Sunday 31 October 2010

टूटना

आजकल समय का अत्यधिक अभाव चल रहा है, जीवन की आपा-धापी में बैठ कर लिखने का समय बहुत कम मिल पा रहा है, और यदि कभी समय मिलता है, तो लिखने का वातावरण नहीं बन पाता है। ये तो बस कहने की बातें हैं, असली बात है कि मैं ही आलसी हो जा रहा हुं। मस्तिष्क में कई नयें विचार तो चल रहें हैं, पर उन्हें कागज में उतारने के लिये पर्याप्त समय और अनुकूल वातावरण नहीं मिल पा रहा है। आशा करता हुं, जल्दी ही कुछ रोचक लाउंगा।

फ़िलहाल, आज एक थोडा दार्शनिक किस्म की कविता प्रस्तुत है। ये कविता सन २००२ में लिखी थी और कारण ये था कि, हमारे घर में निर्माण कार्य चल रहा था, इसी क्रम में पिता जी एक बडा सा दर्पण लाये थे, जिसें स्नानागार (बाथरूम) में लगाया जाना था। छोटे भाई जिज्ञासा वश उस दर्पण को उठा-उठा कर इधर उधर लगा रहा था। सीधी भाषा में कहिये तो वह उसे घर में इधर उधर नचा रहा था और हुआ वही जिसका डर था। उज्जवल, निर्मल दर्पण को निर्मल ने तोड डाला। दर्पण टूटने के बाद उसे पश्चाताप होने लगा कि इतना बडा और सुन्दर दर्पण को उसने चूर चूर कर दिया। पश्चाताप वश वह उन टुकडों को फ़िर से आस-पास लगा कर, जोडने का प्रयास कर रहा था, उसके उदिग्न अवस्था में उसको समझाने के लिये मैने ये कविता लिखी थी। यह मेरी मात्र दुसरी कविता थी, अत: इसमें पद्यात्मक रचनात्मकता का तो अभाव है, परन्तु विचार और भावों से भरी है। कविता का शीर्षक है, ‘टूटना’।


आज,
नहीं तो कल
आखिर कब तक ?
दर्पण की नियति ही है,
टूटना।

जीवन की तरह,
आज नहीं,
तो कल है रूठना।
दर्पण स्रजन है।
तो जीवन स्वप्न भी है स्रष्टि,
परन्तु न ये सत्य है,
न वो असत्य।

‘’कितना भी जीवंत क्यों न हों,
अंतत: टूटना है हमें'’,
चकनाचूर हुए दर्पण के टुकडे,
कह रहे यह चीखकर,
‘’ हे मानव!,
दुखी ना हो,
हमें देखकर,
क्योंकि,
आज नहीं तो कल,
तुझे भी है रूठना,
अंतत: अटल सत्य, तेरा भी है,
टूटना।

१६ दिसंबर २००२

Thursday 14 October 2010

कायर घर में सोते हैं

सुनने के लिये यहां क्लिक करें




शीत बीतती ठिठुराते ही,
अन्न नहीं जहां खाने को।
उन्हीं गरीबों के पैसों से,
खेल निराले होते हैं।
देश लूटते देश के दु्श्मन
कायर घर में सोते हैं।१


रोटी को जहां तरसे बचपन,
बिकता यौवन कोठे में,
प्यासे रहते गांव नीर बिन,
मधु हाला हम पीते हैं।
देश लूटते देश के दुश्मन,
कायर घर में सोते हैं।२


जात-पात के भेदभाव पर
रोज लडा हम करते हैं।
मंदिर-मस्जिद ध्वंस करे,
और गर्व इसी में करते हैं।
देश लूटते देश के दुश्मन
कायर घर में सोते हैं।३


कागज के चंद टुकडों खातिर,
ईमान को गिरवी रखते हैं।  
वीरों की इस भूमि में अब,
घर-घर जयचंद पैदा होते हैं।
देश लूटते देश के दुश्मन
कायर घर में सोते हैं।४


दहेज बिना अबला जलती,
यहां बेटी कोख में मरती है।
बहनों से राखी बंधवा कर,
हम ही तो रावण बनते हैं।
देश लूटते देश के दुश्मन
कायर घर में सोते हैं।५


भटके हम अपने पथ से,
पश्चिम का पीछा करते हैं।
देव भूमि भारत में देखो,
अब मधु के झरने बहते हैं।
देश लूटते देश के दुश्मन,
कायर घर में सोते हैं।६


हथियार खरीदने हों,
या ताबूत शहीदों के।
देश चलाने वाले अपने,
हर बात में धंधा करते हैं।
देश लूटते देश के दुश्मन
कायर घर में सोते हैं।७


आतंकी मौजें करते जेलों में
नेता रहते प्रतिदिन दौरों में।
हत्यारों की खातिर होती,
जज, तारीख पे तारीख देते हैं।
देश लूटते देश के दुश्मन,
कायर घर में सोते हैं।८


हमारी मेहनत के धन पर,
ये नित घोटाले करते हैं।
लूट रहे हैं अपने हमको,
क्यों हम फ़िर भी सोते हैं?
देश लूटते देश के दुश्मन
कायर घर में सोते हैं।९


सीधी सच्ची जनता लुटती,
इन गुण्डों के बाजारों में।
जनता को ये मूर्ख समझते,
क्यों हम इनको ढोते हैं?
देश लूटते देश के दुश्मन
कायर घर में सोते हैं।१०


शिक्षा, कौशल, ज्ञान नहीं,
बस आरक्षण हम देते हैं।
योग्य जनों को ठुकरा कर,
न्याय कहां का करते हैं?
देश लूटते देश के दुश्मन,
कायर घर में सोते हैं।११


आरक्षण के विष के बदले,
शिक्षा का जो दीप जलाते।
मेहनत करनी पडती सबको,
योग्य युवा ही पूजे जाते।
देश हमारा आगे बढता,
विश्व गुरु हम फ़िर कहलाते।१२


लेकिन अपने नेता हैं जो,
दीमक बन ये रहते हैं।
खून चूसकर देश का अपने, 
स्विस बैंको को भरते हैं।
देश लूटते देश के दुश्मन,
कायर घर में सोते हैं।१३


स्विस बैंको में धरा हुआ
जो धन है इन गद्दारों ने।
देश का पैसा है वो अपना,
क्यों नहीं वापस लाते हैं?
देश लूटते देश के दुश्मन,
कायर घर में सोते हैं।१४


छोटे-मोटे, आस पडोसी
मान हमारा मर्दन करते।
फ़िर भी गांधी के बंदर हम,
झुकते रहते, सहते रहते।
शांति, क्षमा की पूजा करते,
अपमान घूंट का पीते हैं।१५


काश्मीर का जो रोना रोता,
हिंसा का जो कारण होता।
बांध गले में उस कुत्ते के,
घंटी क्यों नहीं देते हैं?
देश लूटते देश के दुश्मन
कायर घर में सोते हैं।१६


काट नहीं क्यों उंगली देते,
जो अरुणाचल पर उठती है।
फ़ोड नहीं क्यों आंखे देते,
बुरी नजर जो रखती हैं।
देश लूटते देश के दुश्मन,
कायर घर में सोते हैं।१७


वीर-विहीन क्या धरती अपनी,
क्यों हम ये सब सहते हैं?
देख दशा अब भारत की,
दिल से आंसु बहते हैं।
देश लूटते देश के दुश्मन,
हम कायर घर में सोते हैं।१८


लुटा नहीं है अभी भी सब कुछ,
जाग जायें यदि अब भी हम कुछ,
जाग उठें जो भरत के बेटे,
सिहों के भी दांत गिनेंगे।
ले आयेंगे अपनी किश्ती,
तूफ़ानों के बीच मोडकर।१९


जन्म दिया जिस भारत मां ने
पाला अपने आंचल जल से।
शीश नहीं अब झुकने देंगे,
प्रण ये आज करें हम मिलकर,
समय आये तो सिद्ध करेंगे
यह धरती वीरों की जननी है।२०


नहीं लडेंगे जात पात पर,
अन्याय का सीना तोडेंगे।
भ्रष्टाचार और आलस को,
आज अभी हम छोडेंगे।  
देश को अपने दिया क्या हमने,
आज अभी हम सोचेंगे।२१

Sunday 10 October 2010

हो सकता है?

यह छोटी सी कविता मैंने सन २००३ में मोतीराम बाबूराम महाबिद्यालय में एक कविता प्रतियोगिता के लिये लिखी थी। कविता प्रतियोगिता का शीर्षक था, ‘हो सकता है’।

इस कविता एक ऐसी स्थिति का वर्णन करती है जिसमें एक हारा और टूटा हुआ मानव अपनी शक्ति पर संदेह कर रहा है। हम कई बार अपने आप से पूछते है कि , क्या .......... संभव ‘हो सकता है’?

यह कविता हमारे इसी संदेह को दूर करती है और हमें मनुष्य की वास्तविक शक्ति (potential) से अवगत कराती है।




हो सकता है?

हे प्राणी! नहीं यह तेरी वाणी,
तुझ से नही यह अपेक्षा,
कि करेगा उस अनंत की उपेक्षा।
तेरी शक्ति ना आदि है ना अंत,
क्योंकि तू भी है उसी का एक अंश।।१

हे मानव! महान, है तू अनंत की संतान,
प्रकाशित है तेरी शक्ति से यह विहान।
हे दुरंत, हे अनंत, हे असीम,
निस्संदेह शक्ति है तेरी निस्सीम।।२

होवे तू निष्काम पर नहीं, निष्कर्म, निष्क्रिय कभी,
निष्ठ हो तु कर्म में, अग्रणी तू धर्म में।
अंतत: पूछता पुन: प्रशन में तुझसे वही,
है अभी कुछ शेष? जो हो सकता है नहीं? ३




अनंत = जिसका कोई अंत ना हो, ईश्वर
विहान = जग, संसार
दुरंत = जिसका पार पाना कठिन हो, अपार
असीम = जिसकी कोई सीमा ना हो
निस्सीम = सीमा रहित, असीम
निष्काम = कामना एवं वासना से रहित, निर्लिप्त
निष्कर्म = बिना काम का
धर्म = सदाचार

Wednesday 6 October 2010

शक्ति दो मां, शक्ति दो

ये कविता आज से चार वर्ष पहले नवरात्रि के पहले दिन लिखी थी। नवरात्रियों के नौ दिनों में मां दुर्गा के नव अवतारों की पूजा अर्चना की जाती है। ये कविता कवि की एक प्रार्थना है मां दुर्गा से। इस शुक्रवार से नवरात्रियां आरंभ हो रहीं हैं, इस उपलक्ष्य में यह कविता प्रस्तुत है जिसका शीर्षक है,  

शक्ति दो मां, शक्ति दो’।  


शक्ति दो मां! शक्ति दो,
अज्ञान छूटे, अभिमान रूठे,
तमस की ये रात टूटे,
शक्ति दो मां, शक्ति दो।१

सत्य की जय हो सदा,
असत्य का हो सर्वनाश,
रहें पथ पर हम अटल,
यह हमें वरदान दो,
शक्ति दो मां, शक्ति दो।२

अमावस निशा के बाद,
अब प्रभा का ज्ञान हो,
नीर क्षीर का हो विवेक,
यह हमें वरदान दो,
शक्ति दो मां, शक्ति दो।३

उन्नति की राह में,
हम निरंतर बडते चलें,
अडिग, अविचल, अखंड होकर,
निर्बाध हम आगे बढें,
शक्ति दो मां, शक्ति दो।४

अज्ञान छूटे, अभिमान रूठे,
तमस की ये रात टूटे,
असाध्य को भी साध्य कर दें,
यह हमें वरदान दो,
शक्ति दो मां, शक्ति दो।५