ढाका नहीं रहा !
अभी अभी एक मित्र ने फ़ोन पर ये समाचार सुनाया है।
सुनते ही मैं विचार शून्य सा हो गया हुं । कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है
विश्वास ही नहीं होता की ढाका मर गया है, आखिर ढाका कैसे मर सकता है?
यह समाचार आपको कुछ अटपटा लग सकता है कि आखिर ढाका तो राजधानी है बांग्ला देश की, और किसी देश की राजधानी कैसे मर सकती है।
ऐसा भी नहीं है, शहर भी मर सकते हैं,
हिरोशिमा और नागासाकी कैसे मरे थे?
खैर छोडिये, ये मैं कहां आ गया हुं,
ढाका मेरे बचपन का मित्र था, मित्र क्या वो तो मेरा लंगोटिया यार था। ठिगना कद परन्तु बलिष्ठ शरीर, श्याम वर्ण, अंडाकार चेहेरे में रखी हुई पकोडे सी नाक, और सिर पर वो हमेशा खडे रहने वाले काले बाल जो हमेशा तेल में इसलिए भीगे रहते थे कभी तो बैठ जाएंगे। उसकी बडी-बडी हिरन सी आंखे उसकी बंगाली मां की देन थी, यही तो बस एक चीज थी जिस पर वो अपनी मां पर गया था। वरना कद काठी में तो वो अपने पिता की प्रतिक्रति था।
पिता का स्थानान्तरण होने के बाद हम इस शहर में नये नये आये थे. मुझे पास के एक सरकारी विद्यालय में कक्षा छ: में भर्ती कराया गया. उस समय सरकारी विद्यालयों में माध्यम और निम्न दोनों वर्गीय घरों के बच्चे पढ़ने आते थे क्योंकी प्राईवेट अंग्रेजी स्कूलों की फीस बहुत ज्यादा होती थी. मेरी कक्षा में करीब सत्तर बच्चे थे. मुझे बैठने की जगह मिली थी इस ढाका के साथ और वो भी अंतिम से एक पहली पंक्ती पर. उस बैंच पर मैं, ढाका और जहीर बैठते थे. जहीर एक पतला, लम्बे कद का लड़का था जिसे क्रिकेट खेलने का बहुत शौक था. जहां जहीर कम बोलने वाला शर्मीले स्वभाव का लडका था वहीं ढाका तीस मार खाँ. यही कारण था कि कक्षा के अन्य बच्चे उसके साथ बैठने से कतराते थे कि ना जाने कब गेहुं के साथ घुन बन कर पिसना पड़े. मैं कक्षा में नया नया था और मुझे तो इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी इसीलिये मानीटर ने मुझे ढाका के बगल में बैठा दिया. और जहीर भी इस बात को जानता था सो उसने मुझे ढाका और अपने बीच मैं बैठा दिया.
मैं तो नया था, सो सारे के सारे विद्यार्थी मेरे लिए एक जैसे ही थे. पहले दिन ढाका ने मेरी तरफ अपना हाथ बढाया, साथ में अपने चमकीले और दूर दूर दातों से एक मुस्कान भी दी और अपना नाम बताया विजय मंडल. यद्यपि मुझे उसका चेहरा पसंद नहीं आया फिर भी उसकी बड़ी बड़ी आँखों और उस मुस्कान में एक आकर्षण था. मन में शंका उठना स्वभाविक है कि जब उसका नाम विजय मंडल था तो मैं उसे ढाका क्यों कह रहा हुं. हुआ ये कि पहले विजय मंडल के पिता जी कलकत्ता में एक बड़े कपड़ा व्यापारी के वहां काम करते थे और काम के सिलसिले में उनका ढाका आना जाना लगा रहता था. जब मंडल साहब अपनी ढाका यात्रा से लौटते तो घर आकर यात्रा व्रतांत अपनी पत्नी को सुनाते थे, कि ढाका में ऐसा होता है, ढाका में वैसा होता है. और कभी कभी विजय को भी कुछ नमक मिर्च लगा कर ढाका के बारे में बता देते. अपने पिता की बाते सुन सुनकर, छोटे विजय के मन में ढाका की ऐसी तस्वीर बन गयी कि दुनिया में ढाका जैसा कोइ और स्थान हो ही ना. बाद मैं परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी की मंडल परिवार को अपना सब कुछ छोड़कर उत्तर प्रदेश के इस छोटे से कसबे में आना पडा जहां उन्हें कोइ नहीं जानता था. परन्तु विजय का मन और बचपन की यादें तो कलकत्ता और ढाका के साथ जुड़ गयी थी. यहां आकर भी वो ढाका का मोह मन से ना मिटा पाया, सो जब भी मौक़ा मिलता वो अपने दोस्तों के बीच ढाका का जिक्र ले आता. परन्तु यहाँ यूपी के छोटे छोटे बच्चे क्या ढाका को जाने सो वो विजय की बातों पर विश्वास नहीं करते थे. अत: अपनी बात को मनाने और दोस्तों के बीच अपने को अलग दिखाने के लिए विजय, ढाका की बातों में नमक मिर्च भी लगा दिया करता. जैसे ये बात तो उसने ही मुझे कई बार बतायी थी की ढाका में तो इतना रेशम होता है कि सारे लोग रेशम के कच्छे पहनते हैं. और यदि कोइ उसकी बात का विरोध करता तो विजय कहता कि चल मेरे घर मैं तुझे दिखाउगा, और जब घर चलने की बात आती तो वह कुछ बहाना बना देता. एक गप वह और सुनाता था कि ढाका में मछली का दूध मिलता है, और यदि उस दूध कि एक बूंद भी कोए बच्चा अपने पहले जन्म दिन कि रात को पी लेता है तो वह कभी नहीं मरता है. और वह यह भी बताता की उसके पिता जी नें उसे यह दूध पिलवाया है लेकिन पिलाने वाले बाबा ने थोड़ा जल्दीबाजी पर दी थी पिलाने में इसलिए वह अमर तो नहीं हो पाया पर दूध पिलाने वाले बाबा ने बताया था उसे कम से कम दो सौ साल तक तो कुछ नहीं होगा.
विजय ने ढाका की ऐसी ना जाने कई बातें बता बता कर कक्षा के बच्चों को इतना प्रभावित कर दिया था ये बाते दूर दूर तक फैलने लगी. लहरिया हमारे हिन्दी और संस्क्रत के अध्यापक थे। जो थोडा सनकी किस्म के थे, और कभी कभी भांग का नशा भी किया करते थे, इसीलिये उनका नाम विद्यार्थियों ने लहरिया रख दिया था। कुछ बच्चें लहरिया को पेप्सी भी कहते थे क्योंकि उनका शरीर एक पेप्सी की कांच वाली बोतल जैसा भी था। लहरिया को कुर्सी पर उकडू कर के बैठने की आदत थी. सीधे आते और कुर्सी पर मुर्गे की तरह चढ़ बैठते थे. ऐसे ही एक दिन किसी विद्यार्थी ने उत्सुकता वश ये बात 'लहरिया' से पूछ ली कि मास्टर जी क्या ढाका में ऐसा होता है? लहरिया मास्टर ने उस दिन विजय मंडल और ढाका की जो बेज्जती की थी पूरी कक्षा के सामने और उसके जिरह करने पड़ जो उसकी पिटाई की थी, उसको विजय मंडल कभी नहीं भूला. उस दिन से विजय का एक नया नाम पड़ा गया 'ढाका'. अब सारे दोस्त और विद्यार्थी उसे ढाका कहने लगे, आज के अखबार में भी तो यही लिखा है कि ढाका साहब की ह्त्या हो गयी, विजय मंडल तो पता नहीं उसी दिन कहां खो गया था.
समय तो हमेशा ही पंख लगा के उडता है फ़िर ना जाने ऐसा क्यों लगता है जैसे ये तो कल ही की बातें है। ढाका का दो कमरों का घर, मेरे घर से बस दस मिनट की दूरी पर था, यह मुझे बाद में पता चला जब एक दिन मैने ढाका को शाम के समय हमारे घर के बगल से गुजरने वाली सडक पर जाते हुए देखा। हाथ में सफ़ेद रंग का धागा बंधा हुआ और उसके आगे एक लोहे की भारी सी कील बंधी हुई। अपने वही चिर परिचित अंदाज में मुस्कुराते हुए मेरे निकट आया और बोला।
भाई तू यहां रहता हैगा? पहले कभी नहीं देखा?
अरे हम लोग इसी सप्ताह तो यहां आये हैं।
वाह भाई! सही जगह मकान लिया हैगा तेरे पापा ने, मैं भी तो नीचे कालोनी में रहता हुं।
नीचे कालोनी से उसका मतलब था, उस बस्ती से जो हमारे घर से दस मिनट की दूरी पर थी।
ढाका ने आगे बताया, '' यार मैं पतंग लूट रिया हुं’’
ये तेरे हाथ में क्या है?
ये? इसे लंगड कहते हैंगे। लंगड को गोल गोल घुमा के किसी उडती हुई पतंग की सद्दी (डोर) की तरफ़ इस तरह फ़ेंकते हैंगे कि लंगड पतंग की सद्दी को लपेट ले और
फ़िर पतंग को धीरे धीरे नीचे खीच लेते हैंगे। बस, ऐसे पतंग भी अपनी और फ़्री की सद्दी भी मिलती हैगी बेटा''।
अपनी बात खत्म करते हुए ढाका ने मुस्कुराते हए मुझे आंख भी मारी जिससे पता चले की लंगड मारने के कितने फ़ायदे हैं और मुझे भी लगे की ये लडका तो उस्ताद है। वैसे ढाका उडती पतंगों में लंगड मारने का महारथी था। कभी कभी तो किसी पतली सी दिवार में खडे खडे ही ऐसा सटीक लंगड फ़ेकता था कि पतंग तो फ़ंस ही जाती थी, फ़िर चाहे पतंगबाज अपनी को पतंग कितना भी उपर क्यों ना खींच ले। ढाका का वार कभी कभी ही खाली जाता था। कुछ गरीब बच्चे जो स्वयं पतंग और धागा नहीं खरीद सकते थे वे ढाका की ओर हो जाते और उसके लंगड मारने के दौरान उसका उत्साहवर्धन करते थे। धीरे धीरे मुझे पता चला की पतंग उडाने वाले हमउम्र बच्चों में ही नहीं किशोर उम्र के लडके भी ढाका से खौफ़ खाते थे। पतंग जाये सो जाये पर ढाका तो सद्दी और मांझा दोनो की हानी करा देता था सो ढाका जमीन पर दिखा नहीं कि आसमान से पतंगे उतरना प्रारम्भ हो जाती थी।
धीरे धीरे मुझे भी पतंग का चस्का लगने लगा था। एक दिन पिता जी से बहुत जिद करके मैने भी अपने लिये धागे की चर्खी और पतंग मंगवाई। चर्खी उसे कहते हैं जिस पर पतंग जी डोर लपेटी जाती है। अब जब उडाने की बारी आयी तो मुझसे थोडी सी भी नहीं उड सकी। जितने प्रयास में पतंग को उपर उडाने के करता उतनी ही बार मेरी पतंग सिर के बल नीचे आ गिरती। कुछ पतंगें तो बार बार सर के बल गिरने की वजह से अपनी गर्दन ही तुडा बैठी, बांकी एक दो मेरे पैरो के नीचे आकर फ़ट गयी। अब तो मुझे ढाका के आने का इंतजार था जो मेरी पतंग उडा सकता था। शाम के समय जब दूर से एक चौडा सा नीला नेकर पहने, खडे बालों बालों वाला ढाका आता दिखाई दिया तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैं, उसको अपनी चर्खी और पतंग़ दिखाने के लिये दौडा। परन्तु उसके चेहरे पर कोई भी खुशी नहीं दिखाई दी। मैने उससे कहा कि अब हम अपनी पतंग उडायेंगे। मुझे तो आती नहीं है अब तु ही उडा और लालू की पतंग से पेंच करेंगे। पतंग लडाने को ही पेंच करना भी कहा जाता है। लालू हमारे क्षेत्र का सबसे कुशल पतंगबाज था। उससे पेंच लडाने में शायद ही कभी कोई जीत पाया हो। लालू के हुनर को सम्मान देते हुए ही तो ढाका ने कभी उसकी पतंग पर लंगड नहीं चलाया था। पर मुझे पूरा विश्वास था कि लालू के घमंड और पतंग की डोर दोनो को केवल ढाका ही काट सकता है। लेकिन यह बात मुझे निराश कर रही थी कि ढाका के चेहेरे पर तो कोई उत्साह ही नहीं था, बल्कि वह तो अपना अस्त्र, लंगड को तैयार कर रहा था। कुछ देर चुप रहने के बाद वह बोला,
मेरे बाप की दुकान में हजार पतंगें मिलती हैंगी बेटे। ढाका डान लंगड क्यों मारता, अगर डान को पतंग उडानी आती?
(ढाका ने कुछ दिन पहले ही कक्षा से भागकर कर अमिताभ की डान फ़िल्म देखी थी। इस फ़िल्म में अमिताभ का नाम भी विजय है सो ढाका और अमिताभ दोनो विजय। और वह ‘डान’ से इतना प्रभावित हुआ था कि अब ढाका अपने नाम के पीछे डान सुनना पसंद करता था। हां, वह बात अलग थी की उसे डान कहता केवल वो ही था।)
क्या ! ढाका को पतंग उडानी नहीं आती थी? यह सुनकर जितना अजीब मुझे लगा उससे कहीं ज्यादा शर्मिन्दगी स्वयं ढाका की आंखों में दिखाई दे रही थी। उस शाम किसी पतंग पर लंगड नहीं चलाया गया, ढाका गहन आत्ममंथन में लगा हुआ था। बीच में एक दो बार ढाका नें पतंग को उडाने की असफ़ ल कोशिश की परन्तु बात नहीं बनी। सांझ ढले हम हारे हुए महारथियों की तरह अपने अपने घर चले गये। उस दिन के बाद ढाका गायब हो गया। ना ही वो शाम को लंगड हाथ में लिये दिखाई दिया और ना ही कभी खेलने आया। स्कूल में गर्मियों की छुट्टी चल रही थी सो स्कूल में मुलाकात होने का मतलब ही नहीं था। मेरी भी सारी पतंगें फ़ट चुकी थी और चर्खी भी पलंग के नीचे कहीं गुम हो चुकी थी।
अचानक, लगभग सोलह सत्रह दिनों के बाद एक दिन कोई काला सा लडका मेरे घर से लगे मैदान से पतंग उडा रहा था। मैने बाहर आकर देखा तो आंखें फ़टी रह गयी, ये तो ढाका था। ढाका को पतंग उढानी आ गयी थी। वह एक कुशल पतंगबाज की तरह आसमान में अपनी पतंग को नचा रहा था। जितनी तेजी से पतंग आसमान में नाच रही थी, उससे कहीं ज्याद खुशी ढाका के चेहरे में थी। मैं भी खुश था, लगता था की जैसे कोई बडा मैदान जीत लिया हो। ढाका बोला,
देखा बेटे, ढाका डान की पतंग, रशीद से उडानी सीखी हैगी। अब तो बस लालू का इंतजार हैगा। साला, बहुत समझता हैगा अपने आप को, आज उसकी पतंग कन्नी से ना काटी तो कैना। दस रुपे का कांच वाला, काला मांझा लगाया हैगा।
(मांझा उस विशेष डोर को कहते हैं जिसमें धार होती है और इसका प्रयोग विरोधी पतंग को काटने के लिये लिया जाता है।)
8 comments:
sudhir is it u who wrote it?sharad
हां शरद अभी शुरु ही किया है, ताजा माल है, सीधे फ़ैक्ट्री से
hye nice dear..... kahaniyan.... cool, frm wen u strt wrintg ... n wen is nxt part comng....
ध्न्यवाद पारुल, अगला भाग सोमवार को
क्या बात है, मित्र !!
शानदार !!
अत्युत्तम !!
Nice yar.......this is good that u started writting ur blog. Will be waiting for the next part and also for ur poems. All the best.
bhai maja aa gaya bachpan yaad dila diya haiga yaar khani ka maja loot riya hoon
is "Dhaka" a real character???
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