Monday 7 February 2011

ढाका भाग ४: ढाका की साईकिल


यदि आपने ढाका के पुराने भाग नहीं पडे हैं, तो पिछले भाग में जाने के लिये यहां क्लिक करें। ढाका भाग ३  


मैं अपना होमवर्क पूरा कर रहा था कि तभी बाहर से आवाज सुनायी दी,

चूssडी ले लो, चूsssडी
चूssडी ले लो, चूsssडी

यह सुनते ही मैने झट से कापी-किताब बंद किये और खिडकी की ओर लपका। मैं समझ गया कि बाहर ढाका गया है, ये उसका मुझे और टैंटु को खेलने बुलाने का नया कोडवर्ड था। उन दिनो तो फ़ोन भी किसी-किसी के घर में होते थे। आज की तरह मोबाईल फ़ोन या फ़िर ईमेल की बात तो सोच से भी परे थी, लेकिन फ़िर भी बच्चे आपस में सम्पर्क में रहते थे। आजकल के बच्चों का, बचपन तो कम्प्युटर, इंटरनेट, मोबाईल फ़ोन, प्ले स्टेशन, एस.एम.एस. में, और जवानी एम.एम.एस. में बीत रही है।    

जब से ढाका ने अनिल कपूर की एक फ़िल्मचमेली की शादीमें देखा था कि कैसे नायक का मित्र चूडी वाले का भेष बनाकर नायिका को उसके पत्र दिया करता था तब से ढाका का संकेत भी यही हो गया। इससे पहले ढाका के आने का कोडवर्ड था,

ssईसक्रीम, आम वाली, मलाई वाली, डब्बे वाली, ssईसक्रीम.

लेकिन जैसे ही गर्मियों का मौसम समाप्त हुआ, हमें यह कोडवर्ड को भी बदलना पडा, क्योंकि जाडे के मौसम में आईसक्रीम बेचने में पकडे जाने का डर था। तो इसके बाद जल्दीबाजी में जो नया कोडवर्ड जो ढाका ने सुझाया वह था,

कूssडा कबाड रद्दी बेच डालो, लोssहा प्लासassटिक अखबार बेच डालो।      

वैसे तो ये कोडवर्ड पूरी तरह सुरक्षित था क्योंकि कबाडियों का कोई मौसम और समय नहीं होता था लेकिन इसमे समस्या यह हुई कि ढाका तो दिन में एक बार या कभी-कभी दो बार भी जाता लेकिन टैंटु और मैं दिन में दस बार यह आवाज सुनकर घर से बाहर निकलते रहते कि कहीं ढाका ना गया हो, क्योंकि कबाडी तो दिन भर आते जाते रहते थे। तब हमने ढाका से इस कोडवर्ड को भी बदलने को कहा था। तब जाकर ढाका ने इस चूडी वाले कोडवर्ड का आविष्कार किया। तभी फ़िर से आवाज सुनाई दी,
चूssडी ले लो, चूsssडी
चूssडी ले लो, चूsssडी
ढाका के पास घडी तो थी ही नहीं, तो हम समय का अंदाजा इस तरह से लगाते थे। पहली पुकार सुनते ही हम मन ही मन एक से सौ तक की गिनती गिनना शुरु कर देते थे, यदि ढाका की दूसरी पुकार हमारे पचास गिनने से पहले ही गयी तो, यह समझा जाये कि बाहर कुछ खतरा है, ऐसे में घर से निकलते समय अत्यधिक सावधानी की आवश्यकता होती थी। यदि ढाका की दूसरी पुकार सौ गिनने से पहले जाय तो इसका तात्पर्य होता था कि जल्दी घर से बाहर निकलो, ईमर्जैन्सी है। और यदि ढाका की पुकार सौ तक गिनने के बाद आये तो सब कुछ सामन्य है, परन्तु जैसे ही और जितनी शीघ्रता से मौका मिले, खेलने जाओ। सौ तक की गिनती में लगने वाले समय अंतराल के भीतर ये ढाका की दूसरी पुकार थी, इसका मतलब मामला कुछ संगीन (अति-आवश्यक) था।

मैने जल्दी से घर का मुआयना किया नजरें घर के अंदर दौडायी, मां रसोई में व्यस्त थी। समय से पहले खेलने जाने में सावधानी बरतना अति आवश्यक था, अन्यथा पकडे जाने पर, उस शाम जल्दी खेलने जाने के बजाय अतिरिक्त पढना पड सकता था और मां धमकी अलग देती कि, आने दे पापा को फ़िर बताती हुं उनको। अत: पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद में पहले सामान्य रूप से घर के बाहर आंगन में गया, मानो कि आंगन में ही घूम रहा हुं, फ़िर जैसे ही गेट के नजदीक पहुंचा, तो मेंढक की तरह एक कूद में बाहर।

बेताल के घर पीछे ढाका और टैंटु बेशब्री से खडे मेरा इंतजार कर रहे थे। 
त्यों बे, इतनी देल त्यों लगाई? तैंची चलानी है कि नहीं? टैंटु बोला 
ठुल्ले! तू बडी देर करता हैगा बाहर आने में, ये बता तेरे पास पम्पू हैगा कि नहीं?
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पिछ्ले सप्ताह ढाका ने मेरा प्रमोशन कर दिया था, अब वह मुझे इंस्पेक्टर नहीं बल्कि ठुल्ला कहकर बुलाता था। वैसे इंस्पेक्टर तो मैने फ़िल्मों में बहुत देखे थे, परन्तु ठुल्ला कभी नहीं देखा था, अत: मैं अपनी नयी भुमिका के बारे में ज्यादा नहीं जानता था। जब मैंने ढाका से अपनी शंका व्यक्त की तो पहले तो वह नाराज हो गया, और बोला,
बेटे! तू इंस्पेक्टर का इंस्पेकटर ही रहियो, तुझमें ठुल्ला बनने की औकात नहीं हैगी। तुने देखा है कभी पिपरिया ठुल्ले को? बेट्टे अच्छे अच्छों की आगे से गीली और पीछे से पीली हो जाती हैगी पिपरिया ठुल्ले को देख के।

नहीं यार ढाका मैं ठुल्ला बन जाउंगा, पर ये तो बता कि ठुल्ला करता क्या है, और ये पिपरिया ठुल्ला कौन है?

बेट्टे ठुल्ला क्या-क्या कर सकता हैगा, तुझे नहीं पता हैगा। सिम्पिल वे मैं बताउं तो बेटे! ठुल्ला वो सब कर सकता हैगा जो इंस्पेक्टर नहीं कर सकता है, समझा। बेटा तेरा प्रमोशन हुआ हैगा, प्रमोशन।
 
ढाका का कहना था कि उसने ठुल्ला देखा था, और जानता था कि ठुल्ला इंस्पैक्टर से ज्यादा शक्तिशाली होता है। उस उम्र में, मैं तो निरा बुद्धिहीन था सो जैसा ढाका गुरु ने कहा वैसा ही मानना पडा।   


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अबे ये तैंची और पम्पू क्या होता है, मैने पूछा।
अबे तुझे कैंची चलानी आती हैगी कि नहीं?
मैने कहा हां, कैंची चलानी कौन सी बात है।
चल ठीक हैगा, पम्पू तो ला, बेटे पम्पू होता हैगा जिससे सैकिल में हवा भरते हैंगे।

मैं एक बार पुन: दुविधा मैं पड गया था, की पिताजी सही हैं कि ढाका? वास्तव मैं साईकिल में हवा भरने वाले यन्त्र को पम्प कहते हैं कि पम्पू? पता नहीं लेकिन मुझे ऐसा क्यों लगता था कि नयी चीजों के बारे में ढाका पिताजी से ज्यादा जानता है। अच्छा ये सब छोडिये, मेरे समझ मैं यह नहीं आया कि ये कैंची और पम्प से क्या करना चाहते हैं। मैरे पिताजी के पास एक एटलस साईकिल थी, जिससे वो अपने स्कूल जाते थे। कभी कभार ऐन वक्त पर देखा तो टायर पंचर है या फ़िर हवा निकल गयी, इसलिये पिताजी ने एक पंप लेकर रख हुआ था जिससे जब भी आवश्यकता हो तो घर में ही साईकिल में हवा भर लेते थे। लेकिन पिता जी ने हिदायत थी कि पम्प को आस पडोस में किसी को देने की जरूरत नहीं है, कोई पूछे तो कह देना कि पिता जी ने पता नहीं कहां रखा है।

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विशेषकर हवा भरने का पम्प, फ़ोटो खीचने वाला कैमरा और स्त्री, जब आपने पडोसियों को दी तो सही सलामत वापस लौटने की गुंजाइश कम ही रहती है। मैं समझ सकता हुं, कुछ पाठक इस बात पर मेरी ओर व्रक द्रष्टिपात कर सकते हैं, लेकिन स्त्री से मेरा तात्पर्य कपडे स्त्री करने वाली बिजली की प्रैस से है। लेकिन वो दिन फ़िर भी अच्छे थे कम से कम लोग एक दूसरे के वहां कुछ लेने देने के बहाने ही चले जाया करते थे।
गर्मियों में आपके घर कोई अतिथि जाय और उसके लिये ठंडे पानी की आवश्यकता हो या पीठ में घमौरियों पर बर्फ़ मलनी हो, कभी भी पडोसियों से मांगने में शंका नहीं होती थी।   
जाडों में पडोसी के घर में जलाये गये अलाव में हाथ सेंकने हो,
या जमूरा (प्लास), पेचकस मांगना हो या फ़िर बडा हथौडा 
या फ़िर फ़ोन सुनने के लिये देर रात पडोसी के वहां जाना क्यों ना हो,
शर्म नाम की चीज कभी भी पास नहीं फ़टकती थी। फ़ोन से याद आया कि फ़ोन सुनने में कोई परेशान नहीं होता था लेकिन यदि आपने किसी के घर जाकर वहां से किसी को फ़ोन मिलाया तो फ़ोन मालिक जरूर मन ही मन कुढता था। इसीलिये, उन दिनो फ़ोन के कुंजी पटल (डायल पैड) के उपर चिपकाने वाला एक ताला मिलता था। मुझे ये भी याद है, कि कई सज्जन तो ऐसे होते थे कि आये तो कम से कम पांच-: फ़ोन करके ही जाते थे। ऐसे सज्जनों से निपटने के लिये भीतर के कमरे में फ़ोन की वायर को खुला रखा जाता था। जैसे ही अंकल दिखे तो मेरा कर्त्तव्य, भीतर के कमरे से फ़ोन के तार ढीला करना होता था। फ़िर जैसे ही अंकल ने कहा कि अरे एक फ़ोन करना था, तो माताजी या पिताजी के लिये कहना सरल होता था, कि अरे फ़ोन तो कल से डेड पडा है, ये लाईन मैन तो हर हफ़्ते जान बूझ कर हमारा फ़ोन खराब कर देता है। फ़िर भी पडोसियों में उन दिनों इतना प्रेम होता था कि अगले हफ़्ते अंकल फ़ोन करने फ़िर आते थे, और कई बार अपने उद्देश्य में सफ़ल भी हो जाते थे।

यदि आज पीछे मुड के देखुं तो मुझे लगता है कि पिछ्ले दस पन्द्रह वर्षों में भारतीय मध्यम वर्गीय परिवार बडे उदार हुये हैं। यह बात सही है, कि आज भी दहेज दिया और लिया जाता है, गर्भस्थ शिशु का लिंग निर्धारण, गर्भ हत्या या फ़िर नवजात बेटियों को आज भी मारा जाता है। बहुओ के जलने की खबरें भी सुनायी ही पड जाती हैं, (मैं आनर किलिंग की बात नहीं कर रहा हुं) लेकिन फ़ोन करने देने के मामले में अब भारतीय परिवार बडे उदार हो चुके हैं. लाक लगाने या तार ढीले करने की बातें तो अब विलुप्त हो चुकीं हैं।
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मैने ढाका से कहा,
यार ढाका, पम्प तो है पर पापा ने मना किया है घर से बाहर ले जाने को। लेकिन तुझे पम्प से करना क्या  है, हां कैंची तो में जेब में छिपा के ले आउंगा।

अबे थाले, हमें वो तैंची नहीं चाहिये, टैंटु बोला।

देख मेरे पापा ने अपनी सैकिल दी हैगी मुझे और कहा हैगा कि चौराहे से हवा भरा ला, मैने सोचा हैगा कि चौराहे जाने से अच्छा तेरे वहां से ही हवा भर लेंगे और फ़िर जो समय बचेगा उसमें थोडा सैकिल में घूम लेंगे।  

देखा तोबेतालके मकान के सहारे एक सैकिल खडी थी, पुरानी सी लेकिन बहुत बडी साईकिल थी और दोनो टायरों में हवा भी नहीं थी। तभी टैंटु बोला,
तलो बेता, अब तौलाहे पल ही तलते हैं, वहीं हवा भी भल लेंगे।
वैसे मुझे घर से चौराहे पर बिना बताये जाने कि अनुमति नहीं थी, लेकिन मैने सोचा कि किसको पता चलेगा, जल्दी जायेंगे। फ़िर हम तीनों चौराहे की और चल दिये जहां साईकिल वाले की छोटी सी दुकान थी। हम तीनों ने एक-एक कर, क्रम से साईकिल चलाने को मिली, ढाका बोला कि,
पैले तुम दोनो एक एक कर साईकिल चला लो (पैदल), चौराहे पे मुझे दे दियो समझे हैंगे कि नहीं।

उस साईकिल को पकड कर साथ चलने में भी एक गर्व की अनुभूति हो रही थी। और फ़िर जैसे ही चौराहा आया तो ढाका ने बडी बेरुखी से अपनी साईकिल हम से लेकर खुद उसको पकड कर चलने लगा। अब आगे-आगे साईकिल के साथ ढाका और पीछे-पीछे में और टेंटु। ये थोडा भीड-भाडा वाला चौराहा था। यहां पर छोटी-छोटी दुकानें और एक बडा बरगद का पेडा भी था, और उसी के नीचे उद्दा की दुकान थी। उद्दा साईकिल ठीक करने का काम करता था। उद्दा का वास्तविक नाम उदय कुमार था, पहले कभी लोग उसेंउदय दा’ (दा का मतलब बडा भाई) कहते थे, पर धीरे धीरे समय के साथ उदय दा, उद्दा हो गया था। 

ढाका वहां चौराहे के लगभग सभी लोगो को जानता था। एक तो वह आज साईकिल ले के निकला था सो जान बूझ कर वहां के लोगो को इस बात का अहसास कराने के लिये ढाका उनके नाम ले लेकर उनके हाल चाल पूछता, और फ़िर हमारी तरफ़ मुड के इस तरह देखता कि मानो यह कह रहा हो कि  देखो मेरी कितनी जान पहचान है। और मजेदार बात यह थी कि सारे लोग उसे ढाका के ही नाम से जानते थे उसका असली नाम कोई नहीं जानता था। संक्षेप में कहें तो  ढाका एक साईकिल से दो शिकार कर रहा था।

कुछ देर में हम लोग मुख्य चौराहे पर पहुंच गये थे, जहां दिन भर अच्छी खासी भीड-भाड रहती है। साइकिल को ढाका बडे शान से लेकर चल रहा था। मैं और टेंटु उसके अगल बगल चल रहे थे। मेरा  ध्यान इधर-उधर यह देखने में लगा था कि कोई पहचान का व्यक्ति मुझे देख ना रहा हो। तभी अचानक भडाम की आवाज हुई, और जैसे ही मैने मुड के देखा तो क्या देखता हुं कि साईकिल जमीन पर एक ओर गिरी पडी थी, और ढाका अपने हम उम्र एक लडके की कमीज का कालर पकड के उसे झकझोर रहा था।
अबे! निकाल मेरे पैसे, ये दस का नोट मेरा हैगा, देता हैगा कि नहीं साले।

थोडी देर बाद हमने उस लडके को बडे अनमने ढंग़ से एक दस का नोट ढाका को देते हुए देखा। 
त्यों बे ढाका ये त्या कर रहा है, टेंटु बोला?
बेट्टे! डान जो करता हैगा, सही करता हैगा, अभी बताता हुं पहले उद्दा से सैकिल में हवा तो भरवा लें।                
उद्दा साईकिल में हवा भरने के पचास पैंसे लेता था, जो उसें कोई देता नहीं था। यदि आप उद्दा की दुकान पर उसके पम्प से अपने आप हवा भरते हैं तो कोई पैसे नहीं देने पडते थे, हां शर्त ये की पम्प खाली होना चाहिये। यदि आपका टायर पंचर है तो पंचर ठीक करवाने पर उद्दा हवा फ़्री में भरता था। तो बडे लोग तो अपने आप पम्प से हवा भर लेते थे परन्तु बच्चों के भरने से हवा नहीं भर पाती थी बस खाली फ़ुस-फ़ुस होती रहती थी।

उद्दा साईकिल में हवा भर दो।

पचास पैंसे लुंगा।

ले लियो उद्दा, जे देखो दस का नोट हैगा। जल्दी भर दो टाइम नी हैगा आज अपुन के पास।

ढाका ने नोट को हमारी ओर भी दिखाया और एक आंख मारी, और बोला,
जे नोट किसी की जेब से गिरा हैगा, और मैने उस लडके को इसे उठाते हुए देख लिया हैगा। जभी तो मैने कहा कि मेरा हैगा। दे नी रिया था, थोडा धमकाना पडा हैगा। सैकिल जभी गिरी जब मैं नोट छिनने के लिये उसकी ओर लपका हुंगा, तुम क्या समझे थे कि मैं सैकिल युं ही गिरा दुंगा। चलो आज पार्टी हैगी, उद्दा सैकिल में हवा भरके रखो अभी आते हैंगे।

यह कहकर ढाका हमें थोडी दूर एक कोने में स्थित चाय पानी की दुकान में ले गया। जाते ही दुकान वाले से ढाका ने कहा, दियो भाई एक बोतल। बोतल सुनते ही हमारे कान खडे हो गये।

ठंडी वाली दियो,

जै लो भैय्या।

तभी हम क्य देखते हैं, कि दुकान वाले ने एक प्लास्टिक के बडे डिब्बे के अंदर हाथ डाला, उस डिब्बे के अंदर बर्फ़ के टुकडों के बीच कई, संतरी और काले रंग के पेय पदार्थों से भरी कांच की बोतलें थी। यह वही बोतलें थी जिनके विज्ञापन टेलीविजन में दिखाये जाते थे। टैंटु और मैने हर्ष विभूषित होते हुये एक दूसरे की आंखों में देखा, मानो यह बात हुई की आज तो ढाका रूप धारी मोहिनी हमें अम्रत पिलवाने जा रही हो। मैने तो आज तक बस फ़्रूटी का ही स्वाद चखा था, इन संतरी-काली बोतलों को तो बस हम बडी-बडी दुकानों में दूर से ही प्रणाम कर लेते थे कि कभी हम भी बडे होंगे और इनका पान करेंगे। संतरी रंग के द्रव की बोतलों में माजा और गोल्ड्स्पाट आते थे, और संतरी वर्ण का पेय ही मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करता था, हां वह बात अलग थी कि कभी इन बोतलों को मुंह में लगाने का सुअवसर अब तक नहीं मिला था। और काले रंग की बोतलों में आने वाले अम्रत का नाम था, कैम्पा-कोला, पता नहीं इस काले द्रव ने मुझे कभी आकर्षित नहीं किया। संभवत: यह जीभ जलाने वाले काले चूरन खाने का परिणाम था। इसको कुछ इस तरह से भी कह सकते हैं कि, काले चूरन का जीभ जला, कैम्पा-कोला भी फ़ूक-फ़ूक के पीता है।

मैं मन ही मन पार्थना कर रहा था कि काश ढाका, संतरी वाली बोतल ले, तो माजा जाये, परन्तु भगवान कब सुनने वाला था। दुकान वाले ने कैम्पा-कोला की बोतल उठाई और ढाका ने सिर हिला के कहा, जे ही वाली।

मुझे मन मसोस के रहना पडा, लेकिन दान की बछिया के भी कहीं दांत देखे जाते हैं क्या, मैने मन ही मन कहा की चलो यह ही पी लेंगे। आगे क्या देखते हैं कि दुकान वाले ने नाखून-कटर में लगे रहने वाले विभिन्न तरह के चाकुओं में से एक का प्रयोग कर उस बोतल के उपर लगे धातु के ढक्कन को खोलने चाहा तो, तो ढाक तपाक से बोल पडा,
हेssssss रहने दो, रहने दो, हम खोल लैंगे।

वह तो ढाका ने हमें बाद में किनारे आकर समझाया कि,
बेटा! जे दुकान वाला बडे चालू हैगा, बोतल के ढक्कन को खुद ही रख लेते हैंगा। जे ढक्कन ही तो सबसे बडे काम की चीज हैगी, यदि जे ढक्कन नहीं हैगा तो आप ओरों को कैसे बताओगे कि आपने आज कैम्पा-कोला या फ़िर गोल्ड्स्पाट की बोतल पी हैगी। दुसरी इस ढक्कन में हमेशा इस कैम्पा-कोला की खुशबू आती हैगी, कभी भी सूंघ लो। और तीसरा फ़ैदा यह हैगा  कि हमेशा इस ढक्कन के नीचे देखो, इसमें ईनाम निकलते हैंगे। और बेटे, अगर पेप्सी के ढक्कन के नीचे यदि ईनाम निकला तो, बेटा सचिन से मिल सकते हैंगे।

अब ना तो मैने कभी पेप्सी का नाम सुना था और यह सचिन कौन नया दुकानदार था, मुझे तो कुछ समझ में नहीं आया था। और कौन सा समझने की आवश्यकता थी, मैं और टैंटु तो बस इस इंतजार में थे कि कब ढक्कन खुले और दो बूंद जिंदगी की मिलें, वरना तो हम एक कान से सुनकर बस दूसरे से वायुमंडल में छोड रहे थे। 

और इस ढक्कन का अंतिम फ़ैदा जे हैगा बेटा कि हम इससे चकरघिन्नी बना सकते हैंगे। चलो अब बोतल खोलते हैंगे।        

मेरे मन में एक बडी शंका थी कि हमारे पास तो ढक्कन खोलने वाला यन्त्र था ही नहीं, तो हम इस बोतल को खोलेंगे कैसे? परन्तु मेरी शंका को सदैव की भांति आज भी ढाका ने निर्मूल सिद्ध कर दिया, जब उसने उस ढक्कन को पलक झपकते ही अपने दांतों से खोल कर रख दिया। मुझे तो ऐसा लग रहा था कि, द्रोणाचार्य रचित चक्रव्युह को पलक झपकते ही तोडने वाला, साक्षात अभिमन्यु ही मेरे सामने खडा हो। मैने देखा कि जैसे ही बोतल का ढक्कन खुला, उसमें से कुछ धुआं सा निकलने लगा, और फ़िर पल भर में वह काला द्रव झाग के साथ ऊपर उठने लगा था। मेरा तो सारा उत्साह ही समाप्त हो गया कि यह तो कुछ गडबड चीज है, इसको पीकर यदि मैं घर गया तो मेरा काम हो गया। शायद वही हाल टैंटु का भी था। जहां हम दोनो कुछ सहमे से थे, वही ढाका ने बडी शीघ्रता से उस बोतल को अपने मुंह में लगा लियाऔर वह उबलता हुआ काला द्रव ढाके के पेट में समाने  लगा। अभी तक अभिमन्यु लगने वाले ढाका में मुझे अब साक्षात भगवान शंकर दिखायी दे रहे थे, जिन्होने जीवन की रक्षा के लिये उस कालकूट विष को भी पी दिया था। यह द्रश्य तो वास्तव में देखने लायक था कि कैसे घूंट में घूंट लेकर ढाका उस खतरनाक द्रव को पीता जा रहा था। हलाहल पीने के बाद तो भगवान शंकर का भी गला नीला पड गया था, परन्तु इस राक्षस पर तो इसका भी कुछः असर नहीं पड रहा था। मन ही मन मुझे टेलीविजन में दिखाया जाने वाला कायम चूर्ण का वह विज्ञापन याद रहा था जिसमें, एक शिकारी तीन राक्षसों (कब्ज, ऐसेडिटी और गैस) को बंदूक से गोली मार रहा होता है, और उन राक्षसों पर गोलियों का भी असर नहीं होता है।  मैं मन ही मन सोच रहा था कि काश ढाका इसे पूरा ही पी जाय, जिससे मुझे ना पीना पडे यह काला हलाहल। लेकिन ढाका ने आधी से ज्यादा बोतल खत्म कर मेरी और बडा दी,
ले ठुल्ले पीले तू भी,
पहले टैंटू को देदे,
मैने सोचा कि पहले टैंटू को भी पी लेने दो, फ़िर थोडा और कम बच जायेगा, और क्या पता टैंटू ही सारा पी जाय। परन्तु टैंटू ने तो साफ़ मना कर दिया कि वह नहीं पीयेगा। अब तो मुझे ही पीना था यह जहर का प्याला। उधर से ढाका चिल्ला रहा था कि जल्दी पी वरना सारी गैस निकल जायेगी। तभी मुझे बहाना याद गया कि मैं जूठा नहीं पीता, और मैने कह दिया कि मैं भी नहीं पीउंगा। लेकिन ढाका कहां मानने वाला था, उसने बोतल मेरे हाथ से ली और अपनी कमीज के निचले हिस्से से बोतल का मुंह पोछ के बोला,
ले बेटा अब पीले,

मरता क्या ना करता, अब मुझे बोतल मुंह में लगानी ही पडी, जैसे ही एक घूंट मेरे मुंह के अंदर गयी, ऐसा लगा कि जैसे मेरा मुंह जल गया हो, या फ़िर कुछ अजीब टाईप की मिर्च हो, उस तीखे  स्वाद का वर्णन करा तो असंभव है क्योंकि ऐसा कुछ मैने आज तक पीया ही नहीं था। लेकिन जो भी था बडा खतरनाक था। मैने बस एक घूंट और लगाया और बोतल ढाका के हाथ में पकडा दी, मुझे ऐसा लग रहा था कि मानो, तेजाब पी दिया हो। ढाका मेरी स्थिति समझ चुका था, वह हंसते हुये बोला,
बेटे! जे बच्चों के पीने की चीज नहीं हैगी। देखा, हम क्या पीते हैंगे।
यह कहकर ढाका ने बची-खुची कैम्पा-कोला भी अपने उदरस्थ कर ली। फ़िर बोतल वापस करने के बाद उसने एक जरूरी जानकारी दी कि,
बेटा! इसको पीने के बाद डकार आती हैंगी, लेकिन डकार लेने का एक सपेशल तरीका हैगा। जब भी इसको पीने के बाद डकार आये तो मुंह बंद कर दो और नाक के रास्ते निकलने दो। यदि इसकी डकार को मुंह से निकाला तो दांत कमजोर हो जाते हैंगे।
पीछे से टैंटू भी बोला,
जे छही कै रहा है, मेले दादा जी भी थूब बोतल पीते थे अपनी दवानी में, तबी तो उनके ताले दांत तूत गये थे। बेते बोतल पीना दन्दी बात है।

अबे चुप कर तेरे दादा जी वाली बोतल नी हैगी ये, कैम्पा-कोला पीने से तो ताकत आते हैगी, समझा।
अब मेरी तो जान ही निकले का रही थी कि ये आज क्या पी दिया, क्योंकी बार-बार डकार रही थी, और मुझे अपने हाथों से अपना मुंह कसकर बंद करना पड रहा था कि कहीं मुंह से ना निकल जाये। और मुंह से निकल गयी तो फ़िर ये दांत गये, और कोला की डकार को नाख के रास्ते निकलाना भी बडा दुष्कर काम था। यदि आपने कभी किया हो तो बताइयेगा।

फ़िर जो ढाका ने उस दिन जो बात आगे बतायी, उसे सुनकर मेरा तो भगवान से ही विश्वास उठ गया था। लेकिन अगला भाग आपकी टिपप्प्णीयों (मांग) के अनुसार आयेगा, जितनी ज्यादा पाठक और टिप्पणीयां उतने ही जल्दी ढाका का अगला भाग।  
             

   



      


 

10 comments:

sonu gupta said...

campa cola wala scene mazedaar ban pada hai......lekhak ne bahut hi sukshamta se bachpan ki manovrattiyon ko samjha hai aur unhe shabd diyen hai..........agle bhaag ke intzaar me.......

Unknown said...

ahaa... maja aa gaya .... bachpan ke aur sare bahane yaad aa gae.......mujhe tou cola hi pasand hai aur bahut baar meri naak se bhi bahar aaya hai.......dats was the worst part of drink'g cola...

Hitesh The Depandable said...

Hi
dhamki mat do likho bahut badiya apun sab yaad aga haiga

Unknown said...

kahani bahut mast ho gai haigi............agle bhag ka apun ko besbri se intjar hai ria haiga.inspecter sahab jaldi.....

कथाकार said...

@ धन्यवाद सोनु जी, आपकी समीक्षा लाजवाब है।

@मेघा जी धन्यवाद

@ हितेश जी, धन्यवाद, कोई धमकी नहीं थी, वो तो बस ये जानना चाह रहा था कि ढाका कितने पानी में है।

@ दीप्ती जी धन्यवाद, अगला भाग शीघ्र ही आ रहा है।

मुझे पूरा विश्वास है कि अगले भाग में वो पाठक भी कमेंट करेंगे जिन्होने आज तक कमेंट नहीं किया, ये मेरा अति विश्वास नहीं कह रहा है, वरन कहानी ही ऐसा मोड लेने वाली है।
पढते रहिये। धन्यवाद :)

Bhawana Rawat said...

I'm a big fan of Dhaka and his takiya kalam 'Haiga' :)

कथाकार said...

Nice to hear that Dhaka has already earned several fans. Thanks Bhawana for your appriciation. I am working on the next part and hopefully story will turn more intresteing in next episode. Please keep reading. Thanks :)

Anonymous said...

one thing is sure that "tere ghar main der hai par andher nahi"... imean whenever you comeback you come rocking dude.... Aik thumke pe teen lake......ek saikal par do shikar.... coca cola ki do tapkati boonden,.......shivji kee kaid wali baat jo ki bachpan main sahiu main bhagwaan ke taraf hamaaree gair jimmedari bhare vyavhaar ki kahaan i hai........what not yaar.... great sense of telling the tale///// the charecter DHAKA, TAINTU and finally the promoted THULLA,,, its great.......

too a good work.... if you get time call some time.. or give some contact no...... tujhe padta hun to likhne ka bhut man karta hai.. par bvahut aalsi ho gayaa hun,,,, par padne main bada majaa ayaaa

Anonymous said...

I suggest you have a name for your world of dhaka, taintu and inspector saab...... like a diffrent world of the writer..... will rock...

कथाकार said...

जुगल साब धन्यवाद आपकी टिप्पणी के लिये और सुझाव के लिये भी, देखिये आगे क्या होता है