Saturday 19 February 2011

ढाका भाग ५: साईकिल, अमरुजाला और शिवजी



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कैंपा कोला की बोतल खत्म करने के बाद, ढाका ने खाली बोतल मुझे थमाते हुए दुकानदार को दे आने को कहा। दुकानदार को बोतल देने से पहले मैने एक बार बोतल को इस आशा से फ़िर अपने मुंह पर उडेला कि क्या पता कुछ बची हुयी हो। बोतल को थोडी देर तक अपने मुंह के ऊपर उलटा कर हिलाने के बाद  बची-खुची दो बूंदें मेरे मुंह में आ गिरी। इन अंतिम दों बूंदों का स्वाद तो मुझे कुछ ज्यादा ही अच्छा लगा था, हां वह बात दूसरी थी कि यह भी डर लग रहा था कि कहीं डकार यदि मुंह से आ गयी तो दांत ना कमजोर हो जायें। मैने ढाका से कहा कि यदि अगली बार पीये तो मुझे भी बुलाना यार।     

अंतत:, कैम्पा-कोला पान के बाद हम लोग वापस उद्दा की दुकान पर लौटे और ढाका की साईकिल लेकर हम वापस घर की ओर जाने लगे थे। तब ढाका ने साईकिल में कैंची चला के दिखायी और तब मुझे समझ में आया कि वो किस कैंची की बात कर रहा था।



जैसा कि दिखाये गये चित्र में देख सकते हैं कि पुरुषों की साईकिल में बैठने वाली गद्दी और साईकिल के हैंडल के बीच एक डंडा लगा होता है। इस डंडे के कारण, यदि आपके पांव छोटे हैं या फ़िर साईकिल बहुत उंची (तीस-बत्तीस इंच वाली) है तो आप उसे नहीं चला सकते हैं। और ढीठ या जिद्दी होने के कारण, यदि आपने फ़िर भी बिना गद्दी पर बैठे खडे ही साईकिल चलाने की कोशिश करी तो फ़िर भगवान ही आपका मालिक हो सकता है।  मेरे साथ भी कई बार ऐसा हुआ था कि किसी उंची जगह का सहारा लेकर साईकिल पर चढ तो गया, और साईकिल चलने भी लगी, पर उतरते समय पांव जमीन तक नहीं पहुंच पाते थे। अंतत: या तो जमीन पर गिरना ही पडता था या फ़िर जबरदस्ती पांव जमीन पर पहुंचाने के प्रयास के कारण साईकिल ऐसी रपटती थी और साईकिल के इस डंडे सेऐसी जगह चोट लगती थी कि किसी को बता भी नहीं सकते।  
      
संभवत:, इसी समस्या से निजात पाने के लिये ही किसी छोटे बच्चे ने साईकिल में कैंची चलाने का अविष्कार किया होगा। साईकिल में कैंची चलाना इतना सरल नहीं होता है जितना सुनने में लग रहा है। कैंची चलाने के लिये साईकिल के उपर चढने के बजाय, साईकिल के एक तरफ़ खडे होकर एक पांव को साइकिल के त्रिभुज (ट्राएंगल) के अंदर से होकर दुसरी तरफ़ के पैडिल पर रखा जाता है, बांया (लेफ़्ट) हाथ साइकिल के हैंडल पर और दांये (राईट) हाथ से साईकिल के उस डंडे को पकडा जाता है को साईकिल की गद्दी को साईकिल के हैंडल से जोडता है। कैंची चलाना वास्तव में साधारण तरीके से साईकिल चलाने से कठिन होता है क्योंकि इसमें चलाने वाले का शरीर साईकिल के एक तरफ़ लटका रहता है। जो कि किसी भी वाहन को चलाने की आदर्श स्थिति नहीं है। लेकिन बच्चों को कैंची चलाना ज्यादा सुविधा जनक लगता है क्योंकि इसमें एक तो गिरने का डर कम रहता है और सीखते समय साईकिल पकडने के लिये किसी व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता नहीं रहती है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि चाहे साईकिल कितनी बडी क्यों ना हो या फ़िर आपकी लंबाई कितनी भी कम क्यों ना हो, आप कोई भी साईकिल चला सकते हैं। एक तरह से कैंची चलाने की विधि साईकिल और चालक के बीच की सारी सीमाएं तोड देती है।

मेरी बात आप को आज की परिस्थिति में संदर्भहीन (इर-रेलिवेन्ट) लग सकती है क्योंकि आजकल तो हर उम्र के बच्चे के लिये उसके उंचाई के अनुसार साईकिल बाजार में मिलती है। लेकिन ध्यान रहे मैं उन दिनों की बात कर रहा हुं, जब साईकिल भी हर किसी के पास नहीं होती थी। जब कोई व्यक्ति नयी ‘’एटलस’’  साईकिल खरीदता था, तो पडोसियों में सुगबुगाहट होनी प्रारंभ हो जाती थी कि देखो खूब पैसा है, नयी साईकिल खरीद ली है। दो-तीन दिन तक तो पडोसी ही सीधे मुंह बात नहीं करते थे। थोडा विस्तार करुं तो, यदि उन दिनों साइकिल चलाना जीवन का एक यथार्थ  था तो ‘हमारा बजाज' स्कूटर जीवन का एक सपना होता था, और जिसके पास ‘मारुति ८००’’ हो वह तो कोई राजा ही होता था।

खैर, मुझे तो कैंची चलानी आती नहीं थी, और ना ही टैंटु को आती थी। तो ढाका बोला कि चलो तुम दोनो बैठो और मैं चलाउंगा। हम तीनो मिल कर भी उस साईकिल से छोटे थे फ़िर भी बचपन का उत्साह था। मुझे आगे डन्डे पर बैठाया गया, और ढाका साईकिल कैंची से चलाने को तैयार था। योजना के अनुसार जैसे ही साईकिल गति पकडे, टैंटु को कुछ दूर दौडकर पीछे से साईकिल के कैरियर में उछल कर बैठ जाना था। आप उस द्रश्य की कल्पना कीजिये कि एक भीड-भाड वाली सडक में दो बच्चे एक बडी साइकिल के उपर बैठे हुए हों, और तीसरा बच्चा साईकिल के बीच में घुसकर (कैंची से) साइकिल चला रहा है। यह बस ढाका ही कर सकता था, क्योंकि उसने बचपन में मछली का दूध जो पिया था (अधिक जानने के लिये पढें, ढाका भाग ) । यह कितना असुरक्षित हो सकता था, आज यह सोच कर भी डर लगता है। लेकिन बचपन की खासियत ही तो यह है कि बच्चे बिना परिणाम सोचे ही किसी भी कार्य को करने लगते हैं। गीता में भी भगवान क्रष्ण ने यहीं कहा है कि ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते, मां फ़लेषु कदाचन:’, अर्थात कर्म करो लेकिन बिना फ़ल कि चिन्ता किये। वही ढाका और हम सबने बचपन में किया था। लेकिन ढाका तो आज तक भी यही करता था, उसने कभी भी परिणाम की चिन्ता ही नहीं की, बस करता ही गया जो मन में आया।        

योजना अनुसार, ढाका ने मुझे साइकिल में आगे डन्डे पर बैठाकर खुद कैंची चलाते हुये साईकिल को गति देना आरंभ किया, टैंटु साइकिल के पीछे दौड रहा था। सायंकाल का समय था तो चौराहे पर अच्छी-खासी भीड भी हो चुकी थी। क्योंकि कैंची चलाते हुये ढाका का सारा भार साइकिल के बांयी ओर (लेफ़्ट साईड) अत: संतुलन के लिये ढाका ने साईकिल को थोडी सा दायीं ओर (राईट साईड) को झुका रखा थी। मैं साईकिल के डन्डे पर बैठा था अत: मुझे थोडा सा डरावना लग रहा था क्योंकि मेरा शरीर दायीं ओर को जा रहा था, तो मैं बांयी तरफ़ को झुकने की कोशिश कर रहा था। हांलाकि साइकिल बहुत तीव्र गति (स्पीड) से नहीं चल रही थी। आगे मैं क्या देखता हुं, कि सडक पर चलती हुई चार नव युवतियों का एक दल लगभग पूरी सडक पर ही कब्जा कर के चल रहा था, अत: ढाका ने साईकिल की घन्टी बजायी, लेकिन युवतियां रास्ता देती सा मालूम नहीं हो रही थी। लगातार घन्टी बजाने के बाद वह कन्याएं, थोडा सा सडक से किनारे हुई। उन चार लडकियों में से एक लडकी जो बहुत मोटी थी, वो ही सडक की तरफ़ चल रही थी। मैने ढाका से कहा कि साईकिल रोक ले, कहीं गिर जायेंगे। लेकिन ढाका के आत्मविश्वास दिखया कि ‘सैकिल निकल जैगी’, और उतनी जगह साईकिल निकालने के लिये पर्याप्त भी थी। ढाका ने साईकिल की गति थोडा और कम की और बडी सावधानी से उन लडकियों को ओवर-टेक करने ही जा रहा था कि अचानक पीछे से एक धक्का सा लगा और साईकिल का संतुलन थोडा सा बिगडा, और वही हुआ जिस बात का डर था। साईकिल का अगला पहिया सीधे उस मोटी लडकी के पीछ्वाडे से जा टकराया, और धडाम।  

यह भूचाल पीछे से अचानक टैंटु के उछल कर साईकिल पर बैठने से आया था। हुआ यह कि जैसे ही ढाका ने लडकियों से आगे निकलने के लिये साईकिल की गति कुछ कम की तो टैंटु को लगा कि यह उसके बैठने के लिये किया गया था, और वह उछल कर पूरे वेग से साइकिल पर कूद पडा। ढाका इस स्थिति के लिये तैयार नहीं था, अत: इस झटके से साईकिल का हैंडल थोडा सा मुडा और साईकिल सीधे उस मोटी लडकी से जा भिडी। क्योंकि एक तो वह लडकी खाते-पीते घर की थी और उपर से साईकिल की गति भी बहुत कम थी, तो उस लडकी तो हल्का सा धक्का सा अनुभव हुआ। उसे लगा उसे किसी लडके ने छेडा है, यह सोचकर वह गुस्से से तमतमाया हुआ चेहरा बनाकर पीछे मुडी। लेकिन साईकिल का अगला पहिया टकराने का परिणाम यह हुआ कि साईकिल का संतुलन बिगडा और हम चार, मैं, ढाका, टैंटु और साईकिल, सडक में चारों खाने चित। जैसे उस विशालकाय लडकी ने पीछे मुड के ऐसा हाहाकारी द्रश्य देखा तो उसका सारा गुस्सा हंसी में बदल गया। उसके साथ अब उसकी अन्य सहेलियां भी खिलखिला के हंसने लगी थी। सहेलियां ही क्यों चौराहे पर खडे सारे लोग आनंद ले रहे थे।  तत्पश्चात वह कन्या प्रमुदित मन से अठखेलियां करती हुई अपनी सहेलियों के साथ चलती बनी। अठखेलियां करे भी क्यों नहीं, आज उस लडकी के एक ठुमके पर तीन-तीन जवान जो चित हो चुके थे, ऐसा मुझे लग रहा था। तभी ढाका ने हमें कहा,

यहां पर रोना-धोना नहीं होना चाहिये हैगा, सीधे खडे हो, कपडे झाडो और मर्द की तरह चलो, वरना डान की बेज्जती हो जायेगी हैगी।

मुझे तो रोना आ ही रहा था, क्योंकि मेरी दाहिनी कोहनी बुरी तरह छिल गयी थी। टैंटू क्योंकि पिछवाडे के बल गिरा था, खून तो नहीं निकला पर उसके पिछवाडे में दर्द हो रहा था तो वह मर्द की तरह नहीं चल पा रहा था, उसके चेहरे की भाव-भंगिमा पूरी दहाड मार के रोने वाली थी, टेसू भी बह रहे थे, बस आवाज नहीं निकल रही थी, ढाका की डर के मारे। सबसे ज्यादा चोट ढाका को ही लगी थी, उसका घुटना छिल गया था, खून बह रहा था, और साईकिल के नीचे दब कर उसका पैर भी मुड गया था। लेकिन मुझे याद नहीं उसने एक उफ़ तक भी की हो, हां जब साईकिल गिरी थी और उसका पांव साईकिल के नीचे दब गया था, तब एक क्षण के लिये वह ‘आईले-आईलेकह कर चिल्लाया था। लेकिन जब वह जमीन से उठा उसके बाद तो उसके चेहरे पर शिकन तक भी नहीं आयी, बिलकुल मर्द को दर्द नहीं होता वाला ही द्रश्य था। ढाका के आदेशानुसार हम लोग ऐसा दिखाते हुए कि जैसे कुछ भी नहीं हुआ हो,  धीरे-धीरे लंगडाते हुये चौराहे से कुछ दूर निकल आये। थोडा आराम की सख्त आवश्यकता थी तो तीनों सडक के किनारे बनी एक पुलिया पर आकर बैठ गये। मेरी कुहनी से बहता खून तो सूख ही गया था, और टैंटू का दर्द भी अब ठीक हो गया था, परन्तु ढाका के छिले घुटने से अब भी खून बह रहा था। जब मैनें ढाका का ध्यान उस और दिलाया तो ढाका बोला,

ठुल्ला साब, इसका ईलाज तो अपुन के पास हैगा।

यह कहकर ढाका पुलिया के दूसरी तरफ़ की झाडियों के बीच घुस गया, और थोडी ही देर में कुछ पौंधे उखाड लाया।

ये हैगी दवाई ठुल्ले साब, इसको ‘भुवनिया’ कहते हैंगे, इसका रस किसी भी चोट में लगा दो, कैसी भी चोट हो दो दिन में ठीक हो जाती हैगी। 

मुझे तो ढाका की बातों में अविश्वास होना ही था, लेकिन देखते ही देखते ढाका ने एक बडे पत्थर पर रखकर उस घास को पीस कर लेप अपनी चोट में लगा दिया। उसने मुझसे भी अपनी कुहनी की चोट में घास का लेप लगा लेने को कहा, लेकिन मैने मना कर दिया, क्योंकि मुझे सिखाया गया था कि चोट को पहले ‘डिटाल’ से धोओ और फ़िर उस पर ‘बोरोलीन' लगाओ। मुझको विश्वास दिलाने के लिये ढाका ने हरी घास का लेप लगाने के बाद मुझे दौड कर भी दिखाया कि, ये देख यह कितनी शीघ्र असर करती है। लेकिन मैने भी अपने आप को थोडा सा अलग दिखाने के लिये कहा कि मैं तो डीटाल ही लगता हुं। ढाका बोला,

         बेटे! ये डिटाल-हिटाल कुछ काम का नहीं होता हैगा, जे ही असली दवाईयां होती हैंगी, इन्हीं से तो जे डिटाल-हिटाल बनते हैंगें। मैं तो जे कहता हुंगा, कि जे घास भी ना हो तो थोडी सी  सूखी मिट्टी ही लगा लेते हैंगे, और कैसी भी चोट हो सही हो जाती हैगी। बेटे! जे धरती हमारी मां हैंगी, ये हमारे लिये खाना भी देती हैंगी और दवाईयां भी देती हैंगी।  


(उस समय ढाका की बातें मुझे बेवकूफ़ी से ज्यादा कुछ भी नहीं लग रही थी, लेकिन आज जब सोचता हुं तो लगत है कि ढाका कितना सही था। यह धरती माता हमें क्या कुछ नहीं देती है। जंगल में रहने वाले आदिवासियों की देखभाल कौन करता है, उन जंगली जानवरों का ईलाज कौन करता है जो अपना दर्द भी बोल कर नहीं बता सकते हैं। उस दिन तो मैने भुवनिया घास चोट पर नहीं लगायी, पर उसके बाद कई मौके आये जब मैने डिटाल को छोडकर हमेशा भुवनिया घास को पीस कर लगाया होगा, और आश्चर्यजनक रूप से सदैव मेरी चोट सही हो गयी।)


          सैकिल से तो चोट लगती रहती हैगी। बेटे एक बात याद रखियो, जब तक सैकिल से गिर कर चोट नहीं लगती हैगी, तब तक सैकिल चलानी नहीं आती हैगी। और दूसरी बात और याद रखियो, कि दुनिया में सबसे कठिन काम सैकिल चलाना सीखना होता हैगा। जो किन्ने सैकिल चलानी सीख ली, वो सब कुछ चलाना सीख सकता हैगा।

चलो अब घर को चलें अब अंधेरा होने को है, मैने कहा।

चलते तो हैंगे, पर आज तो बेटा मरवा दिया हैगा टैंटू ने। ये जानता नहीं हैगा इसने आज किसे टक्कर मरवायी हैगी।

ओये धाके, मैने तिसी लकडी को तक्कर नहीं मरवायी, थाले, खुद तो थाईकिल तलानी आती नहीं हैगी।

बेटे, जिस लडकी पर तूने आज सैकिल चढवायी हैगी, जानता हैगा किसकी लडकी हैगी वो?

तौन है वो?

बेटे! वो अमरुजाला की लडकी हैगी।

ये अमरुजाला कौन है?

अबे तू, अमरुजाला नहीं जानता हैगा, जो सुबह-सुबह अखबार वाला बांटता हैगा, दैनिक जागरण और अमरुजाला।

अबे अमरुजाला नहीं, अमर उजाला। वो तो अखबार है, उसकी लडकी कैसे हो सकती है।

बेटे सही कहुं तो ये अमरुजाला की लडकी नहीं हैगी, बल्कि इसकी मां ‘अमरुजाला’ हैगी।   

मैने सोचा क्या पता ये अमर उजाला के मालिक की लडकी हो या फ़िर इसकी मां अमर उजाला में काम करती हो। लेकिन मैं गलत था, उसकी मां ही अमर उजाला थी।   

      इसकी मां का नाम अमरुजाला हैगा, क्योंकि उसका काम मोहल्ले की हर घर की खबर रखना होता हैगा, और यहां की खबर वहां पहुंचाना भी उसका काम हैगा, इसीलिये, उसे सब लोग अमरुजाला कहते हैंगे। वो इस इलाके में रहने वाले सारे लोगों को जानती हैगी, बेटा पोस्ट मैन को भी जब कोई घर का पता नहीं मिल पाता हैगा तो या तो वह अमरुजाला से पूछता हैगा या फ़िर वह उस चिठ्ठी अमरुजाला के घर दे आता हैगा और फ़िर अमरुजाला उस चिठ्ठी को सही जगह पहुंचाती हैगी। इसलिये बेटे अमरुजाला से कोई पंगा नहीं लेता हैगा, और आज तुम लोगों ने उसकी बेटी को टक्कर मारी हैगी, ध्यान रखना शिकायत करने वो कभी भी तुम्हारे घर पहुंच सकती हैगी।


यह सुनकर तो मुझे भी डर लगने लगा था कि कहीं वह अमर उजाला (मेरा मतलब अमरूजाला) मेरे घर पहुंच गयी और यह बता दिया कि मैं चौराहे पर घूम रहा था और फ़िर उस साईकिल में मैं भी सवार था जिसने अमरुजाला पुत्री को टक्कर मारी थी तो मेरा काम हो गया। मैं मन ही मन भगवान को याद करने लगा कि अमरुजाला को मेरा घर ना पता हो।

अब अंधेरा होने लगा था तो हम उस पुलिया से उठ कर घर की ओर चलने लगे। क्योंकि थोडी देर पहले ही हम साईकिल से गिरे थे, अत: फ़िर से साईकिल पर चढने का मतलब ही नहीं था, इसीलिये हम पैदल-पैदल ही चल दिये। पानी की टंकी पार करते ही बरगद के पेड के नीचे एक शिव-मंदिर पडता है। वहां से घंटियों की आवाजें आ रही थी, इसका मतलब था कि वहां सायं-कालीन आरती हो रही थी। तो हम बिना मंदिर गये घर कैसे जा सकते थे, वहां फ़्री का प्रसाद को मिलता था। हम तीनों मंदिर की ओर मुड गये। लेकिन मंदिर की सीढियों में पहुंचते ही ढाका ने हम दोनों से अंदर जाने को कह दिया। जब मैने उससे उसके मंदिर के अंदर नहीं चलने का कारण पूछा तो ढाका दीवार फ़िल्म के अमिताभ बच्चन की तरह ऐंठ गया कि, मैनें आज तक इनसे (शिवजी से) कभी कुछ नहीं मांगा, मैं अंदर नहीं आउंगा। अंतत: टैंटु और मैने ही मंदिर के अंदर जाकर प्रसाद पाया। फ़िर हम तीनों प्रसाद खाते-खाते घर की ओर चलने लगे तो ढाका बोला,

बेटे मुझे तो हंसी आती हैगी, इस मंदिर के पुजारी और भगवान के इन भक्तों पर। कितने मूर्ख हैंगे ये सब लोग, यहां पत्थर में भगवान को ढूंढते हैंगे।

मुझे आश्चर्य हुआ कि इस ढाका में अचानक कोई दार्शनिक कहां से घुस गया। ये कैसी बाते कर रहा है, मैने कहा,

क्यों बे, भगवान की मूर्त्ति में ही तो भगवान रहते हैं, और वो उस मूर्ति के अंदर से हमें देखते रहते हैं, साले तुझे भी।

हा हा, बेटे देखते तो तब हैंगे, जब मूर्ति अंदर होंगे तब ना।

अबे तुत्ते तू तैसी बात करता है, साले पाप चलेगा तुझ पर, अब टैंटू ने भी मेरी बात का समर्थन किया।    

चूंकि ढाका, भगवान के अस्तित्व पर उंगली उठा रहा था तो वाद-विवाद में गर्माहट तो आनी ही थी, और बच्चों वाली गालियां (कुत्ते, कमीने और साले) भी शुरु हो गयी थी।

बेटे अभी तुम दोनो बच्चे हैंगे, तुम दोनो को कुछ पता नहीं हैगा, मैं तुम दोनो को असली बात आज बताता हुंगा, यह बात बडे-बडे लोगों को भी नहीं पता हैगी।

यह सुनकर हम दोनो के कान खडे हो गये कि पता नहीं किस नये चक्कर के बारे में बता रहा है या फ़िर ऐसी ना जाने क्या बात बता रहा है, जो हम दोनो को नहीं पता है, आखिर है तो वह हम दोनो का गुरु है। ढाका बोला,

असली शंकर जी तो अब भारत में रहते ही नहीं हैंगे, बेटे आज से सालों पहले ही वह यहां से जा चुके हैंगे, और वो भी अपनी मर्जी से नहीं। बेटे ये तो बस मूर्तिया हैंगी, इस बात को बहुत कम लोग जानते हैंगे।

अबे पादल हो गया है त्या?

टैंटू और मैने ढाका की बात से अविश्वास जताया, कि ऐसा तो हो ही नहीं सकता है।

यदि असली शिवजी यहीं हैंगे तो उन्हे आज तक किसी ने देखा क्यों नहीं हैगा, बोलो देखा हैगा किसी ने शिवजी को?

यह बात तो सही थी कि आजतक शिवजी को किसी ने नहीं देखा है। पिछले साल मैने शिवरात्री का व्रत किया था क्योंकि मां ने कहा था कि जो बच्चा सच्चे मन से शिवरात्री का व्रत करता है वो अपनी कक्षा में फ़र्स्ट आता है। मैने उस बार सच्चे मन से व्रत किया था लेकिन मैं हमेशा कि तरह सैकण्ड ही आया। यदि शिवजी सच में होते तो मैं फ़र्स्ट पास नहीं होता क्या? मुझे ढाका के बातों में कुछ-कुछ विश्वास होने लगा था। तभी ढाका आगे बोला,

बेटे, शिवजी को तो मुसलमानों ने मक्का में एक शिवलिंग में कैद कर रक्खा हैगा। शिवजी कई सालों से मक्का में ही बंद हैंगे। यदि कोई भी हिन्दु उस शिवलिंग में यदि पानी की एक धार डाल देगा तो शिवजी उसी समय आजाद हो जायेंगे, और उसी दिन इस दुनिया के सारे मुसलमान मर जायेंगे। लेकिन शर्त ये हैगी कि पानी चढाने वाले आदमी ने कभी गाय का मांस नहीं खाया होना चाहिये।

तो कोई वहां जा कर शिवजी को आजाद क्यों नहीं करा देता? नाम बदल के जाओ, और कह दो कि मैं भी मुसलमान हुं और वहां जा कर पानी चढा दो।

बेटे, इतना सरल होता तो शिवजी कब के आजाद हो चुके होते। मक्का जाने वाले हर एक आदमी को उस शिवलिंग के पास जाने से पहले गाय का मांस खाना पडता हैगा। और एक बार गाय का मांस खा लिया हैगा। तो फ़िर कितना भी पानी चढा दो कुछ नहीं हैगा, और पानी चढाते हुए किसी मुसलमान ने देख लिया तो फ़िर जिन्दा बचना मुश्किल हैगा। बेटे सारे मुसलमान जानते हैंगे कि जिस दिन शिवजी आजाद हो गये तो उस दिन इस दुनिया के सारे मुसलमान मर जायेंगे, तो इसी लिये वहां कढा पहरा रखते हैंगे। इसीलिये तो बेटे सारे मुसलमान हर साल मक्का-मदीना जाते हैंगे।

यह सुनकर हमारे तो रौंगटे खडे हो गये कि ऐसा भी हो सकता है। मुझे अपनी शिव भक्त मां पर दया आ रही थी कि देखो वह कितनी भक्ति भाव से शिवजी की पूजा करती हैं, और शिवजी तो हैं ही  नहीं।  मन नहीं मान रहा था कि शिवजी को कैद किया जा सकता  है, लेकिन ढाका की आत्मविश्वास भरी कहानी हमें यह मानने को मजबूर कर रही थी। ट्रक वाले मुल्ला जी भी कुछ दिनों पहले पिता जी से कह रहे थे कि बस मरने से पहले एक बार मक्का-मदीना जाने की इच्छा है। अब सारी बात मेरे समझ मैं आयी, और यह भी समझ में आया कि जब भी किसी काम के लिये में शिवजी से प्रार्थना करता हुं तो वह कभी पूरी नहीं होती है। अब जब शिवजी ही वहां नहीं हैं तो प्रार्थना पूरी कैसे होगी। और जब भी हनुमान जी से कुछ कहता हुं तो वह पूरा हो जाता है।

तो फ़िर हनुमान जी वहां जाकर शिवजी को छुडा क्यों नहीं लाते हैं, मैंने पूछा?

एक बार हनुमान जी वहां गये हैंगे, लेकिन मुसलमानों ने उन्हें देख लिया हैगा और उनके ऊपर गाय का खून डालने की कोशिश की, वो तो हनुमान जी गायब हो गये हैंगे, वरना वो भी आज उनकी कैद में होते। इसलिये तब से हनुमान जी दुबारा नहीं गये। यह बात अमेरीका को भी पता हैगी कि शिवजी कैद में हैंगे। लेकिन बेटा कोई कुछ कर नहीं सकता हैगा।

तब तक मेरा और टैंटु का घर आ गया था, तो हम बुझे मन से अपने-अपने घर में घुस गये, और ढाका हमें टेंशन में छोड कर अपने घर की ओर निकल लिया। उस रात मैं मन ही मन शिवजी को आजाद कराने की तरकीबें ही सोचता रहा लेकिन कोई सही उपाय समझ में नहीं आया, हर बात आकर गौ मांस खाने पर अटक जाती। आगे की बात अगले भाग में।  


नोट: जैसा कि ब्लाग के आरंभ में यह कहा गया है कि इन बातों को सत्यता कि कसौटी पर बिना कसे ही पढें। मेरा सभी पाठकों से विनम्र निवेदन है कि ढाका की बात को गंभीरता से ना लें। कहते भी हैं ना कि, बच्चों और शराबियों की बातों का बुरा नहीं मानना चाहिये।         

2 comments:

कथाकार said...
This comment has been removed by the author.
ढाका डान said...

कोई जरूरत नहीं हैगी, मेरी पर्सनल बातों को सबको बताने की, चटखारे ले लेके तो सब पढ लेते हैंगे, पर कमेंट करने में जान जाती हैगी।