Tuesday 7 December 2010

युधिष्ठिर का श्राप

महाभारत का युद्ध समाप्त हो जाने के बाद पांडव, कुरुवंश के बचे हुए लोग, और युद्ध में मारे जाने वालों योद्धाओं के सगे संबंधी मिलकर नदी के तट पर, युद्ध में दिवंगत हुए वयक्तियों की मुक्ति के लिये उनका तर्पण-श्राद्ध कर रहे थे।
युधिष्ठिर भी अपने भाइयों के साथ मिलकर कौरवों, भीष्म पितामाह और अपने पुत्रों को तिलांजली दे रहे थे। कुन्ती, गांधारी और ध्रतराष्ट्र भी साथ ही बैठे थे। तभी कुन्ती ने युधिष्ठिर से बोली,
हे युधिष्ठिर! मैं चाहती हुं की तुम वीर कर्ण को भी तिलांजली दे दो, क्योंकि यहां पर उसका तर्पण-श्राद्ध करने वाला कोई नहीं है।

युधिष्ठिर ने बडें आश्चर्य से अपनी मां से कहा कि,
मां! यह बात सही है कि वीर कर्ण को तिलांजली देने वाला कोई नहीं है, लेकिन मां वो तो सूत पुत्र था और हम क्षत्रिय हैं। यह बात कहां उचित है कि कोई राजवंशीय क्षत्रीय एक सूतपुत्र का तर्पण करे।

नहीं बेटा! एक वीर की कोई जात नहीं होती। एक राजा होने के नाते तुम्हारा यह कर्त्तव्य है कि तुम अपनी प्रजा को समान द्रष्टि से देखो। अत: मेरी आज्ञा है कि तुम पांचों भाई मिल कर वीर कर्ण को तिलांजलि दो।

यह सुनकर सारे पांडव आश्चर्य में पड गये कि, युद्ध में कई अन्य व्यक्ति भी मारे गये थे जिनका नाम लेने वाला कोई नहीं है लेकिन माता कुन्ती को उस नीच, पाखंडी कर्ण की ही याद कैसे आयी, वो भी उस कर्ण की जिसने इस महाभारत को करवाने में कोई कसर नहीं छोडी। उस राधेय कर्ण ने जिसने भरी सभा में द्रौपदी को वेश्या कहा था, और मां कहती है कि उस पापी को हम तिलांजली दें। इस बात पर भीम भडक उठे और माता कुंती से बोले,
मां! चाहे ये तुम्हारी आज्ञा ही क्यों ना हो, पर मैं उस सूत पुत्र को तिलांजली नहीं दुंगा।

युधिष्ठिर को छोड कर बाकी तीनों भाइयों ने भी भीमसेन का समर्थन किया। बात बडने लगी, जैसा कुंती ने सोचा नहीं था। कुंती को लगा था कि पांचों पांडव आराम से बात मान जायेंगे और इस तरह उनके सबसे बडे पुत्र कर्ण, जिसको जीते जी तो अपने भाइयों का कभी प्यार नहीं मिल पाया, को अपने भाइयों के हाथों से जल मिल जायेगा। लेकिन अब ऐसा होता नहीं दिख रहा था, यह देखकर कुंती आपने आसुंओं को नहीं रोक पायी कि जो पुत्र जीवन भर मां और भाइयों के प्यार के लिये तरसता रहा, आज अंतिम क्षण में भी भाग्यशाली ना हो सका। मां को रोते देख पांडवों को बडा आश्चर्य हुआ कि आज मां उस कर्ण का इतना साथ क्यों दे रही है।

युधिष्ठिर ने मां से पूछा कि आखिर बात क्या है। तब कुंती ने पांडवों को कर्ण के जन्म की कहानी बतायी। यह सुनते ही पांचों पांडव हाय-हाय कर उठे, जीवन भर की घ्रणा एक क्षण में ग्लानि में भर गयी। यह जानकर तो पांडव और दुख से भरे उठे कि जिस कर्ण को वह जीवन भर सूत-पुत्र कहकर अपमानित करते रहे, वह कर्ण इस बात से अनभिज्ञ न था कि पांडव उसके ही सगे हैं।  

युधिष्ठिर रोते हुए मां से बोले कि,
हे मां! ये आपने क्या करा दिया, जीवन भर हमने अपने उस तेजस्वी भाई का अपमान तो किया ही और अंतत: अपने हाथों से उस भाई के प्राण भी ले लिये।

अर्जुन भी बहुत दुखी थे कि वह जीवन भर उसी कर्ण को मारने का लक्ष्य लिये रहे जो सूर्य-पुत्र कर्ण उनका बडा भाई था। पांडवों ने मां से पूछा कि आखिर ये बात पहले क्यों नहीं बतायी, तो कुन्ती बोली,
कर्ण ने मुझे बताने से मना किया था कि कम से कम महाभारत के युद्ध से पहले ये बात मैं किसी को नहीं बताउं। इस बात को केवल मैं, कर्ण और द्वारकाधीश क्रष्ण जानते थे। कर्ण का कहना था कि यदि पांडव यह बात जान जायेंगे कि मैं उनका बडा भाई हुं तो वह अपना सारा राज-पाट मुझे दे देंगे और मैं इसे दुर्योधन को दे दुंगा क्योंकि मैं अपने मित्र दुर्योधन के उपकार तले दबा हुं। इस तरह पांडवों को न्याय नहीं मिल पायेगा। कर्ण ने मुझे वचन दिया था कि वह अर्जुन के अतिरिक्त किसी का वध नहीं करेगा। यदि अर्जुन उसे मार डालेगा तो पांच पांडव रहेंगे और यदि अर्जुन मेरे हाथों मारा जायेगा तो मैं पांडवो का बडा भाई रहुंगा। इस तरह पांडव पांच ही रहेंगे।

यह कहकर कुंती फ़ूट-फ़ूट कर रोने लगी। सारा वातावरण दुख और पश्चाताप से भर उठा। युधिष्ठिर दुख में कह रहे थे,
हम पांडव भी कितने भाग्यहीन हैं, कर्ण जैसा वीर हमारा अग्रज था जिस पर हम सभी गर्व से फ़ूले नहीं समाते, पर उस बडे भाई को हमने स्वंय भी मार डाला। यह बात पहले ज्ञात हो जाती तो यह महाभारत ही नहीं होता। हे मां! ये आपने ये क्या कर दिया।

दुख में डूबे पांडव, पश्चाताप की आग में जल रहे थे। उनकी आंखों के आगे रंगभूमि, द्रौपदी स्वंयवर से लेकर महाभारत के युद्ध के वे सभी द्रश्य घूम रहे थे जिसमें हर क्षण वो कर्ण को सूतपुत्र कहकर अपमानित करते रहे। यह सोचना भी असह्य था कि कर्ण को कैसा अनुभव होता होगा जब भरी सभा में वह अपने भाइयों द्वारा अपमानित होते होंगे।

युधिष्ठिर अचानक क्रोध में भर उठे और अपनी अंजुली में जल लेकर बोले,
मेरी मां के इस बात को छिपाने से इतना बडा अनर्थ हो गया कि जिसके बारे में हम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते थे। यदि माता कुंती ने यह बात आज तक गुप्त नहीं रखी होती तो ना ही इतना बडा विनाश होता और ना ही हमारे उस दिव्य अग्रज का हमारे हाथों वध होता। अत: मैं पांडु पुत्र युधिष्ठिर आज सम्पूर्ण संसार की महिलाओं को श्राप देता हुं कि आज से किसी बात को गुप्त नहीं रख सकेंगी।     

हमारी भाषा में कहें तो, औरतों के पेट में कोई बात नहीं पचेगी। अब पाठकों के समझ में आया होगा कि क्यों माताओं, और जिनकी पत्नियां है उनकी, पत्नियों के पेट में कोई बात नहीं पचती है। ये युधिष्ठिर के श्राप का परिणाम है अत: भविष्य में यदि आपकी पत्नी या माता जी कोई गुप्त योजना को पडोसी महिलाओं के साथ शेयर करें तो क्रोध ना करें, वरन यह मान ले कि युधिष्ठिर का श्राप फ़लित हो रहा है।

लेखक का विचार: कलियुग का प्रभाव बड रहा है अत: मुझे लगता है कि युधिष्ठिर के श्राप का प्रभाव भी घट रहा है। इस कारण ऐसी महिलाओं की संख्या में लगातार व्रद्धि हो रही है जो बातें पचाना जानती हैं। एक बात और इस श्राप का प्रभाव अभी तक केवल महिलाओं पर ही दिखायी दिया है, कन्याओं पर नहीं।     

3 comments:

PARUL....... said...

cool yar........

sonu gupta said...

yaar jia sarai ke wo din phir yaad aa rahe hai jab ham log raat raat jaag kar mahabharat ke kisse kahaniyon kaha aur suna karte the bahut hi pyaare din the wo......kaash wo samay phir se laut ke aa jaaye.....

कथाकार said...

हां सोनु जी आपकी बात से शत प्रतिशत सहमत, कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन :)