Saturday 25 September 2010

नया तराना गाता हुं

आजकल लिखने के समय का अभाव हो रहा है, इसलिये आज वीर रस की एक पुरानी कविता प्रस्तुत कर रहा हुं, जिसे मैने अपने जिया-सराय के दिनों में लिखा  था।   




कागज के उजले पन्नों पर, इतिहास पुराना लिखता हुं। 
घनघोर तमस के बीच पुन:, फ़िर नया तराना लिखता हुं।।१ 

भुजदण्डों में शक्ति नयी भरपर्वत को आज हिलाता हुं। 
चक्रव्युह को तोड झलक में, पथ अपना स्वंय बनाता हुं।।२ 

इस बुझती चिंगारी से, लंका में में आग लगाता हुं। 
जंग लगी जंजीर तोड, फ़िर नयी क्रांति मैं लाता हुं।।३ 

आसमान के तारे तोडुं, पत्थर को पिघलाता हुं। 
घनघोर तमस के बीच पुन:, फ़िर नया तराना गाता हुं।।४

तूफ़ानों के बीच आज मैं, नाव अकेले खेता हुं। 
सागर की उडती लहरों से, हंस-हंस के टक्कर लेता हुं।।५

अंगारे भर इस मुठ्ठी में, काल को आज चिढाता हुं। 
नहीं असंभव जग में कुछआओ तुम्हें दिखलाता हुं।।६

फ़ूल पडें या बिजली गिरती, ग्रहण लगे या धरती हिलती। 
बाधाओं पर आज विजय करनया गीत मैं गाता हुं।।७

घनघोर तमस के बीच पुन:, फ़िर नया सवेरा लाता हुं।।

नव पंखों से नयी राह परइतिहास पुनदुहराता हुं। 
वीरों की इस वसुन्धरा में, अध्याय नया लिख जाता हुं।।८ 

आशाओं के दीप जलाकरअंधियारे में चलता हुं। 
वह सुबह कभी तो आयेगी, विश्वास प्रबल मैं रखता हुं॥९

क्रूर काल के कुटिल भाल परनयी कथा नित बुनता हुं। 
अंतस की ये व्यथा त्यागमुस्कान नयी फ़िर धरता हुं।।१०

श्रम के मोती पास अगर हों, मिट्टी में सोना उगता है। 
मरु भूमि में जल क्या है, सागर में सेतु बंधता है।।११

मन में हो विश्वास अटल तोजग को झुकना पडता है। 
अंधियारे के बीच से ही सूरज नभ में चढता है।।१२

घनी रात्री के तोड तिमिर कोनया सवेरा लाता हुं। 

घनघोर तमस के बीच पुनफ़िर नया तराना गाता हुं।।१३

इस कविता को सुनने के लिये नीचे क्लिक करें। 

Wednesday 15 September 2010

कुछ नहीं लिख पाया

इस सप्ताह कुछ नहीं लिख पाया क्योंकि बचपन  का साथी संकल्प तिवारी (चिन्टु), मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में,  एक होलीकाप्टर दुर्घटना में सदैव के लिये चला गया।  इंडियन एयर फ़ोर्स का यह होनहार पायलट, समय की होनहार से हार गया, और छोड गया अनगिनत यादें और बचपन के वो दिन।

कुछ ही दिन पहले संकल्प ने ढाका के बारे में भी कमेंट दिया था,



Gr8 wrk.. 'Dhaka' bhi padhi.. Lage raho inspector.. ;) ;)

मुझे क्या पता था कि ये चिन्टु का अंतिम कमेंट होगा मेरे ब्लाग में, अब तो बस पुरानी स्म्रतियां बार-बार  सजीव हो रही हैं। बचपन में वो साथ कामिक्स पडना, पतंग उडाना, क्रिकेट खेलना या फ़िर होली का रंग तैयार करना।
पहली बार लग रहा है कि शब्द कम पड रहे हों।

इस वीर सिपाही के माता-पिता को नमन जिन्होने अपने एकमात्र संतान को देश सेवा के लिये दान दे दिया। ईश्वर से यही प्रार्थना की अंकल-आंटी को इस दु;ख को सहने की  शक्ति दे। 

धन्य है संकल्प और धन्य है भारत भूमि जो ऐसे सपूतों  को जन्म देती है। 

श्रद्वांजलि उस कभी ना लौट के आने वाले एक सच्चे, वीर  भारतीय बेटे को। 








 

Thursday 9 September 2010

रावण की सीख (Tips)


श्रीराम को जैसे ही विभीषण ने बताया कि रावण कि नाभि में अम्रत है और उसी के कारण रावण अपराजेय है। तो प्रभु राम ने एक बाण छोडकर रावण की नाभि का अम्रत सुखा दिया और अगले ही बाण में रावण धराशायी होकर रणभूमि में गिर पडा। यह देखते ही सम्पूर्ण वानर दल में खुशी की लहर दौड पडी रावण के गिरने के साथ ही युद्ध समाप्त हो गया था स्वर्ग से देवता भी पुष्प वर्षा  करने लगे और पूरा वातावरण हर्ष से भर गया था। इसी प्रसन्नता के वातावरण के बीच भगवान राम ने लक्ष्मण से बोले,

भ्राता लक्ष्मण! सम्पूर्ण विश्व का शासक, परम शक्तिशाली, रावण आज रणभूमि में पडा अपनी म्रत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। रावण एक प्रराक्रमी योद्धा ही नहीं अपितु एक परम विद्वान भी था। ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर उसने वेदों, नीति-शास्त्र और राजनीति का गहन अध्ययन किया है। इस बहुमुखी प्रतिभा और वीरता से ही तो उसने अपना राज्य प्रथ्वी से इन्द्रलोक तक विस्तार कर लिया था। वास्तव में रावण का जीवन अनुभवों का भंडार है। अतमैं चाहता हुं कि तुम उसके देहावसान (म्रत्यु) होने से पहले ही शीघ्र ही उसके पास जाओ और उससे कुछ सीख/ज्ञान(टिप्स) लेकर आओ, जो भविष्य में तुम्हारे बहुत काम आयेगी। कहीं ऐसा ना हो कि उसके अनुभवों का भंडार भी उसी के साथ हमेशा के लिये विलुप्त हो जाय।

प्रसन्नता के इस अवसर पर राम के मुंह से यह बातें सुनकर लक्ष्मण को आश्चर्य हुआ कि भैया राम ये क्या कह रहे हैं। यह राक्षसों का राजा रावण, माता सीता के अपहरण जैसा निन्दनीय कर्म करने वाला यह रावण, और अब हारकर रणभूमि में पडा यह रावण भी क्या शिक्षा दे सकता है। जिसने जीवने में कभी कोई अच्छा कर्म नहीं किया हो, वो रावण क्या ज्ञान देगा। लेकिन भैया राम कह रहे हैं, तो फ़िर तो जाना ही पडेगा। देखें क्या बताता है। लक्ष्मण अनबने मन से युद्ध भूमि में घायल पडे रावण के पास गये और उसके सिर के निकट जा कर खडे हो गये और बोले,

हे रावण! भैया राम ने कहा है कि मुझे तुमसे कुछ शिक्षा लेनी चाहिये। जल्दी बताओ, कि तुम मुझे क्या शिक्षा देने चाहते हो।

रावण ने अधबुझी आंखें खोल कर लक्ष्मण की ओर देखा, और एक व्यंग भरी मुस्कान देकर अपना मुंह दूसरी ओर मोड लिया। लक्ष्मण पुनबोले,

अरे रावण जल्दी बोलो, क्या तुम कुछ कहना चाहते हो?

रावण कुछ नहीं बोला और नेत्र बंद करके पडा रहा। लक्ष्मण को गुस्सा आ गया और वो अपने पांव पटकते हुए लौट आये और श्री राम से बोले,

भैया वो अभिमानी रावण तो कुछ भी नहीं बोल रहा, वरन मुझे देखकर उसने अपना मुंह दूसरी ओर मोड लिया।

श्रीराम बोले,

लक्ष्मण! जब हम किसी से कुछ वस्तु मांगते हैं तो हम विनम्रता पूर्वक विनती करते हैं। ठीक उसी प्रकार जब हम गुरु के पास ज्ञान लेने जाते हैं तो हमें विनीत होना अत्यंत आवश्यक है। यदि मैने तुम्हें रावण से कुछ सीखने को भेजा तो इसका मतलब था कि रावण को हमने गुरु माना। अतचाहे वो रणभूमि में हारा हुआ, हमारा परम शत्रु क्यों ना रहा हों, परन्तु ज्ञान की भिक्षा लेते समय हमें उसके सामने झुकना ही पडेगा। चलो तुम मेरे साथ चलो।

ऐसा कहकर श्रीराम, लक्ष्मण को लेकर उस दिशा कि ओर चल पडे, जहां घायल रावण अपनी म्रत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। रावण की आंखे बंद थी और वह दर्द से कराह रहा था, उसके चारों ओर बचे हुये राक्षस विलाप कर रहे थे। भगवान राम उसके पांवों के निकट जाकर खडे हो गये और बोले,
हे राक्षस शिरोमणि रावण!, मैं रघुवंशी राम, तुम्हें और तुम्हारी वीरता को प्रणाम करता हुं।
यह सुनकर आश्चर्य से रावण ने अपने नेत्र खोले और अपने चरणों के निकट विनम्र मुद्रा में करबद्ध, खडे श्रीराम को देखकर बोला,

मेरा प्रणाम भी स्वीकार करें रघुकुल नंदन! किस उद्देश्य से आप ने रावण के पास आने का कष्ट किया, क्रपया कहें।

हे राक्षस-राज! हमारी शत्रुता तो रणभूमि तक ही थी। आपको आपके कर्मों का दंड भी मिल चुका है 
और हमारी शत्रुता भी अब समाप्त हो चुकी है। हे रावण! मैं आयु और अनुभव दोनो में आपसे बहुत छोटा हुं, और वहीं आपके पास असीम ज्ञान और अनुभव का भंडार है। इसलिये मेरी आपसे विनम्र विनती है कि आप अपने अनुभव रूपी ज्ञान के खजाने के सबसे मूल्यवान रत्न मुझे और मेरे भ्राता लक्ष्मण को प्रदान करें जो हमारे जीवन भर काम आये।

हे रामवीरता और विनम्रता दोनों में ही आप अजेय हो। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुयी कि आप  अब मुझे अपना शत्रु नहीं समझते हो, वास्तव में आपका ज्ञान तो मु्झसे कहीं अधिक है लेकिन आपने विनती कि है तो सुनिये। मैने अपने संपूर्ण जीवन में बस दो ही बातें सीखी हैं और ये दो बातें ही मेरे जीवन का सार हैं। पहली बात यह है कि यदि आप कभी कोई अच्छा कार्य करना चाहते हैं तो उसे उसी समय कर डालो। थोडा सा भी विलंब या उसे कल पर मत टालो क्योंकि कल-कल करते हुए समय व्यतीत हो जाता है और अच्छा कार्य हमेशा के लिये अधूरा ही रहा जाता है।

हे रावण! क्रपा करके उदाहरण भी दीजिये।

यह बात तब की है जब मेरा राज्य अपनी सर्वश्रेष्ठ स्थिति में था। मैने प्रथ्वी, पाताल और इंद्रलोक (स्वर्ग को भी जीत लिया था। मैने और मेरी राक्षस प्रजा ने अपने जीवन में कभी अच्छे कर्म तो किये नहीं थे तो ये मरने के बाद नरक लोक ही हमारी नियति था। तो मैने सोचा कि एक ऐसी सीढी बनाउंगा जो लंका से सीधे स्वर्ग तक जायेगी और उस सीढी से चढकर मेरी प्रजा स-शरीर स्वर्ग जा सकेगी। ये एक अच्छा कार्य था परन्तु मैं इसे कल पर टालता रहा और आज तक यह अधूरा रह गया।  इसके अतिरिक्त मैने सोचा था कि लंका के चारों तरफ़ ये खारे पानी का जो समुद्र है उसे में दूध के सागर में बदल दुंगा। इससे लंका देखने में भी सुंदर लगेगी और मेरी प्रजा इस खारे पानी से भी मुक्ति पायेगी। परन्तु हे रामये दोनो ही अच्छे कार्य मैं कल पर टालते रहा कि अभी जल्दी क्या है, कल करुंगा पर वो कल कभी नहीं आया, और मैं आज म्रत्यु के द्वार पर खडा हुं लेकिन ये काम अधूरे रह गये। इसलिये हे राम! कभी कोई अच्छा कार्य करने का मन हो तो उसी समय कर डालना उसे कल पर मत छोडना। ये मेरे जीवन की पहली सीख है।

धन्यवाद राक्षस राज, आपकी यह सीख वास्तव में अनमोल है। क्रपा करके अब दूसरी शिक्षा भी प्रदान करें।

हे सू्र्यवंशी रामदूसरी बात जो मैने अपने जीवन से सीखी वह यह है कि यदि मन मैं कोई अनुचित (गलतकाम करने का विचार आये तो उसे सदैव कल पर टाल दो। क्योंकि कल कभी आयेगा नहीं और इस तरह आप उस अनुचित कार्य करने से बच जाओगे। उदाहरण के रूप में, जब सूर्पनखा मेरे पास अपनी कटी नाख ले कर आयी तो उसने मुझसे कहा कि भैया मैं तो तुम्हारे लिये एक सुंदरी लाने  गयी थी, लेकिन उस सुंदरी के साथ दो युवक भी थे जिन्होने मेरी यह दशा की। तुम जाओ और उस सुंदरी का अपहरण कर के ले आओ क्योंकि वह तो तुम्हारी रानी बनने के योग्य है। हे राम! मैने उस समय सीता का अपहरण करने में जरा भी विलंब नहीं किया। उसी क्षण गया और सीता का अपहरण कर के ले आया। यदि मैने उस समय यह कार्य कल पर टाल दिया होता तो यह भी स्वर्ग की सीढी और दूध के सागर जी तरह कभी पूरा नहीं होता, और ना ही ये अपहरण होता और ना लंका का विनाश होता और ना ही मैं अपने कुल के साथ मारा जाता। तो राम यहीं दो बातें मैने जीवन से सीखी की अच्छे कार्य को करने में कभी विलंब मत करो और बुरे कार्य करने का मन हो तो सदैव आलसी बन जाओ।

तो यह थी वह शिक्षा जो रावण ने मरने से पहले दी। परन्तु अपने जीवन में हम साधारणतइन बातों का विपरीत ही करते हैं। अपने पडोसी से लडना हो, या किसी मित्र को बातें सु्नानी हों, या अन्य अनुचित कार्य क्यों ना हों, हम इन कार्यों को करने में थोडा सा भी विलंब नहीं कर पाते हैं। उसी क्षण जा कर करते हैं, और उसके विपरीत अच्छे काम करने में हमेशा यही सोचते हैं कि कल करेंगेचाहे किसी की प्रशंसा करनी हो, किसी की सहायता करनी होया फ़िर रास्ते में बैठे दीन दुखियों को कुछ दान देना हो तो सदैव मन में यही विचार आता है कि अगली बार अवश्य करेंगे। परन्तु अच्छा काम करने का कल बहुत कम ही आ पाता है।   

इस कहानी को पढने के बाद अवश्य सोचिये कि आपने कौन से अच्छे कार्य करने में विलंब किया और कौन से काम थे जो कल पर टाले जा सकते थे। 

नोट: आजकल तो रावण की फ़ोटो भी गूगल में सर्च करिये तो सारे प्रष्ठ अभिषेक और ऐश्वर्या की रावण फ़िल्म के ही चित्रों  से ही भरे पडे हैं। फ़िर 'रामलीला का रावण' लिख के सर्च किया तो जा कर रावण का चित्र मिल पाया। कलियुग में तो रावण की भी अपनी कोई 'आईडेनटिटी' नहीं रहा गयी है। ;) शीघ्र ही ढाका के आगे के भाग प्रस्तुत करुंगा। धन्यवाद।



Sunday 5 September 2010

विद्यालय का एक संस्मरण

अभी-अभी याद आया कि आज शिक्षक दिवस है और एक बढिया अवसर है विद्यालय के एक संस्मरण को आपके साथ बांटने का।  

गुरुरानी जी ने पहली बार सामना कक्षा १० () में हुआ जब पहली बार वो हमें गणित पढानें आये। उनका पूरा नाम श्री श्याम सुंदर गुरुरानी था। गठा हुआ शरीर, छोटा कद, लम्बी नाक, शिर में थोडे परन्तु बहुमत में सफ़ेद बाल, तेज चाल और सदैव मुस्कुराता चेहरा, गुरुरानी जी की पहचान थी। वे हमेशा उर्जा से भरे हुए रहते थे, बाद में पता चला कि उनकी इस उर्जा का स्त्रोत डाबर च्यवनप्राश था।  गुरुरानी जी से  पहले, कक्षा नौ में, हमें गणित श्री बलराम प्रसाद जी पढाया करते थे और बहुत बढिया पढाया करते थे और डांटना डपटना नहीं के बराबर, बडे ही खुश मिजाज व्यक्ति थे। परन्तु गुरुरानी जी के बारे मे सुना था कि गणित तो बढिया पढाते तो हैं पर पिटाई  बहुत करते हैं। पहले दिन तो डर भी बहुत लगा पर आज पूरे विश्वास के साथ कह सकता हुं जैसा नंद गुरुरानी जी से गणित पढने में आया वो बात आज तक फ़िर कभी नहीं हुई। एक विशेष बात और थी, कि गुरुरानी जी ने कभी डंडे से या लात घूसों से पिटाई नहीं की वरन उन्हें तो केवल थप्पड मारने में आनंद आता था और मेरे ख्याल से पूरे स्कूल में उनसे ज्यादा शक्तिशाली थप्पड शायद ही कोई अन्य अध्यापक मार सकता था। मैं इस मामले  में भाग्यशाली था कि मुझे तीन वर्षों में केवल दो ही थप्पड खाने पडे। 

पहला थप्पड  तो उनके प्रत्येक विद्यार्थी के लिये अनिवार्य होता था और वो उस दिन पडता था, जिस दिन वो कक्षा में प्रथम बार आतेवे प्रत्येक विद्यार्थी के पास जाते और नाम, पिता का नाम, और पिता का व्यसाय पूछते, फ़िर एक हल्का सा व्यंग्य करते और गाल में एक झन्नाटेदार थप्पड मारते थे। मुझे भी गुरुरानी जी का पहला थप्प्ड तब पडा जब गुरुरानी जी कक्षा दस में हमें पहली बार गणित पढाने आये, और मुझे क्या पूरी कक्षा को ही पडा था।      
      
गुरुरानी जी के बारे में एक विशेष बात थी कि वे कभी कोट नहीं पहनते थे, चाहे कितनी भी ठंड क्यों ना हो बात बहुत पुरानी है उस समय की जब गुरुरानी जी एच एन इंटर कालेज, हल्द्वानी में  नये-नये अध्यापक बन के आये थे। प्राय: गणित और विज्ञान के अध्यापकों और निजी कक्षा  (ट्युशन) का तो चोली दामन का साथ होता है सो गुरुरानी जी भी ट्युशन पढाया करते थे। एक दिन की बात है, जाडों के दिन, बाहर अत्यधिक ठंड थी और बारिश भी हो रही थी। गुरुरानी जी  अपने घर में निजी कक्षाएं ले रहे थे, उन्होने क्या देखा कि एक लडका केवल एक कमीज पहने बैठा था। उन्होने उसे बुलाया और बोले,

लडके ! बहुत देह प्रदर्शन कर रहे हो, इधर आओक्या नाम है तुम्हारा ? (और एक थप्पड फ़्री)

सर, मेरा नाम गिरीश है।  
                        
क्या करते हैं पिताजी ?

उसके पिता जी क्या करते थे इतना तो मुझे नहीं पता पर वह लडका एक गरीब परिवार से था। उसके पास स्वेटर खरीदने के पैसे नहीं थे लेकिन वो बेचारा फ़िर भी फ़ीस देकर ट्युशन पढ रहा था, कि कहीं गणित में फ़ेल ना होय जाय  यह बात गुरुरानी जी के दिल को बहुत गहरी लगी, सोचा ना जाने ऐसे कितने ही ऐसे विद्यार्थी होंगें जो बडी कठिनता से पढाई के लिये शुल्क एकत्र कर पाते होंगे और ऊपर से टयुशन का  अतिरिक्त व्यय।  बात सही भी थी, इतना पैसा होता तो वो बच्चे किसी अंग्रेजी माध्यम स्कूल में नहीं पड रहे होते ? एच एन इंटर कालेज तो निम्न शुल्क के साथ मध्यम और गरीव वर्ग के बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के उद्देश्य से प्रारम्भ किया गया था।

इस घटना से  गुरुरानी जी का मन उद्वेग से भर गया, कडकडाती ठंड में ठिठुरते उस बिद्यार्थी की दशा को देखकर उन्हें आत्मग्लानि हुई और उसी समय अपना कोट उतार कर उसे दे  दिया और उसी दिन से प्रण किया कि ना ही कभी टयुशन पढायेगें और ना ही कभी कोट पहनेगें। उस दिन  के बाद से प्रतिदिन विद्यालय से अवकाश के  बाद गुरुरानी जी दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों की बोर्ड की तैयारी के लिये  नि: शुल्क, अतिरिक्त कक्षा लगाया करते थे। उस कक्षा में केवल एच एन के ही नहीं अन्य  सरकारी विद्यालयों के बच्चे भी आया करते थे। इस कक्षा में केवल गणित ही नहीं विज्ञान और अंग्रेजी की भी तैयारी कराई जाती थी। हाईस्कूल की गणित के मामले में तो गुरुरानी जी का अनुभव अनुपम और अतुलनीय था। गणित ही नहीं भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान को भी उन्होनें इतना सरल कर के पढाया, उतना तो  हमारे विषयाध्यापक भी नहीं पढा पाये थे। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हुं कि मुझे भी उस कक्षा में पढने का सुअवसर मिला और इसका सुप्रभाव मेरे बोर्ड परीक्षा परिणाम पर भी पडा।


कक्षा दस में गुरुरानी जी हमें हिन्दी का तीसरा भाग, अनिवार्य  संस्क्रत, भी पढाते थे। एक दिन गुरुरानी जी हमें  संस्क्रत व्याकरण (ग्रामर) में संधि (शब्दों को जोडना) के बारे में बता रहे थे। संस्क्रत और हिन्दी में दो शब्दों को जोड कर छोटा करने का प्रचलन है, जैसे हिमालय दो शब्दों हिम और आलय (घर) से मिल क्र बना है। शब्दों को जोडने के, अर्थात संधि के  कुछ नियम होते हैं। यदि आपने कभी संधि पढी हो तो आपको ये नाम आवश्य याद होंगे, जैसे लघु संधि, दीर्घ संधि, व्यंजन संधि आदि। गुरुरानी जी विभिन्न संधियों के बारे में उदाहरण के साथ बता रहे थे और बीच-बीच में किसी विद्यार्थी को उठा के पूछ भी लेते। फ़िर एक शब्द आया ‘विधूदय'। मुझे इसका शब्द का अर्थ नहीं पता था सो मैने अपनी नजरें नीचे किताब में केन्द्रित कर ली जिससे वो मुझे ना उठायें कि तुम बताओ। परन्तु ऐसा कई बार होता है कि जिस प्रश्न का उत्तर आपको आता है उस समय आपका नंबर नहीं आता और प्राय: अध्यापक उस प्रश्न को आपसे ही पूछते हैं जिसक उत्तर आपको नहीं आता है। मेरे साथ भी यही हुआ। गुरुरानी जी बोले कि बेटा त्रिपाठी तुम बताओ, ‘विधूदय’ का क्या अर्थ होता है। मुझे इस शब्द कि संधि तो आती थी (दीर्घ संधि: विधु + उदय = विधूदय) पर इसका अर्थ पता नहीं था। यदि मैं उत्तर में कुछ नहीं बोलता तो थप्प्ड  तो पडना ही था और सारे सहपाठी हंसते वो अलग। सो मैने अनु्मान के आधार पर उत्तर दिया कि

सर! वधु का उदय।

जैसे आपने सुना होगा सूर्योदय (सूर्य का उदय) या चन्द्रोदय (चन्द्रमा का उदय) इसी प्रकार बधु का उदय। बधु का अर्थ नयी नवेली दुल्हन। मैने सोचा कि जब नयी नवेली दुल्हन सुहागरात की रात को अपना घूंघट उठाती होगी तो शायद उसे ही वधूदय या विधूदय कहते होंगे। मैं अपने उत्तर से पूर्ण रूप से संतुष्ट था और मुझे लगा कि पक्का शाबासी मिलेगी, कि देखो इस लडके का दिमाग कितना तेज है, इतने कठिन शब्द का भी अर्थ बता दिया। तभी एक भनभनाता सा थप्पड गाल पर पडा और कान के अंदर एक शूंsss की सी आवाज बजाता चला  गया, और फ़िर एक आवाज सुनायी दी,

बेटा, वधु तो आयेगी बाद में, विधु का अर्थ होता है चन्द्रमा, सो विधूदय का अर्थ हुआ चन्द्रमा का उदय। 

और फ़िर इसके बाद कई सारी लोगों की सामूहिक हंसी सुनाई दी और मैं शर्म के मारे पानी-पानी। वैसे कई कवियों और लेखकों ने अपनी प्रेमिका या वधु कि तुलना विधु (चन्द्रमा) से भी की है। जो भी था, ना ही उस थप्पड को मैं कभी भूल पाया, ना ही विधूदय के अर्थ को, वह घटना हमेशा के लिये मेरी स्म्रति में अंकित हो गयी।

अब तो गुरुरानी जी सेवा निव्रत्त हो चुके हैं और सालों से उनके दर्शन भी नहीं हो पाये। अभी कुछ समय पहले जब हल्द्वानी आना हुआ था तो सोचा था कि उनसे अवश्य मिलुंगा पर सदैव की तरह समयाभाव रहा।  विद्यार्थी की उन्नति पर माता पिता के  बाद गुरु से ज्यादा  शायद ही किसी को प्रसन्नता होती है। इस बार तो पक्का निर्णय किया है कि जब भारत आना होगा तो गुरुरानी जी से अवश्य मिलुंगा।  ये तो केवल एक घटना है, ना जाने कितने ही ऐसे अनुभव और संस्मरण बांकी हैं

शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाऐं