Sunday, 5 September 2010

विद्यालय का एक संस्मरण

अभी-अभी याद आया कि आज शिक्षक दिवस है और एक बढिया अवसर है विद्यालय के एक संस्मरण को आपके साथ बांटने का।  

गुरुरानी जी ने पहली बार सामना कक्षा १० () में हुआ जब पहली बार वो हमें गणित पढानें आये। उनका पूरा नाम श्री श्याम सुंदर गुरुरानी था। गठा हुआ शरीर, छोटा कद, लम्बी नाक, शिर में थोडे परन्तु बहुमत में सफ़ेद बाल, तेज चाल और सदैव मुस्कुराता चेहरा, गुरुरानी जी की पहचान थी। वे हमेशा उर्जा से भरे हुए रहते थे, बाद में पता चला कि उनकी इस उर्जा का स्त्रोत डाबर च्यवनप्राश था।  गुरुरानी जी से  पहले, कक्षा नौ में, हमें गणित श्री बलराम प्रसाद जी पढाया करते थे और बहुत बढिया पढाया करते थे और डांटना डपटना नहीं के बराबर, बडे ही खुश मिजाज व्यक्ति थे। परन्तु गुरुरानी जी के बारे मे सुना था कि गणित तो बढिया पढाते तो हैं पर पिटाई  बहुत करते हैं। पहले दिन तो डर भी बहुत लगा पर आज पूरे विश्वास के साथ कह सकता हुं जैसा नंद गुरुरानी जी से गणित पढने में आया वो बात आज तक फ़िर कभी नहीं हुई। एक विशेष बात और थी, कि गुरुरानी जी ने कभी डंडे से या लात घूसों से पिटाई नहीं की वरन उन्हें तो केवल थप्पड मारने में आनंद आता था और मेरे ख्याल से पूरे स्कूल में उनसे ज्यादा शक्तिशाली थप्पड शायद ही कोई अन्य अध्यापक मार सकता था। मैं इस मामले  में भाग्यशाली था कि मुझे तीन वर्षों में केवल दो ही थप्पड खाने पडे। 

पहला थप्पड  तो उनके प्रत्येक विद्यार्थी के लिये अनिवार्य होता था और वो उस दिन पडता था, जिस दिन वो कक्षा में प्रथम बार आतेवे प्रत्येक विद्यार्थी के पास जाते और नाम, पिता का नाम, और पिता का व्यसाय पूछते, फ़िर एक हल्का सा व्यंग्य करते और गाल में एक झन्नाटेदार थप्पड मारते थे। मुझे भी गुरुरानी जी का पहला थप्प्ड तब पडा जब गुरुरानी जी कक्षा दस में हमें पहली बार गणित पढाने आये, और मुझे क्या पूरी कक्षा को ही पडा था।      
      
गुरुरानी जी के बारे में एक विशेष बात थी कि वे कभी कोट नहीं पहनते थे, चाहे कितनी भी ठंड क्यों ना हो बात बहुत पुरानी है उस समय की जब गुरुरानी जी एच एन इंटर कालेज, हल्द्वानी में  नये-नये अध्यापक बन के आये थे। प्राय: गणित और विज्ञान के अध्यापकों और निजी कक्षा  (ट्युशन) का तो चोली दामन का साथ होता है सो गुरुरानी जी भी ट्युशन पढाया करते थे। एक दिन की बात है, जाडों के दिन, बाहर अत्यधिक ठंड थी और बारिश भी हो रही थी। गुरुरानी जी  अपने घर में निजी कक्षाएं ले रहे थे, उन्होने क्या देखा कि एक लडका केवल एक कमीज पहने बैठा था। उन्होने उसे बुलाया और बोले,

लडके ! बहुत देह प्रदर्शन कर रहे हो, इधर आओक्या नाम है तुम्हारा ? (और एक थप्पड फ़्री)

सर, मेरा नाम गिरीश है।  
                        
क्या करते हैं पिताजी ?

उसके पिता जी क्या करते थे इतना तो मुझे नहीं पता पर वह लडका एक गरीब परिवार से था। उसके पास स्वेटर खरीदने के पैसे नहीं थे लेकिन वो बेचारा फ़िर भी फ़ीस देकर ट्युशन पढ रहा था, कि कहीं गणित में फ़ेल ना होय जाय  यह बात गुरुरानी जी के दिल को बहुत गहरी लगी, सोचा ना जाने ऐसे कितने ही ऐसे विद्यार्थी होंगें जो बडी कठिनता से पढाई के लिये शुल्क एकत्र कर पाते होंगे और ऊपर से टयुशन का  अतिरिक्त व्यय।  बात सही भी थी, इतना पैसा होता तो वो बच्चे किसी अंग्रेजी माध्यम स्कूल में नहीं पड रहे होते ? एच एन इंटर कालेज तो निम्न शुल्क के साथ मध्यम और गरीव वर्ग के बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के उद्देश्य से प्रारम्भ किया गया था।

इस घटना से  गुरुरानी जी का मन उद्वेग से भर गया, कडकडाती ठंड में ठिठुरते उस बिद्यार्थी की दशा को देखकर उन्हें आत्मग्लानि हुई और उसी समय अपना कोट उतार कर उसे दे  दिया और उसी दिन से प्रण किया कि ना ही कभी टयुशन पढायेगें और ना ही कभी कोट पहनेगें। उस दिन  के बाद से प्रतिदिन विद्यालय से अवकाश के  बाद गुरुरानी जी दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों की बोर्ड की तैयारी के लिये  नि: शुल्क, अतिरिक्त कक्षा लगाया करते थे। उस कक्षा में केवल एच एन के ही नहीं अन्य  सरकारी विद्यालयों के बच्चे भी आया करते थे। इस कक्षा में केवल गणित ही नहीं विज्ञान और अंग्रेजी की भी तैयारी कराई जाती थी। हाईस्कूल की गणित के मामले में तो गुरुरानी जी का अनुभव अनुपम और अतुलनीय था। गणित ही नहीं भौतिक विज्ञान और रसायन विज्ञान को भी उन्होनें इतना सरल कर के पढाया, उतना तो  हमारे विषयाध्यापक भी नहीं पढा पाये थे। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हुं कि मुझे भी उस कक्षा में पढने का सुअवसर मिला और इसका सुप्रभाव मेरे बोर्ड परीक्षा परिणाम पर भी पडा।


कक्षा दस में गुरुरानी जी हमें हिन्दी का तीसरा भाग, अनिवार्य  संस्क्रत, भी पढाते थे। एक दिन गुरुरानी जी हमें  संस्क्रत व्याकरण (ग्रामर) में संधि (शब्दों को जोडना) के बारे में बता रहे थे। संस्क्रत और हिन्दी में दो शब्दों को जोड कर छोटा करने का प्रचलन है, जैसे हिमालय दो शब्दों हिम और आलय (घर) से मिल क्र बना है। शब्दों को जोडने के, अर्थात संधि के  कुछ नियम होते हैं। यदि आपने कभी संधि पढी हो तो आपको ये नाम आवश्य याद होंगे, जैसे लघु संधि, दीर्घ संधि, व्यंजन संधि आदि। गुरुरानी जी विभिन्न संधियों के बारे में उदाहरण के साथ बता रहे थे और बीच-बीच में किसी विद्यार्थी को उठा के पूछ भी लेते। फ़िर एक शब्द आया ‘विधूदय'। मुझे इसका शब्द का अर्थ नहीं पता था सो मैने अपनी नजरें नीचे किताब में केन्द्रित कर ली जिससे वो मुझे ना उठायें कि तुम बताओ। परन्तु ऐसा कई बार होता है कि जिस प्रश्न का उत्तर आपको आता है उस समय आपका नंबर नहीं आता और प्राय: अध्यापक उस प्रश्न को आपसे ही पूछते हैं जिसक उत्तर आपको नहीं आता है। मेरे साथ भी यही हुआ। गुरुरानी जी बोले कि बेटा त्रिपाठी तुम बताओ, ‘विधूदय’ का क्या अर्थ होता है। मुझे इस शब्द कि संधि तो आती थी (दीर्घ संधि: विधु + उदय = विधूदय) पर इसका अर्थ पता नहीं था। यदि मैं उत्तर में कुछ नहीं बोलता तो थप्प्ड  तो पडना ही था और सारे सहपाठी हंसते वो अलग। सो मैने अनु्मान के आधार पर उत्तर दिया कि

सर! वधु का उदय।

जैसे आपने सुना होगा सूर्योदय (सूर्य का उदय) या चन्द्रोदय (चन्द्रमा का उदय) इसी प्रकार बधु का उदय। बधु का अर्थ नयी नवेली दुल्हन। मैने सोचा कि जब नयी नवेली दुल्हन सुहागरात की रात को अपना घूंघट उठाती होगी तो शायद उसे ही वधूदय या विधूदय कहते होंगे। मैं अपने उत्तर से पूर्ण रूप से संतुष्ट था और मुझे लगा कि पक्का शाबासी मिलेगी, कि देखो इस लडके का दिमाग कितना तेज है, इतने कठिन शब्द का भी अर्थ बता दिया। तभी एक भनभनाता सा थप्पड गाल पर पडा और कान के अंदर एक शूंsss की सी आवाज बजाता चला  गया, और फ़िर एक आवाज सुनायी दी,

बेटा, वधु तो आयेगी बाद में, विधु का अर्थ होता है चन्द्रमा, सो विधूदय का अर्थ हुआ चन्द्रमा का उदय। 

और फ़िर इसके बाद कई सारी लोगों की सामूहिक हंसी सुनाई दी और मैं शर्म के मारे पानी-पानी। वैसे कई कवियों और लेखकों ने अपनी प्रेमिका या वधु कि तुलना विधु (चन्द्रमा) से भी की है। जो भी था, ना ही उस थप्पड को मैं कभी भूल पाया, ना ही विधूदय के अर्थ को, वह घटना हमेशा के लिये मेरी स्म्रति में अंकित हो गयी।

अब तो गुरुरानी जी सेवा निव्रत्त हो चुके हैं और सालों से उनके दर्शन भी नहीं हो पाये। अभी कुछ समय पहले जब हल्द्वानी आना हुआ था तो सोचा था कि उनसे अवश्य मिलुंगा पर सदैव की तरह समयाभाव रहा।  विद्यार्थी की उन्नति पर माता पिता के  बाद गुरु से ज्यादा  शायद ही किसी को प्रसन्नता होती है। इस बार तो पक्का निर्णय किया है कि जब भारत आना होगा तो गुरुरानी जी से अवश्य मिलुंगा।  ये तो केवल एक घटना है, ना जाने कितने ही ऐसे अनुभव और संस्मरण बांकी हैं

शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनाऐं



   

4 comments:

Harshit said...

sir Gurani sir mujhe dekhe the ekdam swastha hain......wahi isfurti...

Unknown said...

:D
ab mujhe bhi vidhudaya hamesha yaad rahega....

Anonymous said...

nice tinch of story telling. i remember gurrani sr.... "he was, in fact a gr8 invention of god to repair is misfitting inventions like us." and i can feel that soooonnn wali awaj jo apke karnashrit huee. yah ek aisa anubhav hai jo ya to HN inter college ke vidyarthi samaj sakte ya fir kapilashrmi tution classes ke.

कथाकार said...

जुगल धन्यवाद, कन्फ़र्म करने के लिये कि वो थप्पड आपने भी खाया है ;)