Sunday, 10 October 2010

हो सकता है?

यह छोटी सी कविता मैंने सन २००३ में मोतीराम बाबूराम महाबिद्यालय में एक कविता प्रतियोगिता के लिये लिखी थी। कविता प्रतियोगिता का शीर्षक था, ‘हो सकता है’।

इस कविता एक ऐसी स्थिति का वर्णन करती है जिसमें एक हारा और टूटा हुआ मानव अपनी शक्ति पर संदेह कर रहा है। हम कई बार अपने आप से पूछते है कि , क्या .......... संभव ‘हो सकता है’?

यह कविता हमारे इसी संदेह को दूर करती है और हमें मनुष्य की वास्तविक शक्ति (potential) से अवगत कराती है।




हो सकता है?

हे प्राणी! नहीं यह तेरी वाणी,
तुझ से नही यह अपेक्षा,
कि करेगा उस अनंत की उपेक्षा।
तेरी शक्ति ना आदि है ना अंत,
क्योंकि तू भी है उसी का एक अंश।।१

हे मानव! महान, है तू अनंत की संतान,
प्रकाशित है तेरी शक्ति से यह विहान।
हे दुरंत, हे अनंत, हे असीम,
निस्संदेह शक्ति है तेरी निस्सीम।।२

होवे तू निष्काम पर नहीं, निष्कर्म, निष्क्रिय कभी,
निष्ठ हो तु कर्म में, अग्रणी तू धर्म में।
अंतत: पूछता पुन: प्रशन में तुझसे वही,
है अभी कुछ शेष? जो हो सकता है नहीं? ३




अनंत = जिसका कोई अंत ना हो, ईश्वर
विहान = जग, संसार
दुरंत = जिसका पार पाना कठिन हो, अपार
असीम = जिसकी कोई सीमा ना हो
निस्सीम = सीमा रहित, असीम
निष्काम = कामना एवं वासना से रहित, निर्लिप्त
निष्कर्म = बिना काम का
धर्म = सदाचार

3 comments:

Anonymous said...

bahut achcha hai ham ko bhut achcha laga ye pad ke
tum mahan ho dharke peyare santan ho
tum asim ho aasma se aapar ho tum jagat me rahne wali uchchc koti ke santan ho jug jug jiyo tumhara jag naam ho khush raho sabko khusiyan do haam bahut khush huye...................................................................................happy happy happy

कथाकार said...

धन्यवाद :)

Anonymous said...

yaad aa gayee yar us kavita path ki sahi main nirala tha..!!