलाने का अनुभव बडा रोमांचाकारी प्रतीत हो रहा था। आसमान में चमकते तारे ऐसे दिखते जैसे हमारे सामने ही हों। ये रात शायद चत्तुर्दशी थी क्योंकि चन्द्रमा अपनी पूरे रूप में तो नहीं था परन्तु पूर्णता के बहुत नजदीक था। इस पहाडी नेशनल हाईवे पर बिजली के बल्ब नहीं लगे हैं फ़िर रास्ता साफ़ दिख रहा था। चन्द्रमा के प्रकाश में आस पास के पहाडों पर दूर-दूर छितरे हुए छोटे छोटे घर और जंगल भी दिखाई पड रहे थे। धुंधली रात में रास्ते के पेड और उनकी हिलती हुई टहनियां कभी किसी जंगली जानवर का तो कभी हमारी और बडते किसी विशालकाय आदमी का आभास देती और झिंगुरों की गुंजती आवाज इस द्रश्य को जीवंत और डरावना बना देती। निर्मल का तो पता नहीं पर मुझे समझ में आ रहा था कि क्यों बडे बूढे रात में यात्रा करने से मना करते हैं। ठंडी हवाओं के बीच तो ऐसा लग रहा था कि कैसे घर पहुंच जाये, कभी-कभी मन में विचार आ रहा था कि शायद गलती की रात को वहीं रुक जाना चाहिये था। कहते हैं कि मन आने वाले संकट को पहले ही भांप जाता है।   

हम लोग लगभग पंद्रह किलोमीटर की यात्रा कर चुके थे। मोटर साइकिल की गति बडाने पर ठंडी हवा और भी कडक प्रतीत हो रहे थी तो मुझे लगा कि यदि मोटर साइकल के इंजन को बंद कर ढलान के साथ धीरे धीरे चला जाये तो तेल भी बचेगा और ठंड भी कम लगेगी लेकिन इस स्थिति में हेड लाइट बंद हो जाती है। लेकिन खाली रास्ते में चन्द्रमा की रोशनी  चलने के लिये पर्याप्त थी। निर्मल ने भी मोटर साईकिल को न्युट्रल करने में कोई  आपत्ति नहीं जताई सो मैने इंजन को आफ़ कर दिया। अब मोटर साइकिल का इंजन बंद होते ही वातावरण शांत हो गया। मोटर साईकिल की  गरजती आवाज जो पहले इस सूनी रात में हमारी उपस्थिति का संकेत दे रही थी अब शांत हो चुकी थी। अब हम भी इस घने जंगल और सूनसान रात  का एक हिस्सा बन गये थे। जैसे रात में नदी का पानी बहता रहता है उसी प्रकार हम दोनो इस संकरी पहाडी सडक पर चुपचाप फ़िसलते हुए से आगे बडते जा रहे थे। अब हम ज्योलिकोट का छोटा सा बाजार पार कर रहे थे। यहां छोटी छोटी दुकाने, जिनमें मुर्गे का अचार और बुरांश और लीची का शर्बत मिलता है और एक घर के उपर बनी स्टेट बैंक की छोटी सी शाखा। ज्युलिकोट से हम लगभग पांच किलोमीटर आगे निकल आये थे। ये घने जंगल वाला क्षेत्र था  जिसे भुजिया घाट कहते हैं। यहां पहाडों की घाटी पर एक दो छोटे छोटे गांव हैं। मुख्य सडक से जब आप पगडंडियों से नीचे घाटी में उतरतें हैं तो लगभग पच्चीस मिनट चलने के बाद एक छोटी नदी आती है, इस नदी पर बने पुल के पार पहाड के दूसरी ओर तीन किलोमीटर बाद छोटा सा गांव है।

दिन के समय गांव के लोग सडक के किनारे बैठकर खीरा, भुनी हुई मक्का और सब्जियां बेचते हैं। खेती ही इन पहाडी लोगों का मुख्य व्यवसाय होता है। टिन के बने हुये ये छोटे छोटे शेड अभी रात में ऐसे वीरान पडे थे कि जैसे वर्षों से यहां कोई नहीं आया हो। हम दोनो विवाह समारोह की बातें करते हुये घनी रात में आगे बढते जा रहे थे, तभी मैने देखा कि एक काला कंबल ओढे क्रशकाय, लंबा सा आदमी अचानक मोटर साइकिल से सामने आ गया और हाथ से रुकने का इशारा करने लग। यह घटना इस तीव्र मोड पर इतनी जल्दी से घटी कि मोटर साईकिल गिरते गिरते बची। आधी रात गये किसी व्यक्ति का इस घने जंगल में होना मेरे लिये आश्चर्य करने वाला था।  इसीलिये इस पूरी घटना के दौरान मैं कुछ हडबडा सा गया था। निर्मल भी चौंक गया था और मुझसे बोला कि क्या हुआ, उसको लगा कि मुझे नींद आ रही है, इसीलिये मेरा संतुलन बिगडा। मैं निर्मल कहा, देख कैसा पागल सा आदमी था, साला! अपने आप तो मरेगा और दूसरे को भी मरवायेगा। निर्मल बोला,

कौन आदमी?         

अरे ये अभी जो अचानक सामने आ गया था,

नहीं, मुझे तो कोई आदमी नहीं दिखाई दिया। लगता है तुझे नींद आ रही, ला मोटर साईकिल में चलाउं। हां, लेकिन एक काला कंबल ओढे, पतला सा आदमी मैने ज्योलोकोट के पास देखा था। लेकिन वो इतनी जल्दी यहां हमसे पहले कैसे पहुंच सकता है?

ये दूसरा होगा। मैने कहा पर मैं महसूस कर सकता था कि मेरी ह्रदय गति कुछ ज्यादा ही तीव्र हो गयी थी, शायद अब हम सबसे ज्यादा घने रास्ते से गुजर रहे थे और वो बूढा मेरे मस्तिष्क में अभी भी घूम रहा था। हमारे शरीर में छोटे छोटे बाल होते हैं जिन्हें रोम कहते हैं, ये कंपकपी के दौरान खडे हो जाते हैं, और मैं महसूस कर सकता था कि मेरे रोम भी खडे हो गये थे।  अभी मेरी हालत यह थी कि मैं सडक के अलावा इधर उधर देख ही नहीं रहा था। संभवत: मुझे इस बात का डर लग रहा था कि कहीं वो बूढा फ़िर से ना दिख जाये। रात में सडक के साथ बहती नदीं, जो कि सडक से लगभग आधा किलोमीटर नीचे जाकर थी, कि ध्वनि रात के अंधेरे को और गहरा कर दे रही थी। इस स्थान के आस पास दस किलोमीटर के घेरे में तो कोई गांव भी नहीं है, यह बात मेरे दिमाग में अचानक आयी। तो यह बू्ढा रात के सवा एक बजे जा कहां रहा था?

तभी निर्मल बोला कि दद्दा एक मिनट के लिये रुक जा, बहुत जोर से लघु शंका आ रही है। ठंड तो थी ही और मुझे भी लगा की मूत्र विसर्जित कर लिया जाय क्योंकि अभी हल्द्वानी पहुंचने में आधा घंटा था। एक जगह थोडी चौडी सडक देख कर मैने मोटर साइकिल रोक ली और हम दोनो उतर के अपनी शंका समाधान करने लगे। हम दोनों ने एक दूसरे की तरफ़ अपनी पीठ कर रखी थी और बस दो कदम की दूरी पर खडे थे।  मेरा चेहरा पहाड से नीचे घाटी की तरफ़ था। चन्द्रमा के प्रकाश में दूर दूर तक छोटे बडे पहाड और नीचे बहती नदी दिख रही थी। बडा शांत और सुंदर द्रस्य था, तभी मुझे नीचे पहाड की तलहटी पर कुछ हलचल सी  होती दिखाई दी। ध्यान से देखा तो एक काला साया सा 
चलता नजर आया, मुझे लगा कोई जंगली जानवर है, तो उत्कुंठा हुई कि अखिर क्या है?
मुझे लगा कि निर्मल को भी दिखाउं, उसको बताने के लिये मैं जैसे ही पीछे मुडा, तो क्या देखा कि 

निर्मल मुझसे लगभग बीस पच्चीस कदम की दूरी पर है। मुझे कुछ समझ नहीं पाया कि आखिर हम दोनो एक दूसरे से इतनी दूर कैसे चले गये, हम तो बस दो कदम की दूरी पर खडे थे। निर्मल का चेहरा दूसरी तरफ़ था।  
‘’क्या हुआ? कहां जा रहा हैं’’, मैने पूछा ?

मैं दौडकर उसके पीछे गया और देखा कि उसकी आंखे नीचे की और देख रही थी. मैने पूछ कि कहां जा रहा है? उसके चेहरे पर हवाईयां उडी हुई थी,वह कांपती आवाज में बोला,

दद्दा! मेंने ज्युलिकोट वाला बुड्ढा अभी मेरे सामने देखा, वह वही था। वह अभी अभी इस जगह से नीचे को गया है। वह हाथ के इशारे से मुझे अपनी और बुला रहा था। उसकी आंखों में आग सी जल रही था और वह हवा के साथ उड सा रहा था।

ऐसा लग रहा था कि जैसे उसके पांव जमीन पर नहीं थे। यह सुन कर मुझे ऐसा लगा कि मेरे पैर वहीं पर जम गये हैं और पेट में कुछ अजीब सा होने लगा। मैने एक बार अपने जगह पर खडे खडे ही उचक कर नीचे की ओर देखने की कोशिश की, वहां तो कुछ नहीं था। लेकिन कुछ हलचल सी हो रही थी। झिंगुरों की आवाज अब और तेज होने लगी थी। मैने निर्मल को हाथ से हल्का सा धक्का देते हुऐ कहा चल दौड लगा और हम दोनो मोटर साईकिल की और दौड पडे।

जैसे ही मोटरसाईकिल में बैठे कर उसे स्टार्ट करने की कोशिश कि, मोटर साईकिल स्टार्ट ही नहीं हुई। तभी क्या देखते हैं कि सामने पहाड से एक लाल रंग का साया सा नीचे हमारी तरफ़ आ रहा है। घास और झाडियों के कारण उसका केवल उपरी भाग ही दिख रहा था और ये परछाइ ऐसे चलती हुई सी दिख रही थी कि जैसे कटी हुई पतंग हवा के साथ साथ नीचे आती है। मेरा ह्रदय ऐसे धडक रहा था कि जैसे अभी फ़ट पडेगा। हम दोनो के चेहरे तो ऐसे हो गये थे कि काटो तो खून नहीं। मुझे याद नहीं इस बीच में मैने मोटर साईकिल को स्टार्ट  करने के लिये ताबडतोड कितनी किक मार चुका था। थोडी देर में यह साया ना जाने कहां गायब हो गया। तभी निर्मल ने धक्का मार के इस आस में मोटर साईकल को आगे को बडाया की शायद ये शुरु हो जाये पर सारे प्रयास असफ़ल रहे।  इस प्रयास में हम लोग सडक में थोडा आगे तक बड गये थे, जहां से घाटी का द्रश्य साफ़ दिखाई दे रह था। चन्द्रमा का प्रकाश इतना भी नहीं था कि सब कुछ साफ़ साफ़ दिखाई पडे, पर इतना हमें दिख रहा था कि नीचे घाटी में कु्छ हलचल सी हो रही थी। हम दोनो ने एक दूसरे को देखा, बोलने को तो कुछ था ही नहीं, और आंखों ही आखों में एक सहमति बनी कि डरने की कोई बात नहीं है, देखते हैं क्या होता है आगे। ध्यान से देखा तो वो लाल रंग की आक्रति नीचे घाटी में रेंगती सी दिखाई दिया और अब वह एक लंबे बालों वाली औरत सा दिखाई दे रहा था। हम दोनों की आंखें विस्मय से घाटी में गडी थी। तभी ऐसा लगा कि हमारे पीछे रोड में भी कुछ चल रहा है। मैं एक झटके से पीछे की और मुडा तभी क्या देखा कि वही बुड्ढा रोड में चला जा रहा था। उसका चूसे हुए आम सा पोपला चेहरा और मुंह में केवल एक लम्बा सा दांत और गंजा सिर। वह अपने ही आप में कुछ बडबडाता सा हुआ हमारी आंखों के सामने से हल्के हल्के निकल गया और हम दोनों मूर्ति से बने चुपचाप खडे रह गये। ठंड इतनी ज्यादा नहीं थी जितना मैं कांप रहा था। लेकिन हमें क्या पता था कि ये तो बस शुरुआत ही थी।              
तभी अचानक नीचे घाटी से आती किसी सियार या फ़िर भेडिये की हुंकार ध्वनि ने पूरे वातवरण की शांति को चीरकर रख दिया। आस पास की झाडियों से आती झिंगुरों की आवाज भी एक क्षण के लिये ठहर सी गयी और उस घने पेड से उडे किसी पक्षी के पंखो की फ़ड-फ़डाहत से रात की गंभीरता का पता चला। और फ़िर इसके बाद दो, तीन चार और ना जाने कितने भेडिये एक साथ हुंकार भरने लगे और धीरे धीरे हुंकार गुर्राहट में बदल रही थी। उनकी आवाजों से ऐसा लगा कि भेडियों का झुंड किसी शिकार की टोह में घूम रहा था और अब शिकार मिलने पर उस पर टूट पडा है। भेडियों की आवाजों से साफ़ पता चल रहा था की वे किसी शिकार को घेरकर उस को नोंच रहे हैं। 

एक बार मन करा कि इस बंद मोटरसाईकिल को छोड के दौड लगा दें, जीवन रहा तो कई खरीदी जा सकती हैं। लेकिन भागे तो आखिर किस तरफ़, एक तरफ़ पहाड और दूसरी तरफ़ खाई, और ये घनी अंधेरी, सूनसान, कातिल रात। अब मुझे समझ में आया कि नीचे घाटी में जो हलचल हो रही थी वो ये भेडियों का झुंड चुपचाप शिकार की तलाश में था। अभी तक ऐसा किताबों में पढा था, टीवी पर देखा था, या फ़्रिर बडे बुजुर्गों की किस्सों कहानिय़ों में सुना था। आज पहली बार ऐसी स्थिति से साक्षात्कार हुआ था।

उसी क्षण, अचानक सियारों की गर्विली हुंकार अब रोने की आवाजों में बदल गयी और धीरे धीरे ये आवाज गहराने लगी ऐसा लगा की भेडियों का झुंड किसी आपत्ति में फ़ंसा हुआ है या किसी से डर रहा है। फ़िर वही हुआ जिसका बात डर मुझे लग रहा था। फ़ुर्तीले, निडर, खूनी भेडिये भी किसी ऐसी चीज की उपस्थिति से हार मान चुके थे, जो संभवत: उनसे भी डरावनी और खूंखार थी। भेडियों की हुंकारती आवाजें भी धीरे धीरे रात की अंधेरें में कहीं खो गयी। फ़िर वही शांत रात, डरावनी घाटी और बूढा पहाड। तभी इस बार किसी के चलने की आवाज हमारे पीछे से आयी, मेरा तात्पर्य नीचे घाटी की और से आयी। ऐसा लगा की नीचे घाटी से कोई उपर की ओर आ रहा है।  अचानक अंधेरा और घना हो गया था, मैने उपर आसमान की और देखा तो दिखा कि उडते बादलों का एक समूह चंद्रमा को अपने आगोश में ले चुका था। नीचे झाडियों में से एक मानव आक्रति ऊपर की ओर आती हुई प्रतीत हुई और अब ये हमारी और बडने लगी थी। मेरी ह्रदय गति अत्यधिक तीव्र होने लगी थी और दिमाग ने तो काम ही करना बंद कर दिया था। नि: संदेह निर्मल की अवस्था भी कुछ अलग नहीं थी लेकिन आने वाले संकट को भांपते हुए निर्मल और मैं एक दूसरे के नजदीक आ गये। डर तो लग रहा था परन्तु सामना करने के सिवा दूसरा रास्ता भी नहीं था। वह मानव आक्रति हमारे और निकट आते जा रही थी तभी मस्तिष्क में एक विचार आया और मैने फ़ुर्ती से निर्मल का हाथ खींचकर हम दोनों को मोटरसाईकिल के पीछे ले लिया। अब हमारे सामने एक अवरोधक था जो उस मानव आक्रति को एक क्षण के लिये रोक सकता था।

वह आक्रति हमसे लगभग पंद्रह कदम दूर रुक गयी, और एक गरजती गंभीर आवाज कानों में पडी,

डरो मत! जितना डरोगे, ये शक्तियां उतना ही शक्तिशाली होती जायेंगी।

हमारी बोलती बंद हो चुकी थी, गला सूख चू्का था और शरीर में कंपकंपी सी हो रही थी। सामने लाल चादर ओढे, काली लंगोट पहने एक हट्टी-कट्टी आक्रति खडी थी। हाथ में कमंडल और गले में हड्डियों की माला देखकर अंदाजा लगाना असान था कि ये कोई तान्त्रिक था। चन्द्रमा को ढकने वाले बादल दूर जा चुके थे और उस भाव शून्य चेहरे के चारों ओर एक आभामंडल सा तैर रहा था। वैसे मुझे तान्त्रिकों के प्रति ना ही कोई आकर्षण है या ना ही द्वेष, फ़िर भी उस बाबा का विरोध करने का साहस नहीं हुआ। बाबा बोले, 

पीछे मुड के मत देखना, देख नहीं पाओगे।

मुझे ऐसा आभास हो रहा था कि जैसे हमारे पीछे कुछ भारी भरकम वस्तु चल रही है और हमारे निकट से गुजर रही है। बाबा की आंखें हमारे पीछे के द्रश्य पर गडी थी और आंखों में आश्चर्य और क्रोध का भाव था परन्तु मुख पर वही द्रढता थी। थोडी देर में फ़िर वही शांन्ति हो गयी, परन्तु अब डर कम लग रहा था, शायद उस तान्त्रिक की उपस्थिति से। सूनसान ठंड से कडकडाती रात और इस घने जंगल में फ़ंसे हम दोनो भाई, और अब ना जाने ये  तांत्रिक बाबा ना जाने कहां से आ गया।
क्रमश: 
              

1 comment:

Unknown said...

अति उत्तम सुधीर जी ,मै बस इतना ही कह सकता हूँ............