स्कूल में एक दिन पहले
बताया जाता था, कि कल
छब्बीस जनवरी हैं और इस उपलक्ष्य में प्रभात फेरी निकाली जायेगी। प्रभात फेरी
विद्यालय के नियमित समय से थोड़ा पहले, अँधेरे में ही निकाली जाती थी। अतः केवल बड़ी कक्षा के विद्यार्थियों को ही
इसमें अनिवार्य रूप से उपस्थित होना आवश्यक होता था। घर पहुंचकर हमारा पहला काम प्रभात फेरी के
लिए झंडा बनाना होता था। कला (आर्ट) की कापी से एक पन्ना उखाड़ कर उसमें झंडा
बनाया जाता था और उसमें पानी-वाले मिट्टी के रंग भरे जाते। सींक वाले झाड़ू का सबसे मजबूत
सींक निकाल कर
उसे झंडे का डंडा बनाया जाता और प्रभात फेरी के लिए तिरंगा तैयार। मुझे याद है कि
कुछ ऐसे नमूने भी होते थे जो एक चबूतरे पर लहराते हुए तिरंगे का चित्र बनाते और फिर उस चित्र को एक डंडे पर लगा
कर विद्यालय आते थे।
छब्बीस जनवरी की सुबह
निर्मल और मैं सवेरे ही उठकर, नहा- धोकर सफ़ेद कपडे पहन प्रभात
फेरी के लिए विद्यालय को निकल जाते थे। आश्चर्य की बात होती थी कि जिस उत्साह से हम
छब्बीस जनवरी मनाने के लिए विद्यालय की और बढ़ते, वह उत्साह रास्ते में दिखने वाले किसी भी व्यक्ति
में नहीं दिखाई देता था। ऐसा लगता कि वास्तव में आज छब्बीस जनवरी है
भी कि नहीं, सारे
लोग-बाग़ तो ऐसा ही व्यक्त कर रहे हैं कि यह भी मानो एक सामान्य दिन ही हो। परन्तु हम जैसे ही विद्यालय
पहुंचते,छोटे-बढ़े, विभिन्न प्रकार के तिरंगों के साथ
आये साथियों को देखते
ही छब्बीस जनवरी का उत्साह फिर
से आ जाता। किसी के तिरंगे का पहला रंग पीला होता तो किसी के तिरंगे का रंग केसरिया
और किसी के तिरंगे का रंग संतरी होता। किसी का तिरंगा बहुत छोटा होता तो किसी का
बड़ा, और किसी-किसी के पास कपडे का तिरंगा भी
होता था।
कोई सफ़ेद पोशाक के
साथ काले जूते पहन आता तो किसी के गले से टाई नदारद होती और कुछ चप्पल पहने होते
और एक दो नालायक विद्यार्थी तो यह भी
भूल जाते थे छब्बीस जनवरी दिन सफ़ेद
पोशाक पहन कर आना था। विद्यालय प्रांगण में बरात की तरह प्रभात फेरी तैयार होती, सभी बच्चों को आदेश दिया
जाता कि दो-दो के जोड़ें में हाथ पकड़
कर एक लाइन बनायें। इस दल का
नेतृत्व एक विशाल
तिरंगा लिए हुए बालक करता, उसके पीछे-पीछे हम सब नगर
जगाने चल पड़ते। सभी को
साथ लेकर जब प्रभात फेरी, भारत माता कि जय के नारों
और देश भक्ति गीतों के साथ सूनसान, सोये रास्तों के बीच से गर्जना करती आगे बढ़ती तो जो लोग अभी तक मानो
सोये हुए थे,जाग
उठते।
वीर तुम बढे चलो,
धीर तुम बढे चलो।
सामने पहाड़ हो,
सिंह की दहाड़।
तुम निडर बढे चलो,
……… ....
.......
ध्वज कभी झुके नहीं,
दल कभी रुके नहीं।
…… ……।
रास्ते में मिलने वाले
राहगीरों की आँखें
सम्मान की दृष्टि से हमें निहारती, और हमें यह अहसास दिलाती की हम छोटे-छोटे बच्चे जो लहर बना रहे हैं
उससे उनके हृदय में भी देशप्रेम अंगड़ाई ले रहा है।
कुछ विद्यार्थी जो समय पर
विद्यालय नहीं पहुंचे होते, वह जहां
मिलते वहीँ से प्रभात फेरी में जुड़ जाते।
इस तरह देशभक्ति का कारवां
आगे बढ़ता जाता और लोग इसमें जुड़ते जाते। कई बार रास्ते में गुजरते लोग भी
देशभक्ति के नारे लगा कर हमारा जोश बढ़ाते। प्रभात फेरी में कई बार पीछे वाले
विद्यार्थी के जूते से दबकर कर आगे वाले विद्यार्थी के जूते ऐड़ी से बाहर निकला जाते, और कई बार तो पीछे वाले जान बूझकर आगे वाले विद्यार्थी के
जूते में पैर रखते जिससे आगे वाले बच्चे का जूता उसकी पैर की ऐड़ी से बाहर आ जाता। अतः प्रभात फेरी
में हमेशा कुछ बच्चे लाइन से बाहर निकल कर अपना जूता पहनने में लगे दिखायी देते, और फिर से प्रभात फेरी में कहीं
जुड़ जाते।
एक दो घंटे की पदयात्रा के
बाद प्रभात फेरी वापस विद्यालय पहुँचती और फिर झंडा रोहण किया जाता, सांस्कृतिक कार्यक्रम होते
और दो सूखे से लड्डू मिलते। लेकिन पता नहीं उन लड्डूओं में ऐसा क्या होता था, कि वो स्वादिष्ट लगते
थे, शायद इसलिए क्योंकि वो हमारी दिन भर की मेहनत के लड्डू होते थे। सबसे मजेदार बात यह होती कि इन लड्डुओं के चक्कर में हम हमेशा दूरदर्शन पर दिखाई जाने वाली गणतंत्र दिवस की परेड नहीं देख पाते थे, क्योंकि घर पहुँचने तक वह समाप्त हो चुकी होती थी।
सारे जहां से अच्छा
हिन्दोस्तां हमारा, हम
बुलबुलें हैं इसकी ये गुलदस्तों हमारा।
देश और देशवासियों को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं।
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