Monday 24 September 2012

मांग क्या मांगता है?


अंतत: मेरी कई महीनों की तपस्या सफ़ल हुई और मुझे ब्रह्मा जी ने दर्शन दिये और बोले,

पुत्र मैं तेरी निष्काम तपस्या से अति प्रसन्न हुआ, मांग तू क्या चाहता है?

मेरी तो मानो लाटरी लग गयी, मैने कहा,
हे प्रभु! आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हुए यही मेरे लिये गर्व की बात है, लेकिन आप इतना कह रहे हैं तो क्रपया मुझे यह वरदान दीजिये कि, मेरी म्रत्यु न दिन में हो न रात में, न अस्त्र से ना शस्त्र से, न देव के हाथों ना दानव से.  

ब्रह्मा जी का मुंह खुला का खुला रह गया, शायद मन ही मन कह रहे होंगे कि ये साला दूसरा हिरण्यकशिपु कहां से आ गया। फ़िर भी बोले,

हे वत्स! वरदान का नियम यह है कि एक वरदान बस एक ही व्यक्ति को दिया जा सकता है, और फ़ोर योउर काइन्ड इन्फ़ोर्मेशन यह वरदान मैं हिरण्यकशिपु को हजारों, साल पहले दे चुका हुं और वैसे जो तूने मांगा था तू उनमें से किसी से भी नहीं मरेगा। मांग क्या चाहता है?
 
अब यदि मैं अमरता का वरदान मांगता तो ब्रह्मा जी कहते कि यह रावण ने मांग़ लिया था, तो मैने थोडा दिमाग लगाया और कहा,

प्रभु मुझे पांच सौ साल की आयु दे दिजिये।

हठ पगले, सीधे सीधे क्यों नहीं कहता कि नेता बनना चाहता हुं।

नहीं प्रभु, आप मुझे गलत समझ रहे हैं, नेता बनने का मुझे कोई शौक नहीं है। मैं तो बस लंबी जिंदगी जीना चाहता हुं।

मूर्ख इतनी लंबी जिंदगी ले कर क्या करेगा। तेरे पोते, पडपोते और आने वाली पीढिया मुझे गालियां देंगे कि इसे इतनी लंबी आयु क्यों दी? क्यों बुडापा लेकर दूसरों पर बोझ बनना चाहत है?

यह बात मुझे भी उचित लगी, तो मैने सोचा कि क्यों ना देश के लिये ही कुछ किया जाय।  

प्रभु! मुझे बस एक दिन के लिये भारत का प्रधानमंत्री बना दो, मैं इस देश की व्यवस्था को सुधारना चाहता हुं, और अपने देशवासियों के लिये भी कुछ करना चाहता हुं।

देख वत्स! बना तो मैं तुझे प्रधानमंत्री सौ दिनों के लिये दुं, पर तू क्या उखाड लेगा? अपना ईमानदार मन मोहन पिछले आठ साल में कुछ नहीं कर पाया तो तू क्या कर लेगा।

मैं सोच में पड गया, कि बात तो वैसे ब्रह्मा जी की सही थी कि अपने आप को ईमानदार कहने वाले मौन- मोहन जी भी यदि आठ साल में कुछ नहीं कर पाये तो मैं क्या कर लूंगा। ब्रह्मा जी आगे बोले।

मुझे लगता है कि या तो तू महा मूरख है या फ़िर प्रधानमंत्री बनाने को कहकर मेरी बेज्जती कर रहा है। अबे क्या रखा है, प्रधानमंत्री बनने में, मांगना है तो कोयला मंत्रालय मांग, दूरसंचार मंत्रालय मांग। मांग ही रहा है तो कम से कम ऐसी चीज तो मांग कि तेरी आने वाली सात पुश्तों को दुबारा ना मांगना पडे।

नहीं प्रभु, यह आप क्या कह रहें हैं, आप तो जानते हैं मैं एक देश भक्त, ईमानदार व्यक्ति हुं।
अरे, तुम्हारे जैसे सीधे-सादे ईमानदारों के कारण ही तो तुम्हारा देश लुट रहा है, वो लूटते रहते हैं और तुम अपनी ईमा्नदारी की दुहाई देकर चुप बैठे रहते हो। छोडो मैं भी कहां पहुंच गया। हां, तुझे क्या चाहिये शीघ्र बता?     

आपने तो मुझे कन्फ़्युज कर दिया, मेरे तो कुछ समझ नहीं आ रहा है कि क्या मांगु। अच्छा प्रभु आपने कहा कि मेरी म्रत्यु न शस्त्र से होगी ना अस्त्र से, न दिन में न रात में, न देवता के हाथों ना असुर के। यह तो बताइये कि मेरी म्रत्य आखिर कैसे होगी?

निरे मूर्ख, तू महंगायी से मारा जायागा। हाहा हाहा हाहा

ब्रह्मा का अट्टहास मेरे कानों में वज्र की भांति प्रतीत हुआ, मानों वो हमारी मूर्खता पर हंस रहे थे। मुझे लगा कि महंगायी का तोड मुझे मालूम है। देखो अभी हिसाब बराबर करता हुं।

हे प्रभु, आप मुझे बस ढेर सारा पैसा दे दीजियेजब मेरे पास ढेर सारा पैसा होगा तो मैं महंगायी से कैसे मरुंगा। प्रभु यही है मेरी मांग।

मेरा इतना कहना था कि एक बडा अट्टहास हुआ और ब्रह्मा जी गायब हो गये, और फ़िर आकाशवाणी होने लगी।

हे मेरे मूर्ख भक्त! ये तेरे वरदान की आखिरी बारी थी और तूने इसे अपनी मूर्खता से बेकार कर दिया। तुझे इतना भी नहीं मालूम कि पैसे पेड पर नहीं लगते हैं।

ऐसा अन्याय मत कीजिये प्रभु, अपने इच्छा से ही कुछ दे दीजिये? कुछ भी।

तथास्तु! मैं तुझे एफ़ डी आई देता हुं, मौज कर।

तभी अचानक से मेरी नींद खुली टीवी पर मोहन सिंह पत्रकारों को संबोधित कर रहे थे, कि रुपये पेडों पर नहीं.......             

Tuesday 18 September 2012

आकाशगंगा का यात्री

कल्पना कीजिये कि आप ट्रेन से अकेले  यात्रा कर रहे हैं और  आपका  गंतव्य एक छोटा सा रेलवे स्टेशन है। आप पहली बार इस स्थान पर जा रहे हैं और आपकी ट्रेन इस स्टेशन पर मात्र दो मिनट रुकती है। मध्य रात्रि का समय है और सारे सहयात्री आराम से सो रहे हैं। आपके साथ ढेर सारा सामान भी है। आपने अपने स्मार्ट्फ़ोन का जीपीएस प्रारंभ करके अपनी स्थिति देखनी चाही लेकिन फ़ोन में सिग्नल नहीं है। इस दौरान कितनी उधेडबुन रहती है कि मेरा स्टेशन ये वाला है या अगला वाला? कहीं इस आधी रात में गलत स्टेशन में ना उतर जाउं?

कल्पना कीजिये कि बीस जुलाई १९६९ को नील आर्मस्ट्रांग के मन में क्या बीत रही होगी, जब वो अपना कदम चन्द्रमा पर रखने जा रहे थे। ऐसा स्थान जहां पहले कोई मानव नहीं पहुंचा था। नील आर्मस्ट्रांग, एडविन एल्ड्रिन और माईकल कालिंस ने मिलकर पहली बार वह किया जिसे फ़िल्मों के सेट पर हम देखने भर से ही रो्मांचित हो जाते हैं। योजनानुसार, माईकल कालिंस चन्द्रमा की परिक्रमा करते रहे, जबकि आर्म्स्ट्रांग और एल्ड्रिन एक छोटे यान से चन्द्रमा की सतह पर उतरे। और बस उतरे ही नहीं सकुशल वापस धरती पर लौटे। उस समय तक और उसके बाद भी हमने सुपर हीरो को फ़िल्मों और कामिक्स में ही देखा था, परन्तु क्या ये तीनों पहले जीवित सुपर हीरो नहीं थे? जो विज्ञान की सहायता से धरती से अंतरिक्ष में गये और वहां से बिलकुल अनजान रास्ते पर चलते हुए चन्द्रमा पर पहुंचे और फ़िर वापस अपने यान को चलाते हुये धरती पर सकुशल उतरे। निश्चित रूप से इस सफ़लता के पीछे हजारों-लाखों वैज्ञानिकों का दिन-रात का श्रम था, फ़िर भी नील आर्मस्ट्रांग एक तरह से धरती के पहले दूत थे तो चंदा मामा तक गये। कोई नहीं जानता कि आने सालों में हम मंगल ग्रह पर भी पहुंच जाये, लेकिन जिस प्रकार हमारे जीवन में प्रथम बार होने वाली बातें कुछ विशेष स्थान रखती हैं। इसी प्रकार नील आर्मस्ट्रांग और एडविन एल्ड्रिन  की वह यात्रा, मानव सभ्यता की यादगार यात्रा थी और सदैव रहेगी।

 (चित्र साभार:नासा) 

रहस्यमयी अंतरिक्ष ने सदैव ही मानव को अपनी और आकर्षित किया है और कुछ ऐसे थे जो वहां पहुंचे और इस विशाल समुद्र में अपनी उपस्थिति जताई। नील, मानव सभ्यता तुम्हारी आभारी रहेगी कि तुमने अपनी टीम के साथ इस असंभव लगने वाले चैलेंज को लिया और बिना किसी गलती से पूरा किया।   

संभवत: यदि नील आर्मस्ट्रांग अपनी प्रेमिका से कभी कहते कि चलो दिलदार चलो चांद के पार चलो, तो वह निश्चित रूप से विश्वास करती क्योंकि कम से कम नील के बारे में तो यह बात विश्वास करने योग्य थी। 

नील आर्मस्ट्रांग अब इस धती पर नहीं रहे पर शायद कहीं अंतरिक्ष में...
श्रद्वांजलि इस महामानव को...            

Saturday 15 September 2012

घरेकि बात छु


आर्य जी को कुमाउंनी बोली के प्रति कुछ ज्यादा ही लगाव था और उनका एक ही प्रिय वाक्य (डायलाग) था, `घरेकि बात छु `। इसका वाक्य का भावार्थ हिन्दी में कुछ इस तरह किया जा सकता है कि जल्दी बाजी की कोई जरुरत नहीं है, कछुए की तरह धीरे धीरे लगे रहो और कक्षा में अपने घर जैसा ही अनुभव करो । अपनी पुस्तिका (कापी) जचंवानी (चेक करानी) हो तो जचंवा लो, नहीं तो जब मन करे करवा लेना, घरेकि बात छु। किताब लाये या ना लाये, कोई बात नहीं, घरेकि बात छु। आर्य जी का मन करे तो स्कूल आना भी घरेकि बात छु। हां, यदि किसी बात पर आर्य जी को क्रोध आ गया तो वह परशुराम या दुर्वासा का अवतार हो जाते थे, और फ़िर एक बच्चा पिटेगा और पूरी क्लासएवटर’ (हालीबुड फ़िल्म) का आनन्द लेती थी।

आर्य जी, वैसे तो मजाकिया किस्म के अध्यापक थे पर क्रोधित होने में भी देर नहीं लगाते थे। नीली ऊन की नेपाली टोपी वाले आर्य जी की आंखों की द्रष्टि भी थोडी टेडी मेडी थी, जनसाधारण की भाषा में आर्य जी ढेडें (भैंगे) थे। अत: कुछ (गन्दे)बच्चे उन्हे आर्या ढेंडा भी कहते थे। कक्षा में यदि उन्होने नाम लेकर किसी बच्चे को उठाया तो ठीक नहीं तो कन्फ़्युजन हो जाता था, आखिर कह किससे रहे हैं? आर्य जी देखेंगे कहीं ओर और कह देंगे, ‘उठ रे चल आगे पढ’। अब विद्यार्थी को कैसे पता कि, कहां पर तीर कहां पर निशाना। यदि वह लडका एक-दो बार कहने पर नहीं उठा तो (अब यह तो किसी को भी नहीं पता कि आखिर कौन सा लडका), ले दना दन,
सूउर की औलाद,
बनिये की दुकान समझ रखी है..............   

मेरा छोटा भाई, कक्षा सात में पढता था, और उसके कक्षाध्यापक श्री रमेश चन्द्र आर्य जी थे। कक्षा सात का मासिक शुल्क (फ़ीस) चालीस रुपये के आस पास था, परन्तु आर्य जी बच्चों को पांच या दस रुपया बढा के बताते थे। पूरी कक्षा में सत्तर-अस्सी विद्यार्थी थे और इस प्रकार प्रत्येक माह गुरुजी अपने चाय पानी का अच्छा इंतजाम कर लेते थे। इसके अतिरिक्त साल में कक्षा में एक बार सफ़ेदी करवाने के लिये प्रत्येक विद्यार्थी से ए-दो रुपये अतिरिक्त जमा करवाते, परन्तु चूना कक्षा में लगाने के बजाय विद्यार्थीयों को लगाते। चूने वाले बात तो लगभग सभी बच्चों को पता थी परन्तु अतिरिक्त  फ़ीस  में बारे में शायद ही किसी बच्चे को पता था। मेरे भाई को इस बारे में कहीं से भनक लगी तो उसने स्कूल के कार्यालय में जा कर इस बात की पुष्टि की आर्य जी अनार्यों वाले क्रत्य कर रहे हैं, और मुझे बताया। बात यह थी कि यदि कोई विद्यार्थी इस बारे में आर्य जी से कुछ पूछता तो समझों वह साल भर के लिये आर्य जी का ‘पंचिंग बैग' बन जाता और आर्य जी ‘घरेकि बात छु’ समझ कर कभी भी उस पर हाथ साफ़ करते रहते।

मैने सोचा कि यह बात प्रिंसिपल साहब के सामने अवश्य आनी चाहिये, अन्यथा आर्य जी ‘घरेकि बात छु’ समझ कर ऐसा करते रहेंगे। अत: मैने एक अनाम पत्र प्रिंसिपल साहब के नाम लिखा, जो कि बहुत ईमानदार और बडे तेज तर्रार व्यक्ति थे। प्रत्येक माह की पन्द्रह तारीख को फ़ीस जमा की जाती थी, जो की कक्षाध्यापक महोदय पहले वादन (पीरियड) में करते थे। मैने पन्द्रह तारीख को प्रार्थना सभा से ठीक पहले यह पत्र प्रिंसिपल साहब के दफ़तर में किसी तरह पहुंचा दिया था। फ़िर आगे का हाल मेरे भाई ने शाम को घर में आकर बताया।

पहले वादन में आर्य जी ने रजिस्टर खोल कर फ़ीस जमा करनी प्रारंभ की और फ़िर थोडी देर बाद प्रिंसिपल सर का कर्मचारी एक प्रष्ठ (पेज) लेकर आर्य जी के पास आया। मेरा भाई उस पेज और कर्मचारी को देख कर ही समझ गया कि अब क्या होने वाला है । यह वही पत्र था जिसे मैंने प्रिंसिपल साहब को भेजा था। उन्होनें उस पर नोट लिखकर आर्य जी को भेजा कि यह सब क्या चल रहा है? पत्र पढने के बाद आर्य जी का चेहरा देखने लायक था, यह बात बस मेरा भाई अनुभव कर सकता था क्योंकि उसे पूरी कहानी पता थी। आर्य जी ने उस पत्र पर हस्ताक्षर कर के प्रिंसिपल साहब के पास लौटा दिया और फ़िर से फ़ीस जमा करने लगे और सबको बताया कि फ़ीस थोडा कम हो गयी है। लेकिन वह यह बात तो समझ गये थे कि घर का भेदी लंका ढावे, हो न हो पत्र लिखने वाला इसी कक्षा में बैठा है। संभवत: उन्होने मन ही मन पत्र की हैंड राइटिंग पहचानने का प्रयास किया होगा। अंतत: उनका संदेह कक्षा के एक ऐसे विद्यार्थी पर गया जो थोडा नेता किस्म था। थोडी देर के बाद कोई मौका ढूंढ कर उन्होने उस विद्यार्थी की जम के कुटाई की और शायद थोडी मानसिक शांति पायी हो। परन्तु उसके बाद से आर्य जी ने कक्षा में सफ़ेदी के लिये कभी अतिरिक्त पैसा नहीं लिया।



                  

Wednesday 12 September 2012

एक नेता की चिठ्ठी आपके नाम


नेता सबका धन हरें, बढाये जन की पीर
भ्रष्टाचार के कारने, नेताजी धरयो शरीर।

ये मेरी आत्मकथा है। मैने इसे मेरी इसलिये कहा क्योंकि हम नेताओं की हर चीज अपनी ही होती है, हम किसी को भी पराया नहीं मानते हैं। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना, जिसका अर्थ होता है कि सम्पूर्ण संसार अपना कुटुंब/घर है, को हम नेता और परोपकारी (साधु-संन्यासी) दोनो तरह के लोग मानते है। बस केवल अंतर इतना ही है परोपकारी लोग पूरे संसार को अपना मान कर अपना सब कुछ दीन-दुखियों को दान कर देते हैं, परन्तु नेता पूरे संसार को अपना कुटुंब मानकर नि: संकोच सबसे कुछ ना कुछ ले ही लेते हैं, आखिर इसमें शरमाने की क्या बात, वसुधैव कुटुम्बकम। ऐसी बात नहीं है कि नेता बस लेना ही जानते हैं। ऐसी वस्तु तो कोई भी दे सकता है जो उसके पास है, परन्तु आश्चर्य की बात तो तब है जब कोई मनुष्य ऐसी चीज किसी भी व्यक्ति दे के दिखा दे जो उसके पास नहीं। ऐसी वस्तु को कहते हैं आश्वासन, जिसे देना हर किसी के बस की बात नहीं है। ऐसी ही कई छुपे हुए गुण नेताओं में होते हैं जो उन्हें मानवों की श्रेणी से अलग करते हैं। आज मैं नेताओं के उन गुणों का वर्णन करुंगा, जो एक नेता को एक साधारण व्यक्ति से अलग ला खडा करते हैं। हर मानव नेता नहीं हो सकता है और हर नेता मानव नहीं होता है।

नेताओं की उत्पत्ति: नेताओं की वास्तविक उत्पत्ति प्रजातन्त्र के आरंभ से मानी जाती है। हालांकि नेता उससे पहले भी होते थे, जिन्हे राजा के दरबार में चाटुकारों (मंत्रियों) के नाम से जाना जाता था। राजाओं के समय में नेता (चाटुकारों) के हाथ में कुछ भी शक्तियां नहीं होती थी, उनका कार्य बस राजा की बातों में हां में हां मिलानी होती थी। लेकिन जिस दिन से राजतन्त्र समाप्त हुआ और प्रजातन्त्र  या जनतन्त्र  आया तभी से चाटुकारों को एक नया नाम मिल गया, ‘नेता', और जब ये नेता जा मिले तो इनसे बनी सरकार, कहीं का ईंट कहीं का रोडा, भानुमती ने कुनबा जोडा। 

नेताओं के शत्रु और मित्र: चीन के एक विचारक ने कहा था कि सत्ता बंदूक की नाल से निकलती है। इसका अर्थ है कि सत्ता और शक्ति का आपस में बहुत बडा संबन्ध है। यदि आपके पास शक्ति है (डाकू, लुटेरे या फ़िर दबंग) तो आपके पास सत्ता आ सकती है और आप सांसद या विधायक बन सकते हैं, और यदि आपके पास सत्ता है (मतलब है कि आप सरकार में है) तो आपके पास सीबीआई और पुलिस की शक्ति होती है।   

एक सच्चे नेता का कोई स्थायी (परमानेन्ट) मित्र या शत्रु नहीं होता है। नेता अपने लाभ के लिये मित्र को भी गिरा सकता है और शत्रु से भी मित्रता कर सकता है। हांलाकि हर एक ईमानदार व्यक्ति  नेता का सबसे बडा जानी दुश्मन होता है, चाहे वह उसका पिता, माता या भाई ही क्यों ना हो। सीधे शब्दों में कहें तो नेतागिरी और ईमानदारी में छत्तीस का आंकडा होता है। लेकिन अपवाद कहां नहीं होते हैं, कभी हजार सालों में कोई ऐसा नेता भी पैदा हो जाता है जो नेता भी हो और ईमानदार भी हो। हालांकि जनता ऐसे नेताओ से सर्वाधिक प्रेम करती है, परन्तु नेताओं की नेता-बिरादरी में कुल-कलंक माना जाता है।

हमारे दूसरे शत्रु प्रसिद्ध फ़िल्म कलाकार और प्रसिद्ध क्रिकेटर होते हैं। क्योंकि यही वह व्यक्ति होते हैं जो खांटी से खांटी नेता तक को चुनाव में बुरी तरह हरा सकते हैं। इतिहास में से जैसे कुछ नाम हैं, अमिताभ बच्चन, नवजोत सिद्धु, हेमा मालिनी, गोविंदा, शत्रुघन सिन्हा, धर्मेन्द्र, जया प्रदा, जयललिता और पिछ्ले चुनावों में मुरादाबाद लोकसभा सीट से नया-नया सांसद बना मोहम्मद अजहरुद्दीन। एक पुरानी कहावत है जिसका काम उसी को साजे, और करे तो डंडा बाजे। मैं पूछता हुं आखिर क्या जरूरत है किसी को अपना काम छोडकर दूसरे के काम में टांग अढाने की।  नेता तो नहीं जाते कभी क्रिकेट खेलने या फ़िल्मों में हीरो बनने। और याद रखना जिस दिन कोई नेता मुंबई जाकर फ़िल्म में अभिनय करने लगा ना तो इन सारे अमिताभ, अभिषेक, आमिर और सलमान की छुट्टी कर देगा, क्योंकि नेताओं से ज्यादा अभिनय (एक्टिंग) करना भी क्या किसी को आता है। ये तो नेता का अपने कार्य के प्रति समर्पण है कि वो बस अपने काम (नेतागिरी) से मतलब रखते हैं।  और ये क्रिकेटर तो नेताओं के सामने तो बच्चे हैं, ये सचिन तेंदुलकर भी और कितने साल क्रिकेट खेल लेगा, एक साल, दो साल या फ़िर ज्यादा से ज्यादा अगला वर्ड कप, आखिर कभी ना कभी तो सन्यास लेगा ही ना। पर एक नेता जिस दिन देश-सेवा (नेतागिरी) के लिये कदम रखता है उसके बाद वह नेतागिरी से सन्यास अपने अंतिम संस्कार के ही दिन ही लेता है। तो आप ही सोचिये कौन बडा हुआ, ये झूठे फ़िल्म कलाकार, ये चार दिन के क्रिकेटर या फ़िर एक नेता जो अपनी पूरा जीवन नेतागिरी के लिये दे देता है। वैसे नेताओं के दुश्मनों की सूची बहुत लंबी होती है, आखिर मैं किस किस का नाम गिनाउं। सबसे सरल तरीका है, चाहे वह कोई भी व्यक्ति हो, यदि वह ईमानदार है तो वह नेता का घोर वैरी है,

मेरे सहयोगी लाख समझाते हैं कि अब नब्बे पार करने वाले हो, अब खुद तो चल नहीं सकते हो, देश क्या चलाओगे, अब संन्यास ले लो। पर क्या करुं दिल है कि मानता नहीं। मुझे अपनी चिन्ता नहीं है लेकिन आने वाली पीढियों (मेरा मतलब मेरे नाती-पोतो से है) के बारे में सोचता हुं, इसलिये इतनी उम्र होने ने बाद भी संसद जाने की सोचता हुं, और राजनीति से सन्यास नहीं लेता है। अत: मेरी आप सब से विनती है कि अगले चुनावों में जब भी वोट देने जायें तो अपना वोट देने से पहले मेरी इन बातों को अवश्य ध्यान रखिये,  और एक नेता को ही वोट दीजिये, किसी खिलाडी या नौटंकी करने वाले को नहीं। 

आपका अपना
नेता जी 

Tuesday 4 September 2012

गली क्रिकेट के नियम भाग १

आईसीसी के क्रिकेट खेलने के अपने नियम हैं, परन्तु गली मुहल्लों में खेले जाने वाले क्रिकेट के कई अतिरिक्त नियम होते थे, जिनसे आप परिचित होंगे यदि आपने बचपन में क्रिकेट खेला होगा। संभवत: इसे पढने के बाद आपको को भी अपने क्रिकेट केरियर के दिन याद आ जायें। इन नियमों को कोई अंत नहीं है क्योकि यह लोक, काल परिस्थिति के अनुसार बनाये और बदले जाते हैं, देश के अलग अलग भागों में इनका नाम भी अलग अलग हो सकता है। यदि आपको भी कोई पुराना नियम स्मरण आ रहा हो तो इसे अन्य पाठको के साथ अवश्य बांटिये।

गिल या सूख:             
पहले से खेलने वाले बच्चों के पास टास करने के लिये सिक्के नहीं होते थे तो पहले कौन बल्लेबाजी 
करे, इस बात का निर्णय करने के लिये, गिल-सूख पद्धति को अपनाया जाता था। इसमें एक सपाट 
छोटे पत्थर के एक सतह को थूक से गीला कर के टास किया जाता था। गीली सतह को गिल और 
सूखी तरफ़ को सूख कहा जाता था। ठीक वैसे ही जैसे सिक्के में हैड और टेल होता है।

बीच का कव्वा:    
यदि खिलाडियों कि संख्या सम (इवन) नहीं हो तो अंतिम बचा खिलाडी दोनो टीमों की तरफ़ से 
बल्लेबाजी करता है, क्योंकि वह पूरी तरह से किसी टीम में नहीं होता है, अत: उसे बीच का कव्वा 
कहा जाता है।   

ट्राई बाल:        
मैच की पहली गेंद को ट्राई बाल कहा जाता था। जैसा कि नाम से पता चलता है, ट्राई बाल का 
मतलब उस बाल से है, जिसको बल्लेबाज कहीं भी लपेट (खेल) सकता है, परन्तु उस गेंद में बने 
रन गिने नहीं जाते हैं और न ही बल्लेबाज आउट माना जाता है। शायद ट्राई बाल बल्लेबाज को 
होनेवाली गेंदबाजी जा कुछ अनुमान देती थी और गेंदबाज को पिच और हवा का।संभवत: आजकल 
क्रिकेट में फ़ेंके जाने वाली ‘फ़्री हिट’ गेंद का विचार भी आईसीसी को इसी ट्राई बालसे आया हो।

ट्राई बाल कैच आऊट:     
हालांकि ट्राई बाल का एक अभिन्न नियम यह भी था कि यदि बल्लेबाज ट्राई बाल में कैच कर लिया 
जाय तो वह आऊट माना जाता था। इस नियम को ‘ट्राई बाल कैच आऊट’ के नाम से जाना जाता 
था, और संदेह की स्थिति में निर्णायक (अम्पायर) या गेंदबाज, ट्राई बाल फ़ेंके जाने से पहले ‘ट्राई 
बाल कैच आऊट’ बोलकर इस उप-नियम की घोषणा कर देता था, जिससे यदि बल्लेबाज ट्राई बाल 
में कैच आउट हो जाय तो फ़िर कोई विवाद ना हो।        

डबल बैट आउट:   
यदि बल्लेबाज गेंद को खेलने के दौरान बल्ले से गेंद को दो बार खेल दे या गेंद बल्ले को दो बार 
स्पर्श कर दे तो बल्लेबाज को आऊट दिया जाता था। इस नियम को ‘डबल बैट आउट’ के नाम से 
जाना जाता था। अत: कोई भी बल्लेबाज एक गेंद को बस एक बार ही खेल सकता था।

एल बी डब्ल्यु:    
सामान्यत: गली-मुहल्ले के क्रिकेट में लेग बिफ़ोर विकेट (LBW) नियम लागू  नहीं किया जाता था। 
अत: किसी गेंदबाज को यदि आप अपने बल्ले से नहीं खेल पा रहे हैं तो आऊट होने से बचने के लिये 
आप आपना पांव भी बीच में डाल सकते हैं, और आप आऊट भी नहीं दिये जायेंगे। हां, आपकी जांघ 
या पांव की हड्डी में जो बोल सिकेगी (बोल से चोट लगना) वह आपकी जिम्मेदारी है।

(कुछ पाठक यह सोच सकते हैं कि इस नियम का तो बल्लेबाज दुरुपयोग कर सकते हैं। लेकिन ऐसा 
बिल्कुल भी नहीं था, क्योकिं जो अच्छा बल्लेबाज होगा उसे गेंद के सामने पांव लगाने की 
आवश्यकता ही नहीं है और जो अच्छा बल्लेबाज नहीं होगा वह निश्चित रूप से गेंद खेलने से डरता 
होगा और जो डरेगा वह क्यों एक विकेट के लिये अपना पांव सिकवायेगा। अत: एल बी डब्ल्यु आउट 
नहीं होने से भी खेल में कोई आराजकता नहीं होती थी।)

विकेट दिखा:      
गेंदबाजी करते हुये विकेट दिखाई देना किसी भी गेंदबाज का मूलभूत अधिकार होता था। एल बी 
डब्ल्यु आउट नहीं होने के कारण कुछ ढीट किस्म के अच्छे बल्लेबाज पूरा विकेट घेरकर बल्लेबाजी 
करते थे। ऐसे बल्लेबाजों को गेंद के शरीर के किसी अंग पर लगने पर भी कोई दर्द नहीं होता था। 
अत: ऐसे बल्लेबाज उन गेंदबाजों के किये सिरदर्द बनने लगे जो ना ही बाउंसर फ़ेंक सकते थे और  
ना ही तेज गेंद करा सकते थे। तब यह नियम बनाया गया कि कोई भी बल्लेबाज पूरे विकेट को 
घेरकर बल्लेबाजी नहीं कर सकता था, गेंदबाज को कम से कम एक विकेट दिखना जरूरी होता था। 
इस नियम ने एल बी डब्ल्यु आउट नहीं होने की कुछ भरपाई कर दी थी। अत: यदि गेंदबाज को गेंद 
फ़ेंकते समय विकेट नहीं दिख रहा हो तो वह बल्लेबाज को थोडा सा खिसकने को कह सकता है।
   
बेबी ओवर:       
बल्लेबाजी और गेंदबाजी करना हर किसी खिलाडी को पसंद होता है। बल्ला तो प्रत्येक खिलाडी चला 
सकता है पर सीधी और अच्छी गेंद हर खिलाडी नहीं डाल सकता है। यदि किसी टीम में गेंदबाज 
कम हों, गेंदबाजी की शर्तें (बालिंग रिस्ट्रीकशन) लागू हो तो, ओवर पूरे करने हो या फ़िर कोई नया 
गेंदबाज ट्राई करना हो तो बेबी ओवर बडा फ़ायदेमंद होता है। बेबी ओवर में कम से कम बस तीन 
ही गेंद फ़ेकनी होती है, यदि खिलाडी गेंदबाजी अच्छी करे तो कप्तान उसको पूरा ओवर फ़ेंकने को 
कह सकता है, और यदि गेंदबाज पिट जाय या वाईड और नो बाल की लाईन लगा दे तो भी ओवर 
को बेबी ओवर में समाप्त किया जा सकता है।

बल्लेबाजी और गेंदबाजी का क्रम: 
एक खिलाडी पहले क्रम पर गेंदबाजी और बल्लेबाजी नहीं कर सकता। यदि आपने बल्लेबाजी की 
ओपनिंग करी है तो आप को बालिंग में पहला ओवर नहीं फ़ेंक सकते हैं, और यदि आपने गेंदबाजी 
की थी तो आप बल्लेबाजी में निचले क्रम में खेलेंगे। परन्तु यह नियम का पूर्णत: पालन बहुत 
कठिन है क्योंकि कुछ दादा खिलाडी भी होते हैं, जो अपनी ही चलाते हैं, और यदि आपने कुछ कहा 
तो कह देंगे, कि मनोज प्रभाकर भी तो करता है/था।
                                                                       
                                                                          *क्रमश: